भरी खोपडी मे कुछ नही समा सकता.

झेन फ़कीर बोकोजू एक पहाड की तलहटी मे टुटे फ़ूटे से झौपडे में रहते थे. वहां तक पहुंचना भी बडा दूभर था. पूरा पहाड चढ कर दूसरी तरफ़ की तलहटी मे उनका झौपडा था. एक बहुत पढे लिखे तथाकथित प्रोफ़ेसर महोदय को उनसे मिलने की अभिलाषा हुई तो गिरते पडते, हांफ़ते हुये हुये, पसीने मे तर बतर होकर बोकोजू के पास पहुंच गये.



और पहुंचते ही बोले - मुझे ईश्वर के बारे मे जानना है? ईश्वर आखिर है क्या?

बोकोजू बोले - जरूर. पर आप पसीने मे तर बतर होकर पहाड चढकर यहां तक आये हैं. आपको मैं थोडा पंखा झल देता हूं, पसीना थोडा सूख जाये...फ़िर मैं आपके लिये चाय नाश्ते का ईंतजाम करता हूं, आप थोडा तब तक सुस्ता लें. इत्मिनान से बाते होंगी....और बोकोजू उसको पंखा झलने लगे. बाद मे वो चाय बनाने लग गये.

वो बुद्दिजीवी प्रोफ़ेसर अचंभित हुआ कि बोकोजू जैसा परम संत उसके लिये चाय बना कर लायेगा? आश्चर्य घोर आश्चर्य...इतनी देर में बोकोजू हाथ मे कप प्लेट और चाय की केटली लिये हाजिर होगया.

बोकोजू ने कप प्लेट प्रोफ़ेसर के हाथ मे दी और केटली से चाय उसके कप मे डालने लगा. कप भरता गया..लेकिन बोकोजू चाय डालता ही रहा...फ़िर प्लेट भी भर गई.

फ़िर भी चाय का डाला जाना जारी रहा....जब प्रोफ़ेसर को लगा कि अगर अब चाय का डाला जाना बंद नही हुआ तो यह चाय अब उसके कपडे खराब कर देगी..और गर्मा गर्म चाय से वो जल भी सकता है. सो वो बोला - महाराज...आप यह क्या कर रहे हैं? आप बेहोश हैं या पागल? आपको दिखाई नही दे रहा है कि यह कप और प्लेट दोनों चाय से पूरी तरह लबालब भर चुके हैं..और इसमे अब एक भी बूंद चाय और नही समा सकती?

बोकोजू बोले - अरे वाह..तुम तो आदमी समझदार लाग्ते हो? मैं तो समझा था तुम निरे बुद्धिजीवी प्रोफ़ेसर ही हो..पर तुम्हारे अंदर तो थोडी अक्ल अब भी बाकी है. क्योंकि यह बात तुमको समझ आरही है कि इस प्याली मे और चाय नही डाली जा सकती क्योंकि यह लबालब भर चुकी है.

अब मैं तुमसे पूछता हूं कि आंखे जरा बंद करो और देखो की तुम्हारी खोपडी पूरी भरी हुई है या नही? अगर पूरी खोपडी भरी है तो उसमे कुछ और डाला नही जा सकता....तो अब जावो और अपनी खोपडी खाली करके आना..तब मैं इसमे कुछ डाल सकूंगा...या चाहो तो यहीं रुक जावो..मेरे पास खोपडी खाली करने के उपाय भी हैं...!

मग्गा बाबा का प्रणाम!

मन ही बादशाह

हमारा मन ही बादशाह है. मन को जब तक गुरु (परमात्मा) नही मिले तब तक वो शांत नही हो सकता. आज दिवाली के बाद पहला ही दिन है. अनन्य भक्त अनूप शुक्ल जी आज सुबह सुबह ही पधारे और तीन महिनों से आश्रम के सूना होने की चिंता जताई. तो सूनापन होना शुभ की निशानी है. हम सब कहीं ना कहीं इसी सूने पन की खोज में हैं पर मन उधर जाने नही देता. मन की बादशाहत जब तक बरकरार है तब तक सूनापन गहन मौन मे परवर्तित नही हो सकता. आज जब मौन टूटा ही है तो आईये इसे एक छोटी सी कहानी के माध्यम से समझने की कोशीश करें.

एक जंगल मे एक सूफ़ी फ़कीर रहता था. सूफ़ी फ़कीरों के बारे मे यह तो आप जानते ही होंगे कि उनका कोई कर्म ऐसा नही होता कि आप उनको पहचान सकें कि यह बाबा महात्मा है. फ़कीर अपना काम धंधा, गृहस्थी यानि सारी दुनिया दारी करता दिखाई देगा पर असल मे वो मर्म का जानकार होता है.

बादशाह एक बार जंगल में भटकता हुआ इस फ़कीर के झौपडे पर पहुंच गया और इस फ़कीर का मुरीद ब्बन गया. अब वो इस फ़कीर को अपने महल मे निमंत्रित करता और आत्मज्ञान प्राप्त करता.

एक दिन फ़कीर बोला - बादशाह..अब ये तो ठीक नही लगता कि कुंआ प्यासे के पास जाये? अब तो प्यासे को ही कुयें के पास आना होगा. अत: आपको जब मेरी जरुरत लगे..आप आजाना मेरे झौपडे पर, अब मैं आपके महल मे नही आ पाऊंगा.



