धर्म का मर्म समझा सिर्फ़ द्रौपदी ने

महाभारत युद्ध की समाप्ति हो चुकने के बाद कृष्ण द्वारका प्रस्थान करना चाहते हैं !  अचानक वो आज का जाना स्थगित करके कहते हैं - आज कुरुवंश का सूर्य अस्त हुआ चाहता है ! वो पांडवो से कहते हैं की आज भीष्म पितामह के पास चलकर धर्म का मर्म समझ लेना चाहिए ! उनका अंत समय आ चुका है !


द्रौपदी सहित सभी पांडव और वहाँ  उपस्थित जन समुदाय वहाँ पहुँच कर पितामह के पास खडे हैं ! कृष्ण कहते हैं - पितामह देखिये कौन आया है ? सभी लोग आपसे धर्म का मर्म जानना चाहते हैं !


पितामह कहते हैं - हे श्री कृष्ण अच्छा हुआ आप आगये ! मैं अब आपका ही इन्तजार कर रहा था ! और आप तो साक्षात धर्म ही हैं ! मैं आपके सामने भला क्या धर्म का मर्म बता सकता हूँ ? मेरे पुरे शरीर में दुर्योधन के खाए हुए अन्न से जो लहू बना था वो इस शर शैया पर लेटे २ , बूंद बूंद कर निकल चुका है ! मेरे शरीर में असहनीय पीडा है ! और मैं पुरी तरह से अशक्त हो चुका हूँ ! बोलने में भी बड़ी पीडा हो रही है ! आप ही धर्म का मर्म समझाये !


श्रीकृष्ण ने आगे आकर पितामह के पुरे शरीर पर हाथ फेरा ! और उनके स्पर्श मात्र से पितामह के शरीर में हरकत हुई और वो अत्यन्त स्फूर्ति महसूस करने लगे ! तब उन्होंने धर्म का मर्म समझाया जो की काफी समय तक की चर्चा में समझाया गया ! पर लुब्बे लुआब ये की सत्य हमेशा सत्य होता है ! भले कड़वा हो पर सत्य खरा कुंदन है ! और किसी भी  प्राणी से वो व्यवहार मत करो जो तुम्हे अपने लिए ना पसंद हो ! यही था धर्म का मर्म !


जिस समय पांडव धर्म का मर्म समझ रहे थे उस समय पीछे से अश्वथामा ने जो किया वो आप पीछे पढ़ चुके हैं ! वापस लौट कर पांडव शिविर में कोहराम मचा हुआ था ! आप कल्पना कर ही सकते हैं की जिस औरत के पाँच पुत्र एक साथ काल कवलित हो गए हों उसकी क्या मनोदशा हो रही होगी ?


अचानक अर्जुन बोले - मुझे मालुम है ये किसका काम है ? पांचाली , तुम धैर्य रखो !
जो भी तुम्हारा गुनाहगार है मैं उसे तुम्हारे सामने लाकर उसका सर धड से अलग करूंगा !
अब कौरवों में सिवाए गुरुपुत्र अश्वथामा के कोई नही बचा है ! और ये कार्य सिर्फ़ उसी का है ! और किसी का नही ! और अर्जुन अपना गांडीव उठा कर चलने लगे !


अश्वथामा को मैं आकाश पाताल या कहीं पर भी हो , आज द्रौपदी के सामने लाकर उसका सर काटूंगा !


कृष्ण बोले - भैया अर्जुन मैं भी आपके साथ ही चलता हूँ!

अर्जुन - हे वासुदेव , आप क्या करेंगे ? अश्वथामा कोई इतना बड़ा वीर नही है जो आपकी जरुरत लगेगी ? और वो तेजी से बाहर निकल गया ! पर वासुदेव कृष्ण भी उसी के पीछे पीछे लग गए  !


