पांडवो के रणनीतिकार कृष्ण को यह पका हो चुका था की कर्ण को रास्ते से हटाये बगैर अर्जुन सुरक्षित नही हो सकता ! कृष्ण ये भी जानते थे की जिस दिन भी युद्ध में अर्जुन का सामना कर्ण से हुआ उस दिन अर्जुन का अन्तिम सूर्योदय होगा ! उधर देवराज इन्द्र की चिंता तो अनंत गुना बढी हुई थी ! देवराज इन्द्र का दिन का चैन और रात की नींद ख़राब हो चुकी थी ! क्या किया जाए ? क्या नही किया जाए ? इसी उधेड़बुन में उनके दिन आज कल निकल रहे थे ! आख़िर एक पिता को अपने से अधिक अपने पुत्र की चिंता होती है ! तो देवराज की चिंता आप अच्छी तरह समझ सकते हैं !
भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे की जब तक कर्ण के पास पैदायशी कवच और कुंडल हैं वो युद्ध में अजेय है ! सूर्य पुत्र कर्ण को मारना तो दूर उसके बाणों के सामने टिकना भी किसी योद्धा के बस की बात नही है ! भीष्म पितामह और गुरु द्रोण भी कर्ण का सामना करने में अक्षम थे फ़िर अर्जुन की तो बिसात ही क्या थी ?
आख़िर सोच विचार के बाद देवराज ने एक निर्णय कर लिया और अपने सारथी को चलने की तैयारी करने का हुक्म कर दिया !
अपने वायुगति से भी तेज गति से दौड़ने वाले घोडो से जूते रथ पर सवार होकर देवराज इन्द्र तुरत फुरत कर्ण के महल में एक ब्राह्मण का वेश बना कर पहुँच गए ! राजा कर्ण, जी हाँ दानी कर्ण ...याचको को दान दे रहे हैं ! सभी याचक अपनी उम्मीद से भी ज्यादा इच्छित वस्तु पाकर खुश हैं और कर्ण को आशीष देते हुए जा रहे हैं ! सबसे अंत में एक ब्राह्मण आया और भिक्षा का अनुरोध किया ! दानी कर्ण ने पूछा - विप्रवर आज्ञा करिए ! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए हैं ?
विप्र बने इन्द्र ने कहा - महाराज आप जैसा दानी तो इस धरा पर दूसरा कोई नही है ! तो मुझे मालुम है की इच्छित वस्तु तो आप अवश्य देंगे ही ! फ़िर भी आप संकल्प कर ले तब मैं मान्गुगा !
दानी कर्ण ने थोड़ी नाराजी से कहा - विप्र आप शंका क्यूँ कर कर रहे हैं ! आप आदेश करिए ! दान के नाम पर हम जान न्योछावर कर देंगे !
विप्र - नही नही राजन ! आपकी जान की सलामती की हम कामना करते हैं ! बस हमें इच्छित वस्तु मिल जाए ! आप तो यह प्रण कर कर लीजिये !
कर्ण - हम प्रण करते हैं विप्रवर ! मांगिये !
ब्राह्मण ने कहा - राजन आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दान स्वरूप चाहिए !
इस दान वीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाए अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से खंजर की सहायता से अलग किए और ब्राह्मण को सौंप दिए ! पूरा शरीर लुहलुहान हो गया ! वाह रे दान वीर कर्ण ! अपनी मौत का सामान इस ब्राह्मण बने छलिया इन्द्र को सौपने में एक क्षण भी नही लगाया !
इन्द्र ने तुंरत वहाँ से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार हो गया ! उसने सारथी को आज्ञा दी की जितनी जल्दी हो यहाँ से भाग चलो ! देर मत करो ! इन्द्र को यह डर सता रहा था की कहीं कर्ण का मन बदल जाए और वो आकर ये अपने कवच कुंडल वापस ना लेले ! उसने सारथी को तेज गति से चलने के लिए फ़िर कहा ! पर ये क्या ? सारथि ने कहा - महाराज इन्द्र , रथ आगे नही जा पा रहा है ! अश्वों की पीठ चाबुक खा खा कर लाल पड़ चुकी हैं ! पर वो रथ को खींच नही पा रहे हैं! शायद रथ के पहिये अन्दर धंस चुके हैं !
धड़कते और आशंकित से इन्द्र ने रथ से नीचे उतर कर देखना चाहा ! इतनी देर में आकाशवाणी हुई ! उसने कहा - ऐ देवराज इन्द्र ! तुमने इतना बड़ा पाप किया है की उस पाप के बोझ से तेरा रथ जमीन में धंस गया है ! और अब आगे नही जा सकता ! अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तुने छल पूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है !
अब जैसा की सब जानते हैं इन्द्र जैसा निर्लज्ज और स्वार्थी दूसरा कोई भी नही हुआ आज तक ! सो इन्द्र ने आकाशवाणी से पूछा की ठीक है अब जो हो गया वो गया ! पाप पुन्य का फैसला होता रहेगा ! पर अभी तो मुझे यहाँ से निकलने का उपाय बताओ ! तब आकाशवाणी ने बताया की बदले में बराबरी की कोई वस्तू उस कर्ण को दे कर आवो ! उसके बाद ही तुम यहाँ से निकल पाओगे ! वरना सारी उम्र यहीं बैठ कर रोना अब !
बुरे फंसे देवराज आज तो ! क्या करते ? मजबूरी थी ! सो वापस बेशर्म जैसे पहुँच गए महाराज कर्ण के दरबार में ! महाराज कर्ण अपने दैनंदिन कार्य में ऐसे लगे थे जैसे कुछ हुआ ही नही हो ! सिर्फ़ कानो पर और सीने पर कुछ ताजा घाव के निशान और रक्त अवश्य दिखाई दे रहा था ! उन्होंने इन्द्र को आते देखा तो पूछ बैठे - देवराज आदेश करिए अब क्या चाहिए ? वह भी अवश्य मिलेगा !