बादशाह को भी कुछ चस्का लग चुका था सो कुछ ही दिनों बाद वह फ़कीर के झौपडे पर जा पहुंचा. वहां देखा की फ़कीर की पत्नि बाहर आंगन मे झाडू लगा रही है. बादशाह के आते ही उससे फ़कीर के बारे में पूछा. उस महिला ने बताया कि वो पास ही के खेत मे अपने पशुओं को चराने गया है. और उसने वहीं रखी एक टूटी सी कुर्सी बादशाह की तरफ़ खिसका दी और बोली - बादशाह सलामत..आप यहां बैठिये...मैं पानी लेकर आती हूं.

बादशाह ने बैठने से मना कर दिया, जब तक वो पानी का गिलास लेकर आचुकी थी. बादशाह ने पानी पीने से भी मना कर दिया और पूछने लगा कि वो कितनी देर में आयेंगे?

महिला ने सोचा कि बाद्शाह है..सो टूटी कुर्सी पर कैसे बैठेगा सो अपने झौपडे मे पडी खाट की तरफ़ इशारा करके बोली - बादशाह सलामत..आप अंदर बैठिए खाट पर...तब तक मैं उनको बुला लाती हूं. और अपने झौपडे में पडी खाट पर एक मैली सी चद्दर बिछाने लगी.

बादशाह बोला - नही नही...मैं बैठने नही आया हूं...आप तो उनको जाकर बुला लाईये तब तक मैं बाहर ही टहलता हुं.
महिला को बडा आश्चर्य हुआ और वो पने पति को बुलाने चली गई.

फ़कीर जहां भेड बकरियां चरा रहा था वहां पहुंच कर उसने सब बात बताई. और वापस लौटते समय उसने अपने पति को बताया कि बादशाह को मैने कुर्सी पर बैठने का कहा..पर उसने मना कर दिया...खाट पर बैठने का कहा..पर मना कर दिया...पानी पीने को कहा..पर मना कर दिया. ये बादशाह मुझे तो कुछ पागल सा लगता है?

फ़कीर बोला - नही, ये अकेले बादशाह का ही रोग नही है. सभी को यही और..और की बीमारी लगी है.

उस फ़कीर की पत्नि बोली - बात कुछ समझ मे नही आई?

फ़कीर बोला - ये सब मन के खेल हैं. असल मे ये मन ही बादशाह है. जैसे किसी के पास दूकान हो तो वो शोरूम बना लेना चाहता है...शोरूम वाला सारी दुनियां मे अपनी चैन बना लेना चाहता है. यानि और..और..और की चाह निरंतर लगी रहती है. ऐसे ही ये बादशाह (मन) मुझ गुरु (परमात्मा) से मिलने आया है तो ये तेरे मैले कुचेले झौपंडे
की टूटी कुर्सी और खाट पर कैसे बैठेगा? ये तो बादशाह है..ऊंचे सपने देखेगा ही...और देखना ये जैसे ही मुझ (परमात्मा) से मिलेगा ..इसे कुछ बैठने का होश ही नही रहेगा. यानि सर्वश्रेष्ठ पा लेने तक मन रुपी बादशाह दौडता ही रहता है.


मग्गा बाबा का प्रणाम!

अपना और तर्क

रामकृष्ण परमहंस ज्यादा पढे लिखे नही थे. शायद कच्ची पहली पास या दुसरी फ़ेल. वहीं पर केशवचंद्र जी प्रकांड विद्वान और तर्क के जादूगर. और तार्किक स्वभावत: नास्तिक होता है तो वो भी थे.

रामकृष्ण जी का जितना अडिग विश्वास परमात्मा की सत्ता मे था उतना ही केशवचंद्र जी उसको डिगाने की कोशीश किया करत्ते थे. एक रोज तय होगया कि
अगले दिन सुबह ही दोनों के बीच शाश्त्रार्थ होगा और रामकृषण जी भी तैयार..स्वभावत: सरल थे सो तैयार होगये.

अगले दिन सुबह..खचाखच भरी भीड मे केशवचंद्र जी ने वो तर्क दिये कि सबको आनंद आगया. उन्होने ईश्वर के नही होने के इतने ठोस तर्क दिये कि लोग तालियां बजा ऊठे. स्वयम परम्हंस भी बच्चों की तरह तालियां बजाते रहे.

जैसे जैसे तर्क यह प्रतिपादित करता गया कि ईश्वर नही है वैसे वैसे भीड की तालियां बढती गई और केशवचंद्र जी भी खुशी से मन ही मन फ़ूले जारहे थे. पर यह क्या? परमहंस भी भीड के साथ साथ उनके समर्थन मे तालियां बजा रहे थे और अब तो वाह..वाह..भी कार्ने लगे. जब केशवचंद्र के सब तर्क खत्म होगये तब बारी आई परमहंस के तर्क देने की. यानि अब उनको सिद्ध करना था कि ईश्वर है.

अब केशव परमहंस को हंसता देखकर बोले - आप हार रहे हो यह जानकर भी आप हंसे जा रहे हो? आप कैसे सिद्ध करेंगे? आप तो तालियां बजा बजा कर स्वयम ही मेरा समर्थन करते जारहे हो?

परमहंस बोले - केशव, अब मुझे हराने का कोई उपाय तुम्हारे पास नही है. अगर अंधे को कहो कि दिये मे रोशनी नही होती तो वो मान ही लेगा, उसको कोई
अडचन ही नही है. पर जिसने अपनी आंखों से दिया देखा हो, उसको तुम कैसे समझावोगे कि दिये मे रोशनी नही होती?