अश्वथामा उसी जलाशय के आसपास अर्जुन को दिख गया ! अर्जुन ने जाकर उसकी बड़ी बड़ी शिखाओं से पकड़ लिया और घसीटते हुए लाने लगे ! इतने में कृष्ण ने इशारा किया की इसका सर यहीं धड से अलग करदे ! पर अर्जुन मना कर देता है ! 


अर्जुन को श्री कृष्ण ने बहुत समझाया की इसका यहीं पर काम तमाम कर दे ! पर अर्जुन बोला - की नही ! मैंने पांचाली को वचन दिया है ! मैं उसके सामने ही इसका सर काटूंगा !


इधर जैसे ही अश्वथामा को घसीटते हुए अर्जुन वहाँ पहुंचा तो द्रौपदी उसका घसीटा जाना देख कर दूर से ही चिल्लाकर बोली - आर्यपुत्र इसे छोड़ दीजिये !


अर्जुन बोला - यही है तुम्हारे पांचो पुत्रो का हत्यारा !

द्रौपदी - नही आर्यपुत्र , ये गुरुपुत्र है ! और गुरुपुत्र वध करने के लायक नही होता ! इसे अविलम्ब छोड़ दिया जाए !


इस पर युधिष्टर जो साक्षात धर्मराज का अवतार थे - उन्होंने कहा की ये बाल ह्त्या का दोषी है इसे मृत्युदंड दिया ही जाना चाहिए ! और वहाँ उपस्थित सभी ने अश्वथामा को मृत्युदंड दिए जाने की सिफारिश की !


अब द्रौपदी बोली - कल ही तो पितामह ने हमको धर्म का मर्म समझाया था की दुसरे के साथ वह व्यवहार मत करो जो तुम्हे अपने लिए पसंद ना हो  ! और आज ही भूल भी गए ? अरे पुत्र वियोग  की पीडा क्या होती है ? ये मुझसे अच्छी तरह और कौन जान सकता है ? मैं नही चाहती की माँ कृपी ( अश्वथामा की माता ) भी उस शोक को प्राप्त हो जिसे मैं भुगत रही हूँ ! अरे उनका इस अश्वथामा के अलावा अब इस दुनिया में बचा ही कौन है ? गुरु द्रौणाचार्य भी वीरगती को प्राप्त हो चुके हैं !


अब द्रौपदी ने बड़े ही तेज स्वर में कहा - आर्यपुत्र, आप  तुंरत गुरु पुत्र को छोड़ दे !


अब अर्जुन  क्या करे ? उसको कृष्ण की बात का मतलब अब समझ आया की वो क्यों उसका सर वहीं काटने का कह रहे थे ! पर अब अर्जुन की प्रतिज्ञा का क्या हो ? वो तो हत्यारे का सर काटने की प्रतिज्ञा कर चुका था !


तब कृष्ण बोले - अर्जुन,  अश्वथामा  ब्राह्मण है,  और ब्राह्मण की अगर शिखा ( चोटी ) काट दी जाए तो भी उसकी मृत्यु के बराबर ही है ! अत: अब तुम इसकी सिखा काट दो और इसके माथे की अमर मणी निकाल कर इसको भटकने के लिए छोड़ दो ! यूँ भी ये अमरता का वरदान प्राप्त है ! और अर्जुन ने ऐसा ही किया !


इसी लिए कहा जाता है की धर्म का मर्म तो सबने ही सुना था पर उसका पालन सिर्फ़ द्रौपदी ने ही किया ! धन्य हो द्रौपदी !


अब श्रीकृष्ण बोले - काफी समय हो गया अब मैं द्वारका के लिए प्रस्थान करूंगा ! रथ तैयार खडा था ! तब उन्होंने कहा की मैं बुआ कुंती से मिलकर आता हूँ ! वो अन्दर कुंती से आज्ञा लेकर गांधारी से मिलने गए !