इन्द्र ने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा - अब मैं याचक नही हूँ ! आपको कुछ देना चाहता हूँ ! आप मांग लीजिये जो कुछ भी चाहिए ! कर्ण ने कहा - देवराज , मैंने आज तक कभी किसी से कुछ नही माँगा और ना ही मुझे कुछ चाहिए ! कर्ण सिर्फ़ दान देना जानता है लेना नही ! अब देवराज को पसीना आ गया ! क्या करे ?
इन्द्र ने कहा - महाराज कर्ण, आपको कुछ तो मांगना ही पडेगा वरना मेरा रथ यहाँ से नही जा सकेगा ! आप कुछ मांग कर मुझ पर अहसान करिए ! आप जो भी मांगेगे मैं देने को तैयार हूँ !
अब कर्ण ने नाराज होते हुए कहा - देवराज मैं सुर्यपुत्र कर्ण ऐसा कोई काम नही करता जो मुझे माँगने के लिए विवश होना पड़े ! मुझे दान देने में आनंद आता है लेने में नही ! और ना ही मैं भिखमंगा हूँ ! देवराज को गुस्सा भी आ रहा था ! उसके मुंह पर ही उसको भिखमंगा कहा जा रहा है! पर क्या कर सकते हैं वो कर्ण का !
लाचार इन्द्र ने कहा - मैं ये वज्र रूपी शक्ती तुमको इसके बदले में दे कर जा रहा हूँ ! तुम इसको जिस के ऊपर भी चला दोगे वो बच नही पायेगा भले ही साक्षात काल के ऊपर ही चला देना ! और कर्ण कुछ कहते उसके पहले ही देवराज वो शक्ति वहाँ रख कर तुंरत भाग लिए ! कर्ण के आवाज देने पर भी वो रुके नही ! तब कर्ण ने उस शक्ति को उठा कर एक तरफ़ रख दिया और अपने काम में लग गए ! (क्रमश:)
मग्गा बाबा का प्रणाम !
11 comments:
2 November 2008 at 01:45
बाबा जी बहुत ही सुंदर कहानी कही आप ने,लेकिन कर्ण की तो अपनी कोई पहचान भी नही थी, ओर इसे दुर्योधन ने मित्र्ता के नाते राजा भी बनाया था, ओर कर्ण दानी तो था, लेकिन इस के बारे पुरा नही पता, बस यही कहानी कई बार सुनी है,हां यह पुत्र तो कुंती का ही था यानि अर्जुन का भाई.
धन्यवाद
2 November 2008 at 04:37
नहीं इस प्रकार की कहानियों से भगवान के किस रूप को दिखाने की चेष्टा की गयी है ?
2 November 2008 at 06:37
बहुत आभार...बाबा!!! आगे कथा का इन्तजार है...तब तक मग्गा बाबा की जय.. मग्गा बाबा का चिट्ठाश्रम जागता रहे!!
2 November 2008 at 06:51
अच्छी प्रस्तुती
2 November 2008 at 07:18
मग्गा बाबा की जय हो।
2 November 2008 at 07:25
to mahadani kahlaye
narayan narayan
2 November 2008 at 08:06
@ संगीता पुरी said...
नहीं इस प्रकार की कहानियों से भगवान के किस रूप को दिखाने की चेष्टा की गयी है ?
आप भगवान् के किस रूप को देखना चाहती हैं ? और यहाँ किसने दावा किया की यहाँ किसी भगवान् का रूप दिखाया जाता है ?
मैंने तो भगवान् का कोई रूप आज तक नही देखा ! आपने देखा हो तो उम्मीद करूंगा की आप अवश्य कृपा करे ! आपकी बड़ी कृपा होगी ! या आपको इन कहानियों से ऐतराज है तो इसके लिए आपसे या किस से परमिशन लेनी पड़ती है ? आप अवश्य बताए ! तब बाबा परमिशन से कहानिया सुनाया करेंगे ! धन्यवाद आपका यहाँ पधारने के लिए !
2 November 2008 at 08:30
सूर्यपुत्र कर्ण का सूर्य जैसा दानी होना स्वाभाविक ही है. सूर्य पात्र-कुपात्र का भेद माने बिना ही पृथ्वी के जीवन का स्रोत बनता है.
2 November 2008 at 08:42
@.मित्र पित्स्बर्गिया आपने बिल्कुल सही बताया है ! कर्ण महा दानी क्यों कहलाया ? उसके मूळ में यही बात है ! और आशा है भाटिया साहब को भी जवाब इसी टिपणी में मिल गया होगा !
2 November 2008 at 13:09
कर्ण का चरित्र तो आदर्श के कई उदहारण पेश करता है. दिनकर की रश्मिरथी कमाल की रचना है. जारी रखें. महाभारत से कृष्ण, भीष्म, विदुर और कर्ण के बारे में जितना लिख सकते हैं लिखिए बाबा. कृपा होगी !
4 December 2009 at 10:55
नहीं इस प्रकार की कहानियों से भगवान के किस रूप को दिखाने की चेष्टा की गयी है ?
अभी मैने इस पोस्ट में आपना कमेंट देखा .. मुझे बिल्कुल भी याद नहीं कि मैं यहां पर क्या कहना चाह रही थी .. कहानी तो बिल्कुल सटीक है .. लगता है पोस्ट करने में कुछ शब्दों के मिट जाने से यह गलतफहमी हुई है .. कुछ कमेंट लिखकर मैने लिखा था 'पता नहीं इस प्रकार की कहानियों से भगवान के किस रूप को दिखाने की चेष्टा की गयी है ? !!
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