इस बात पर केशवचंद्र बडॆ नाराज हुये. वो बोले - अब तो हद होगई. आप अगर मेरी बात से सहमत नही थे तो इतना खुश होकर तालियां बजाने की क्या जरुरत थी?

परमहंस बोले - वो इसलिये कि तुमने इतने अकाट्य तर्क दिये. इतनी प्रखर बुद्धि के मनुष्य को सिवाये परमात्मा के कोई बना भी नही सकता. तुम्हारे तर्क सुनकर तो मुझे परमात्मा पर और भी ज्यादा यकीन होगया.

बाद मे केशवचंद्र ने अपनी आत्मकथा मे लिखवाया कि मैं जीवन मे सिर्फ़ एक बार ऐसे आदमी हारा हूं जिसने मेरे विरुद्ध एक भी बात नही कही.

मग्गाबाबा का प्रणाम

आपसी भरोसा और विश्वास

एक बार स्वामी रामतीर्थ पानी के जहाज से अमेरिका जा रहे थे. जब जहाज किनारे लगने वाला था तब वहां काफ़ी गहमा गहमी

और हलचल बढ गयी.  सभी लोग अपना सामान समेटने मे लगे हुये थे.  स्वामी जी बिल्कुल शांत और मौन बैठे हुये थे. लोगों 
को बडा आश्चर्य हो रहा था कि इनको अपना सामान नही समेटना है क्या?

तट पर अनेक लोग अपने रिश्तेदारों और मित्रों का स्वागत करने या उन्हे लिवाने आये थे.  बहुत कोलाहल था पर  स्वामी जी 
इस शोरगुल मे भी बडी शांति से बैठे थे. उनको इस तरह शांत बैठे देखकर एक अमेरिकी युवती को बडा आश्चर्य हुआ और वो 
स्वामीजी के पास आकर बोली - श्रीमान आप कौन हैं? और कहां से आये हैं?
स्वामी जी ने बडी शांतिपुर्वक उत्तर दिया - मैं हिंदुस्थान का फ़कीर हूं.
उस युवती ने फ़िर पूछा : क्या आपके पास यहां ठहरने के लिये पर्याप्त धन है? या यहां आपका कोई परिचित है?
स्वामी जी ने कहा - मेरे पास धन संपति तो कुछ नही पर थोडा परिचय अवश्य है.
युवती ने परिचय जानना चाहा तो स्वामीजी बोले - मेरा आपसे परिचय है और थोडा भगवान से है.

अब युवती बोली - अगर ऐसा है तो क्या आप मेरे घर चलेंगे?
स्वामीजी ने उसका आमंत्रण स्वीकार कर लिया और उसके घर जाकर ठहर गये.

एक इंसान का दुसरे इंसान पर और भगवान पर ऐसा भरोसा ही सच्चे स्नेह को जन्म देता है.  अपने विचारों मे जितनी सादगी और सरलता रखेंगे
उसका प्रतिदान भी वैसा ही सहज और स्नेहपुर्ण मिलेगा.

मग्गाबाबा का प्रणाम !
  

यही है गूंगे का गुड

मन मे अनवरत विचार चलते ही रहते है !
और इन्ही विचारोंका चलना ही सन्सार है !

अगर विचार का चलना बन्द हो जाये तो
हम सन्सार से कट जाते हैं !

और थोडी देर के लिये ही सही,
पर जितना आनन्द इस अवस्था में आता है,
उतना दुसरी मे नही !

और इसके लिये किसी विशेष प्रयत्न की आवश्यकता नही है !

भगवान बुद्ध की एक साधारण सी विधी है !
अपनी आती जाती सांस को देखो !

बस देखते देखते ही वो अवस्था आ जायेगी परम आनन्द की !
पर अगर आप देख पाये तो !

बहुत साधारण सी बात दिखती है !
पर उतनी साधारण है नही !



खैर मेरा अभिप्राय सिर्फ़ इतना है कि इससे इतनी मानसिक और शारारिक स्फ़ुर्ति मिलती है कि जिस भी किसी को इसकी एक बार आदत लग गई , वो बस इसी का हो कर रह गया ! समय और स्थान की कोई पाबन्दी नही है !

जब भी जहां भी आपकी इच्छा हो जाये , आप इसका आनन्द उठा सकते हैं ! और समय बीतने के साथ क्या कुछ घट चुका होगा ? यह सिर्फ़ आप समय बीतने के साथ साथ महसूस करते जायेन्गे !

यह है सही मे गुन्गे का गुड !

कभी इच्छा हो या परेशानी महसूस करें तो अवश्य करें ! आपको आनन्द आयेगा और वैसे ही आदत बना ले तो क्या कहने ?

मग्गाबाबा का प्रणाम.

सागर तट की लहर से बातचीत

सागर का किनारा बडे असंमजस में था. वो रोज सोचता था कि ये लहर बहन ऐसा क्युं करती है? पर शिष्टाचार वश चुप रह जाता था.waves-kinara

आज उससे रहा नही गया और लहर के आते ही पूछ बैठा – बहन, मुझे एक बात समझ नही आती की तुम आती हो और तुरंत लौट जाती हो? आखिर बात क्या है? जो तुम हमेशा इतनी हडबडी मे रहती हो? अरे अब आई हो भाई के पास..तो दो  घडी बैठो..कुछ अपनी सुनाओ..कुछ मेरी सुनो.