गांधारी को प्रणाम किया तो गांधारी बोली- कृष्ण , आज मैं सब कुछ खोकर जिस हालत में हूँ , अगर तुम चाहते तो ऐसा नही होता ! इस पृथ्वी पर वर्तमान में ऐसा कोई नही है जो तुम्हारी बात का उलंघन कर सके ! तुम चाहते तो युद्ध रुक भी सकता था ! पर शुरू से ही तुम्हारी नियत में खोट था ! मैं आज ये दिन नही देखती !


मैं तुझे श्राप देती हूँ की जिस तरह मेरा कुल निर्मूल होकर खत्म हो गया ! उसी तरह से तुम्हारा कुल यदुवंश भी निर्मूल समाप्त हो जाए !


श्री कृष्ण बड़े संयत भाव से सुनते रहे और बोले - माते , मैंने तो आपके श्राप  देने से पहले ही मेरे कुल को ठिकाने लगाने का इंतजाम कर दिया था ! फ़िर आपने  क्यूँ नाहक श्राप देकर अपना तपोबल क्षीण किया ?


और श्री कृष्ण वहाँ से द्वारका के लिए रवाना हो गए ! द्वारका में नई महाभारत तैयार ही थी !


मग्गाबाबा का प्रणाम !

अश्वथामा ने द्रौपदी के पांचो पुत्रो के सर काटे

दुर्योधन की जंघा भीम द्वारा तोड़ दी गई ! अब इसका कुछ मतलब नही है की छल या बल कैसे तोडी गई ! दुर्योधन पानी को बाँधने की कला जानते थे ! सो वो जिस ताल के समीप गदायुद्ध चल रहा था उसी ताल में घुस गए और पानी को बाँध कर छुप गए !


असहनीय मानसिक और शारीरिक पीडाओं से गुजरते हुए ! वहाँ एक यक्षिणी द्वारा उनसे सहानुभूति दिखाने पर भी उस समय उन्होंने उसका प्रणय निवेदन स्वीकार नही किया ! और ये तो उस चंचला यक्षिणी की भूल थी ! क्या मौत के मुंह में जाता हुआ इंसान प्रेम मुहब्बत कर सकता है ?

दुर्योधन के पराजय होते ही युद्ध में पांडव विजय सुनिश्चित हो चुकी थी ! सभी पांडव खेमे के लोग विजयोंमाद में मतवाले हो रहे थे ! और आख़िर हो भी क्यूँ ना ? विजय आख़िर विजय होती है !

इधर दुर्योधन के पास अश्वथामा आता है ! और वो कहता है, हे कुरु श्रेष्ठ ! आप यह मत सोचना की हम युद्ध हार चुके हैं ! मेरे जिंदा रहते यह असंभव है ! आप मुझे सेनापति नियुक्त कीजिये !मुझे अमरत्व का वरदान प्राप्त है ! अब युद्ध का सञ्चालन मैं करूंगा ! और आपको इस युद्ध में विजयश्री मैं दिलवाउंगा !

दुर्योधन के चहरे पर एक बार फ़िर चमक सी उठती है ! सो दुर्योधन ने अपने रक्त से अश्वत्थामा के ललाट पर टीका लगा कर उसे सेनापति नियुक्त कर दिया !

अब कौरव सेनापति थे अश्वथामा ! अश्वथामा बोला - कुरुनन्दन ! मैं आज ही पांचो पांडवों के सर काट कर आपके कदमो में चढा दूंगा ! और दुर्योधन की आँखें एक बार फ़िर चमक उठी !

अश्वथामा वहाँ से निकल कर सीधे द्रौपदी के शिविर में आता है ! रात शुरू हो चुकी थी ! शिविर में विजयोंमाद छाया हुआ था ! उसको किसी ने नही रोका ! क्योंकि युद्ध तो समाप्त ही हो चुका था ! सो पहरे वगैरह सब ढीले कर दिए गए थे ! अन्दर शिविर में द्रौपदी के पांचो कुमार सोये हुए थे !