लहर बोली – भैया आप बात तो सही कह रहे हो.  पर अगर मैं ठहर गई तो मेरा जीवन ही समाप्त हो जायेगा. इसलिये यह जरुरी है कि आने जाने का क्रम सुचारु रुप से चलता रहे.  गति ही मेरा जीवन है और जिस पल ठहर गई..उसी पल मेरी मृत्यु है.

लहर आगे बोलने लगी – भैया आप देखो ना, जब तक पानी अपनी धारा मे बहता रहता है उसको स्वच्छ नीर के नाम से बुलाया जाता है. और जहां उसका बहना बंद हुआ कि वो बदबू मारने लग जाता है.

इस सागर तट और लहर की बातचीत से यही लगता है कि जीवन प्रवाहमान होना चाहिये.  इस संसार मे ग्रह नक्षत्र नदियां सभी कुछ तो प्रवाहमान है. जहां इनकी गति रुकी की सब कुछ खत्म.

हमारे जीवन मे भी दुख सुख के रोडे आते ही रहते हैं पर इनसे घबराये बिना हमको जीवन पथ पर अबाध गति से आगे बढते रहना चाहिये.

मग्गा बाबा का प्रणाम.

सोने और जागने में कुछ फ़र्क नही…

जीवन हमेशा से ऐसा ही रहा है ! अगर हम ये सोचे कि पिछले युग मे ऐसा था और अब ऐसा है ! नही सब कुछ वैसा का वैसा ही है ! भक्त पहले भी ऐसा ही था और आज भी वैसा ही है !

 

क्या फ़र्क है ? सिर्फ़ समझ का !

असल मे भक्त को ये पता ही नही रहता कि कब उसकी जवानी आई ? कब चली गई ? कब बुढापा आया ? कब चला गया ?


कब जिन्दगी आई ? कब मौत आई ? कुछ पता ही नही चलता ! उसके अन्दर तो एक ही धुन रहती है ! एक इकतारा बजता ही रहता है उस परम प्यारे प्रभु के प्रेम का ! जीवन से मिले तो जीवन, मौत से मिले तो मौत , सुख से मिले तो सुख, दुख से मिले तो दुख !


उसका अपना तो कोई चुनाव ही नही रह जाता ! रोम रोम से राम ! उसका अपना कुछ भी नही है ! मान बडाई से कुछ ज्यादा लेना देना नही रहा ! लोक लाज भी गई !

 

राज रानी मीरा , नाचने लगी सडकों पर ! मेवाड की महारानी , कभी घुन्घट से बाहर भी ना झान्का होगा ! पर अब चिन्ता नही रही ! रख दिया सर उसके चरणों मे ! चिन्ता करे तो वो करे ! गुरु मिल्या रैदास जी ! उड़ गई नींद ! भक्त को नींद भी कहां ?

मैने एक वाकया पढा था स्वामी राम तीर्थ जी के बारे मे ! और वो यहां प्रासन्गिक होगा ! ये किस्सा है स्वामी जी के अमेरिका से वापस लौटने के बाद का ! सरदार पुरण सिंह जी उनके बडे भक्त थे ! सो कुछ दिन वो हिमालय मे स्वामी जी के साथ जाकर रहे !


दूर जंगल मे, बिल्कुल सुन्सान मे है ये बंगला ! रात को कोई आता जाता भी नही ! कमरे मे दोनो ही सोये हुये हैं ! आज से पहले की रात तक तो सरदार साहब स्वामी जी से पहले ही निद्रा के आगोश
मे चले जाते थे ! पर आज किसी कारण उनको नींद नही आ रही थी ! वो जग ही रहे थे !


कमरे मे उन दोनो के अलावा कोई नही है ! सरदार जी को राम राम की राम धुन सुनाई पडने लगी ! उनको कुछ समझ नही आया ! वो उठ कर बाहर गये औए बरामदे मे चक्कर लगा कर आये ! बाहर आवाजें कुछ कम हो गई !

 

फ़िर वापस कमरे मे लौट कर आये तो आवाजें फ़िर तेज हो गई ! उनको थोडा आश्चर्य हुवा ! फ़िर स्वामी रामतीर्थ जी के पास जाकर देखा तो आवाजें और तेज होती गई ! बिल्कुल नजदीक गये तो स्वामीजी
गहरी नींद मे सोये पडे हैं ! फ़िर ये आवाजें कहां से आ रही हैं ?


उन्होने सर, पांव, हाथ सबके पास नजदीक से सुना तो स्वामी जी के रोम रोम से राम नाम की आवाज आ रही थी ! नींद मे भी उनका रौआं रौआं राम नाम का जाप कर रहा था !

और आप चकित मत होना ! ये वैसे ही होता है जैसे २४ घन्टे गालियां बकने वाला नींद मे भी गालियां ही देता रहता है ! ऐसे ही २४ घंटे प्रभु स्मरण करने वाला व्यक्ती नींद मे भी राम का सुमरण ही करेगा !

 

अपने कार्य को करते हुये जिसने अपने को अलग कर लिया वो इस जगत मे रह कर भी इस जगत मे ना रहा ! उसके लिये जीना और मरना कोई क्रिया नही रही ! वो तो बस है।  इस सन्सार मे है भी और नही भी है !


मग्गा बाबा का प्रणाम !

ताऊ शनीचरी पहेली राऊंड २ (अंक - १)

आदरणीय बहणॊं और भाईयों, भतीजों और भतीजियों रामराम.

"ताऊ शनीचरी पहेली राऊंड २ (अंक - १)" का प्रकाशन हो चुका है. कुछ लोगों को 
इसकी फ़ीड नही मिल रही है. उसके लिये हमें खेद है.

कृपया यहां चटका लगा कर इस पहेली मे भाग लेने की कृपा करें.

रामराम.

ताऊ रामपुरिया. 

मुफ़्त का चंदन घिस मेरे नंदन : ताऊ

Posted By P. C. Rampuria (Mudgal)

नमस्कार, आपके पधारने का धन्यवाद.

रामपुरिया का हरयाणवी ताऊनामा का टेम्पलेट कुछ नखरे दिखाने लग गया है. उससे समझोता वार्ता चल रही है. अगर समझौता हो गया तो ठीक वर्ना हम दुसरा टेम्पलेट देख रहे हैं. आपसे विवेदन है कि मेरी आज की पोस्ट और खूंटा यहां नीचे पढने का कष्ट करें.

धन्यवाद.

निवेदन कर्ता : ताऊ रामपुरिया

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आजकल बिना मांगे सलाह देने की बहार आई हुई है. जिसे देखो वो सलाह देना शुरु कर देता है. हमारे इंदोरी मित्र श्री दिलिप कवठेकर जी ने हमको ढूंढने के चक्कर में वो वाली पान की दुकान ढूंढ ली जहां की सलाह पढ कर हमारे ज्ञान चक्षू खुले थे. यानि जहां किसी को ज्ञान ना बांटने की सलाह दी गई है. और उस दुकान वाले से उन्होने हमारा पता लेकर,  हमारे ताऊ आश्रम तक आ पधारे.

 

यानि वो ऐसे पहले ब्लागर बने जो ये दावा कर सकते हैं कि ताऊ को मिलने वाले वो प्रथम ब्लागर हैं. अब ये भगवान जाने कि वो ताऊ के हमशक्ल से मिले या कि किसी और से?  हमको भी कुछ नही पता. तो अब ज्यादा आपको क्या बताये?

 

लोगों ने सलाह दी कि ताऊ अब ये भैंस पुराण बहुत होगया इसे बंद करो और कुछ इज्जत लायक लिखो. बुढौती मे कदम रख दिये और ये उल्टे सीधे काम करते हो? कभी पहेली, कभी कविता...जाने तुम्हारी अक्ल को भी क्या हो गया है?  अरे कुछ तो ऐसा लिखो जो की किसी के काम आये. कोरी बकबास लिखते हो. तुमसे ऐसी उम्मीद नही थी हमको.

 

लो कर लो बात.. बुढौती मे  इज्जत लायक लिखने की अक्ल आने की गारंटी है क्या? अब इज्जत लायक क्या लिखें? अरे आप जरा बिना दुध पिये रह जाओ ! फ़िर जाने हम आपको. अब ये भैंसे हैं तो आपकी सेहत है. और सेहत है तो अक्ल है. अब आपने हमारी भैंसों से ही हमको दूर करवा दिया तो लिखने की अक्ल कहां से आयेगी?

 

खामखाह हमारी चंपाकली और अनारकली से हमको दूर करवा दिया और खुद तो खरीद कर दूध का सेवन करते हैं और हमे चाय पीने के काबिल भी नही छोडा.

 

हम तो जारहे हैं अपनी चंपाकली को लेने चांद पर. किसी को ऐतराज हो तो हमारी बला से. हमने भी फ़ुरसतिया जी का ध्येय वाक्य आत्मसात कर लिया है कि हम तो भैंस,गधे और बिल्ली बंदर पर ही जबरदस्ती लिखेंगे. कोई हमारा क्या कर लेगा?

 

 

donkey-post ताऊ पत्रिका-१० मे " मेरी कलम से " स्तंभ मे सु. सीमाजी ने गधे की कहानी सुनाई थी कि लडके और बुड्ढे ने गधे को नदी मे पटक दिया और उससे हाथ धो लिया.

 

अब सु. सीमाजी को क्या बतायें कि वो बुड्ढा और लडका असल मे रामदयाल कुम्हार और उसका लडका रमलू थे. सीमा जी ने सिर्फ़ प्रबंधकीय लिहाज से उस घटना का अवलोकन किया. पर असल बात बहुत गहरे राज की है.

 

तो आइये वो असली बात हम आपको बता देते हैं कि वो गधा जिसका नाम संतू गधा था वो नदी मे गलती से गिरा था या रामदयाल और उसके छोरे रमलू ने जान बूझकर अपना पीछा छुडाने को गिरा दिया?

 

वाकई बहुत शातिर थे दोनों बाप बेटे. मेनका गांधी की फ़ौज से बचने का पक्का उपाय किया था उन्होनें.  

 

जब रामदयाल और उसके लडके रमलू ने उनके गधे संतू  को नदी मे पटका था उसके कुछ समय पहले वो संतू गधा बडा दुखी होता हुआ  ताऊ के पास आया था.

 

और बडे दुखी मन से बोला कि ताऊ अब मैं बुढ्ढा हो चला हूं, पहले जैसा काम भी नही कर पाता. अब ये रामदयाल मुझे बेचना चाहता है पर मेरे टुटे दांत देख कर कोई खरीदता नही है.

 

अब मैं इनको चारे से भी महंगा पडने लग गया हूं. कल रात ही रमलू अपने बापू रामदयाल से कह रहा था कि बापू चल, इस संतू गधे को कही जंगल मे छोड आते हैं वहां शेर चीता इसको खा पी लेंगे और हमारा पीछा छूट जायेगा.