द्रौपदी को प्रत्येक पांडव से एक एक पुत्र था ! और हर पुत्र अपने पिता की हुबहू कार्बन कापी था ! पांचो कुमार बिल्कुल अपने पिता की तरह पांडव होने का ही भ्रम उत्पन्न करते थे ! पहचानना मुश्किल की पिता है या पुत्र !

अश्वथामा ने पांचो सोते हुए कुमारो के सर काट लिए और वहाँ से निकल भागा ! द्रौपदी के शिविर में अभी तक किसी को कुछ ख़बर नही ! और अश्वथामा आगया ताल में छिपे हुए दुर्योधन के पास !

आकर बोला - हे मित्र आज मेरा कलेजा ठंडा हो गया ! आज मैंने मेरे पिता की ह्त्या का बदला भी ले लिया और तुम्हारा ऋण भी उतार दिया ! लो पकडो ये पांचो पांडवो के सर ! और उसने वो मुंडो की पोटली दुर्योधन के पास खिसका दी !


अत्यन्त हर्ष और आवेश में दुर्योधन ने भीम का नरमुंड हाथ में ले लिया और अट्टहास कर उठा ! फ़िर और आवेग में आते हुए उसने भीम का मुंड दोनों हथेलियों में लेकर गुस्से में जोर से दबाया ! अरे ये क्या हुआ ? जरा सा जोर लगाते ही सर तरबूज की तरह फूट गया ! बिजली की गति से सारा माजरा उसकी समझ में आगया !

सर के पिचकते ही दुर्योधन ने माथा पीट लिया और चिल्लाकर पूछा - अरे दुष्ट अश्वथामा ये तूने क्या किया ? अरे ये भीम नही हो सकता ! क्या भीम का सर इस तरह मेरी हथेलियों से तरबूज की तरह फूट सकता है ?

जिस भीम पर मैं जब दो सो मन की गदा से प्रहार करता था तब गदा पलट कर अपने आप वापस आ जाती थी ! ये भीम नही हो सकता ! अरे चांडाल सही बता ! कहीं ये भीम और दौपदी का कुमार तो नही है ?

अब अश्वथामा ने बताया की वो पांडवो के द्रौपदी वाले शिविर में गया था और उन पांचो को पांडव समझ कर उनके सर काट लाया था !

अब दुर्योधन असहनीय पीडा से बोला - अरे चांडाल गुरु पुत्र अश्वथामा ! ये क्या किया तुने ? अरे हमारे वंश को ही तुने तो निर्मूल कर दिया ? ये आखिरी निशानी थे जो हमारे वंश को आगे बढाते ! तुने तो सब कुछ बरबाद कर दिया !

अरे दुष्ट चांडाल , दूर हो जा मेरी नजरो से ! और इस महाबली गदाधारी ने बड़ी पीडा पूर्वक अपने प्राण त्याग दिए !

उधर द्रौपदी के शिविर में कुमारो के सर कटे धड पाये जाने पर हां हां कार मचा हुआ था ! द्रौपदी दारुण विलाप कर रही थी ! कृष्ण, और पांचो पांडव किकर्तव्यविमुढ बैठे थे !

और सब यह सोच रहे थे की आख़िर अब कौन सा योद्धा बच गया जो ये कारनामा कर सकता था ? अचानक अर्जुन खडे हो गए और बोले --

मग्गाबाबा का प्रणाम !

राज्य प्राप्ति के लिए गांधारी और कुंती द्वारा शिव-पूजन

कृष्ण निराश होकर लौट चुके हैं ! संधि प्रस्ताव असफल हो चुका है !   महाभारत का  युद्ध टालने की सारी  कोशीसे जब बेकार साबित हो गई तो अब सिवाय इसके कोई चारा नही बचा कि युद्ध की तैयारियां की जाये ! प्रत्येक आदमी अपने अपने स्तर पर मशगूल हो गया ! अब कोई भी उपाय नही बचा कि इस विभीषिका से बचा जा सके ! गांधारी और कुंती भी अपने २ स्तर पर तैयारियों में सलंग्न हो गई !


shiv दोनों ही , गांधारी और कुंती,  राजमहल के पिछवाडे दूर जंगल में बने शिव मन्दिर में राजोपचार विधि से, अपने अपने  पुत्रो को राज्य दिलवाने की कामना से  शिव पूजन करने लगी ! कुछ दिन पश्चात भगवान् भोलेनाथ दोनों पर ही प्रशन्न हो गए और वर मांगने के लिए कहा ! दोनों ही माताओं ने अपने अपने पुत्रो के लिए राज्य माँगा ! 