 

संतू गधा आगे बोला - अब बताओ ताऊ, मैं क्या करूं? कितने कृतघ्न इन्सान हैं ये दोनों बाप बेटे? जब मैं दिन रात काम करता था तब ये ही रामदयाल कहता था कि ये गधा नही ये तो मेरे रमलू के बराबर है. मैं इसको सच्चा प्यार करता हूं.

 

ताऊ : देख बेटा संतू गधे, अब तू सच्चे प्यार की दुहाई तो दे मत. अरे बावलीबूच, सच्चा प्रेम तो भूत की तरह है जिसकी  चर्चा तो सब करते हैं, पर उसको  देखा किसी ने नहीं। तू भी तो आखिर जवानी मे चंपा गधेडी को यही सपने दिखाया करता था ना?

 

अब ताऊ आगे बोला - देख मेरे प्यारे गधे.  तू भी आखिर ताऊ के पास आया है और जब सब बिन मांगी सलाह देने लग रहे हैं तो तू तो  आगे चल कर सलाह मांगने आया है.

 

और तेरी मदद तो मैं अवश्य ही करुंगा क्योंकि तू तो कृष्णचंदर जी वाले गधे की औलाद है. तेरी नस्ल को भी तो संरक्षित करना ही है ना.

 

एक सलाह ये कि हमेशा अपना मोबाईल अपने साथ मे रखना. जब भी आफ़त मे आओ मुझे फ़ोन करना तब मैं तुमको उपाय बताऊंगा. अभी से क्या बताऊं? पता नही तुझे रामदयाल और रमलू कहां लेजाकर मारेंगे? बस तू तो मुझे फ़ोन कर लेना. ताऊ की बात मानकर संतू गधा उस समय तो वापस चला गया.

 

पर  अगले ही सप्ताह अचानक उस गधे का फ़ोन आया और बोला - हैलो..हैलो  ताऊ,  मर गया मैं तो. बचाओ..बचाओ...उसकी डूबी सी आवाज आ रही थी.

 

ताऊ ने  पूछा - हां हैलो..कौन संतू? हैलो हां ..बोल बेटे बोल...क्या कहा मर गया? तो फ़िर कहां नरक से बोल रहा है? या सीधे स्वर्ग मे उर्वशी - मेनका की नृत्य महफ़िल आबाद कर रहा है?

 

गधा बोला - ताऊ, मजाक का समय नही है. रामदयाल और रमलू ने मुझे गांव के बाहर वाले सुखे कुये मे धक्का दे दिया है और अब गांव मे जाकर हल्ला कर रहे हैं कि उनका गधा अंधेरे मे कुंये मे गिर पडा है. मुझे बचाओ ताऊ.

 

अब ताऊ ने गधे को अपनी स्कीम समझाई और घबराने की बजाये धैर्य से काम लेने की सलाह दी.  बाकी का किस्सा अगले हिस्से मे पढ लिजियेगा कि संतू  गधा कुयें से निकला या वहीं मर गया कुएं में.

 


इब खूंटे पै पढो :-

जैसा कि आप जानते हैं कि ताऊ आजकल डाक्टर बन गया है और उसकी प्रेक्टिस भी
अच्छी चल रही है. लोगों को फ़ायदा भी बहुत जल्दी हो जाता है.

पर अब डाक्टर ताऊ की परेशानी इस लिये बढ गई कि जितने भी पहचान वाले हैं वो
सब आकर फ़ोकट मे इलाज करवा कर चले जाते हैं. यहां तक की कोई कैट-स्केन के
पैसे भी देने को तैयार नही.

एक रोज एक पार्टी में डाक्टर ताऊ गया था. वहां भी सब लोगों ने घेर लिया और कोई
अपनी सर्दी जुकाम का, कोई एलर्जी का यानि सब अपनी २ बीमारी की दवा पूछने लगे.

तभी वहां अपने वकील साहब द्विवेदी जी भी पधारे. अब डाक्टर ताउ ने वकील साहब से पूछा कि यार वकील साहब, मैं तो इन फ़ोकटियों का इलाज करके दुखी हो गया. फ़ीस
देते नही हैं और जहां चाहे वहां मिलते ही अपनी बीमारी का इलाज पूछने लगते हैं.
आप भी वकालत करते हैं. ऐसी समस्या आपको भी आती होगी? आप क्या करते हैं?
मुझे भी कुछ उपाय बताओ भाई.

द्विवेदी जी बोले - अरे डाक्टर ताऊ, मैं तो तुरंत पूछते ही सलाह दे देता हूं. इसमे क्या है? और फ़ीस का बिल बाद मे चपरासी द्वारा उनके घर भिजवा देता हूं.

डाक्टर ताऊ को ये बात समझ मे  आ गई, और घर आकर जितने भी लोगों ने उससे
इलाज की सलाह ली थी उनके बिल बना कर लिफ़ाफ़े मे पैक करवा कर उनके यहां
भेजने लगा.

तभी रामप्यारी जो बाहर रिशेप्शन पर बैठी थी वो एक लिफ़ाफ़ा हाथ मे लेकर आई.
और बोली - डाक्टर ताऊ, ये लिफ़ाफ़ा द्विवेदी जी वकील साहब का चपरासी दे गया है.

डाक्टर ताऊ ने लिफ़ाफ़ा खोल कर देखा तो उसमे कल पार्टी के दौरान वकील साहब द्वारा ताऊ को दी गई सलाह का बिल था सिर्फ़ रुपया दस हजार का.
  

ताऊ साप्ताहिक पत्रिका -९

नमस्कार,


रामपुरिया का हरयाणवीं ताऊनामा की सोमवार की पोस्ट ज्यादातर ब्लोग्स
पर अपटेड नही होती है. ऐसा पाया गया है,

हमने बहुत कोशीश की है इसे सुधारने की. और  श्री आशीष खंडॆलवाल के बताये
अनुसार हमने इस बर फ़ोटो भी काफ़ी कम दिये हैं. 

पर वापिस वही समस्या है.  कृपया आप यह पोस्ट " ताऊ साप्ताहिक पत्रिका -९ "
यहां चटका लगाकर पढें. इसी अंक मे ताऊ पहेली -९ के परिणाम घोषित किये गये हैं.

रामराम.

ताऊ रामपुरिया

बोधिधर्म और सम्राट वू

 

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बोधिध्रर्म एक फ़कीर. चीन गया. चीन का सम्राट वू. महान सम्राट ने उसे राजमहल मे ठहरने का आमंत्रण दिया पर बोधिधर्म तो अपने आप मे रमने वाला फ़कीर था. उसे राजमहलों से क्या लेना देना?

 

गांव से बाहर एक पहाडी पर कोई छोटा सा मंदिर जैसा कुछ था. बस वहीं ठहरा था, बोधिधर्म थोडा सनकी टाईप का भी था. उसका कुछ भरोसा नही कब क्या कर बैठे? एक बडा सा लठ्ठ यानि डंडा साथ रखता था.

 

सम्राट वू एक दिन बोधिधर्म के पास पहुंचा और बोला - फ़कीर साहब, क्या बताऊं ? मेरा मन यानि "मैं" कभी शांत ही नही होता. इतना बडा साम्राज्य खडा कर लिया फ़िर मन चैन नही लेने देता.

 

बोधिधर्म बोला - सम्राट क्या कहा आपने? आपका मन शांत नही होता? अरे इसमे कौन सी बडी बात है? आप तो एक काम करना कि आज रात को तीन बजे आजाना. और अपने साथ मे कोई सिपाही वगैरह मत लाना. बिल्कुल अकेले आना. एकदम शांत कर दूंगा आपके मन को . मेरे पास मन को शांत करने की बडी अचूक दवाई है.

 

और अब सम्राट वहां से विदा हुआ पांच दस सीढियां चल कर उतर ही रहा था कि बोधिधर्म ने पीछे से आवाज दी कि सम्राट आपके उस मैं यानि मन भी को साथ लेते आना. क्योंकि शांत तो "मैं" को ही करना है ना.

 

अब सम्राट राजमहल मे आगया. और सोचने लगा कि जाये या नही जाये? Bodhisattva (1)

क्योंकि उसने  अकेले बुलाया है. सैनिकों के साथ बिना राजा का जाना भी

ठीक नही. और फ़िर बोधिधर्म तो बिल्कुल ही पागल है. क्या पता सर मे लठ्ठ वठ्ठ मार दे. कहीं किसी दुश्मन को पकडवा दे.

 

राजा के मन मे अनगिनत विचार आते रहे. पर मन मे फ़ांस लगी थी, सो मरता क्या ना करता? अपने आप अकेला रात को तीन बजे पहुंच गया बोधिधर्म की कुटिया पर.

 

जैसे ही वहां पहुंचा तो देखा कि बोधिधर्म लठ्ठ लिये बैठा है और उसी का इन्तजार कर रहा है. बोधिधर्म बोला - आओ सम्राट आओ. मैं तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था. अब बताओ कहां है तुम्हारा मैं? जल्दी बताओ. बस एक लठ्ठ मारा तुम्हारे "मैं" को कि वो शांत हुआ. तुम साथ मे लाये तो हो ना अपने मैं को? कहीं दिखाई नही दे रहा है ?

 

अब सम्राट तो घबडाया. सोचा कि ये पागल आदमी दिखता है. मैने अकेले आकर गल्ती कर दी. और अब ये लठ्ठ जरुर मार देगा. सम्राट पछताने लगा कि आज आअदमी पहचानने मे भूल कर दी उसने.

 

बोधिधर्म बोला - सम्राट, अब तुम बताओ कि तुम्हारा मैं किधर है? तो मैं उसका इलाज शुरु करुं. जल्दी बताओ, रात भी ज्यादा हो गई है. फ़िर तुमको भी राजमहल लौटना होगा.

 

सम्राट वू हिम्मत करके बोला - महाराज आप बहुत उटपटांग सवाल पूछ रहे हो? अरे मेरा मैं कोई बाहर घूमता है क्या? जो मैं ऊठाकर आपके हवाले कर दूं? मेरा मैं तो मेरे अंदर है अब कैसे बताऊं?

 

पर बोधिधर्म तो पक्का गुरु है. हाथ आये को छोड कैसे सकता है? बोला - ठीक है. तेरे अंदर है तो उसको हम अंदर से पकड कर ही ठीक कर देंगें. बस आप तो एक काम करिये कि आंख बंद कर लिजिये, और अपने अंदर देखिये. फ़िर आपको जहां पर भी अपने शरीर मे अपना मैं दिखाई पडे मुझे फ़ोरन बताईये. मैं तुरंत उसको दो लठ्ठ मार कर शांत कर दूंगा.

 

सम्राट ने डर कर आंख बंद कर ली. और सोचने लगा कि इसको जिस तरफ़ भी इशारा किया कि यहां पर मेरा मैं है, यानि ये कहा कि मेरा मैं हाथ मे है...पैर मे है..या छाती मे है..तो ये वहीं पर लठ्ठ मारेगा और कभी कह दिया कि दिमाग मे है तो ये खोपडे पर लठ्ठ मार कर तोड डालेगा.. बोधिधर्म वैसे भी काफ़ी सनकी कुख्यात फ़कीर था. सम्राट तो फ़ंस ही गया आज..

 

धीरे २ डर के मारे जो आंखे बंद की थी..अब अपने मैं को ढुंढने लगा..हाथ पांव सर,,,दिमाग...जहां भी अपने मैं को ढुंढता..वहीं वहीं पर जवाब मिलता कि..नही ये मैं नही हूं.

बाहर बोधिधर्म लठ्ठ लिये नजदीक बैठा है, कि कब ये कहे कि ये रहा मेरा मैं और मार दे लठ्ठ उस पर.

 

सूबह की किरणें फ़ूट रही हैं...बोधिधर्म ने पूछा -- सम्राट बहुत देर होगई.. अभी तक आपका  मैं आपको मिला की नही..मैं कब से इंतजार कर रहा हूं..उधर सम्राट वू...ध्यान मे मगन  डूबा हुआ है..मैं खो गया.. कहीं मैं नही.. सारे शरीर मे खोज लिया..पर नहीं मिला मैं..अंत मे खुद ही खो गया...बस ध्यान की मस्ती में उतर गया..लगा गया गोता.

 

सम्राट ने धीरे से आंखें खोली और बोधिधर्न के पावों मे गिर पडा - बोला महाराज ..बस मैं मेरे अंदर कहीं भी नही मिला...सब जगह खोज लिया..पर अब मैं बैचेन नही हूं. शान्त हुं.

 

बोधिधर्म बोला - परमात्मा इतना ही सरल है..ध्यान इतना ही सरल है..पर हम उसे टेढा बना देते हैं ..ध्यान की हर सीढी इसी तरह से शुरु होती है.

 

मग्गाबाबा के प्रणाम.

क्या खोया ? क्या पाया?

एक समय पाम्पई का प्रसिद्ध शहर ज्वालामुखी मे जल ऊठा. तकरीबन आधी रात को ज्वालामुखी फ़ट गया और लावा बह निकला. लोग बदहवाश भागने लगे. जिसको जो हाथ लगा वही लेकर भागा.


पास मे जो भी था, सोना चांदी, हीरे जवाहरात या कीमती सामान, बस बेतहाशा भागे जारहे हैं. जिस किसी के पास हीरे जवाहरात धन नही नही है वो अपना बोरिया बिस्तर ही लिये भाग रहा है. जितना भी ऊठाकर भागा जा सकता है उससे भी ज्यादा बोझ ऊठा कर लोग भागे जा रहे हैं.


अब एक फ़क्कड फ़कीर आदमी उसी गांव का. बिलकुल मस्ती मे, हाथ मे छडी लिये इतने आराम और मस्ती मे चला जारहा है जैसे सुबह की सैर पर निकला हो.

 

लोग उसको देखकर हैरान. पूछने लगे - क्या तुमने कुछ बचाया नही? क्या तुम्हारे पास कुछ नही ? जो इस तरह बिना सामान लिये आराम से टहल रहे हो? तुम्हे मालुम तो है ना कि ज्वालामुखी फ़ट चुका है और कभी भी लावा यहां तक पहुंच सकता है?


फ़कीर बोला - भाई अपने पास बचाने के लिये कुछ था ही नही. और मुझसे सुखी आदमी इस गांव मे कोई दुसरा कभी नही रहा.


अब देखो सब रो रहे हैं, उस चीज के लिये जो पीछे छोड कर जारहे हैं.


और हमारे पास कभी कुछ था ही नही. हम तो पहले से ही होंशियार थे, हमको मालुम था कि एक ना एक दिन ये ज्वालामुखी फ़टेगा जरुर. और सब कुछ यहीं छोडकर भागना पडेगा एक दिन. सो हमने कभी कुछ जमा ही नही किया.


भाई जब मालुम है कि ज्वालामुखी पर बैठे हैं तो एक दिन तो ये फ़टने ही वाला है. आज नही तो कल ..नही तो परसों फ़टेगा..पर फ़टेगा जरुर. यानि मौत तो आनी ही है..जरुर आयेगी.


और मैने तो तुमको पहले भी दुखी देखा, पहले भी तुम इकठ्ठा कर कर के दुखी हो.  अब छोडते हुये दुखी हो.और जो बोझ ढो रहे हो उस बोझ को ढोकर भी दुखी हो.


और जो बोझ पीछे छोड आये उसके छोडने से भी दुखी हो. जब तुम्हारे पास था तब भी तुम सुखी नही थे. आज भी नही हो.मैने तुम्हे कभी सुखी नही देखा,


पास मे कुछ है तो भी लोग सुखी नही है. और पास का छिन जाये तो दुखी हैं. जैसे दुख को ही लोगो ने जीने की शैली बना लिया हो?  असल मे आसक्ति दुखी मनुष्य का लक्षण है और अनाशक्ति आनन्दित मनुष्य की मस्ती है.

 

आनन्दित होकर जीना सीखो, फ़िर देखो कैसे निर्भार हो जाओगे. आनन्दित मनुष्य आपको हमेशा हंसता खिलखिलाता दिखेगा. जैसे फ़ूल के पीछे भंवरे मंडराते हैं वैसे ही आनन्दित मनुष्य के पीछे हमेशा लोगो की भीड लगी रहती है.


आनन्द जीने की एक कला है.


मग्गाबाबा का प्रणाम.





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