भगवान् शिव बोले - यह असंभव है ! राज्य एक है तो दोनों को नही मिल सकता ! एक काम करो एक पक्ष राज्य लेलो और दूसरा मोक्ष लेले ! आप लोग आपस में निर्णय कर लीजिये !


gandhari & kunti

इस पर गांधारी बोली - शिवजी महाराज , मैं मोक्ष लेकर क्या करूंगी ? अब कोई ५/७ पुत्र हो तो मोक्ष भी लेलू ! पुरे एक सैकडे के ऊपर मेरे पुत्र हैं ! और अब कहाँ मोक्ष के चक्कर में भीख माँगते फिरेंगे ? और मेरे पुत्रो को शुरू से ही राज्य करने की आदत रही है ! बिना राज्य के इतने बड़े कुनबे का पालन पोषण नही हो सकता ! आप एक काम करिए की राज्य तो मेरे पुत्रो को  दे दीजिये और मोक्ष इनको दे दीजिये ! इनको जंगलो में भटकने की आदत भी है ! कोई ज्यादा परेशानी भी इन्हे नही होगी !

 

अब कुंती बोली - भोलेनाथ , इनके पुत्रो ने हमेशा राज्य किया है अब थोडा बहुत राज्य सुख मुझे और मेरे पुत्रो को भी मिलना चाहिए ! इसके बेटो ने तो सब सुख देख लिया अब इन्हे मोक्ष और मुझे मेरे बेटो के लिए राज्य दीजिये भगवन !


भोले नाथ ने उन दोनों को काफी समझाया पर विवाद और बढ़ता चला गया ! अब भोले बाबा भी अपनी वाली पर आगये और उन्होंने व्यवस्था दे दी की ठीक है ! जब तुम दोनों ही मानने को तैयार नही हो तो अब वरदान सशर्त कर देता हूँ ! अब कल के   अरुणोदय से पूर्व जो भी हाथी पर बैठ कर आयेगी  और एक हजार स्वर्ण कमलो से मेरा अभिषेक करेगी उसी को राज्य मिलेगा ! और इतना कह कर बिना कुछ सुने ही शिव बाबा वहाँ से अंतर्धान हो गए !


गांधारी ने आकर दुर्योधन को बताया और दुर्योधन ने सारे सुनारों को लगा दिया स्वर्ण कमल बनाने में और हाथियों की कोई कमी नही थी ! यानी गांधारी को कोई समस्या ही नही थी !


कुंती ने सोचा - भोले बाबा भी समर्थ की ही सहायता करते हैं ! भोले बाबा को मालुम है की मेरे पास एक हजार स्वर्ण कमल तो क्या एक का भी जोगाड़ नही है और हाथी तो क्या हमारे पास गधा भी नही है फ़िर इस शर्त का क्या मतलब ! सीधे कह देते की राज्य गांधारी का ! इसी तरह मन में क्षोभ-विक्षोभ उठ रहे थे की इतने में अर्जुन आ गए ! अर्जुन ने माँ से उदासी का कारण पूछा तब माँ ने सारा किस्सा बताया ! अर्जुन ने माँ से कहा - माँ आप आराम से अब शयन करो ! कल सुबह आप निर्धारित समय पर यह पूजा करने जा रही हो ! कुंती उसके मुंह की तरफ़ देखने लगी !

  

arjun और फ़टाफ़ट भाई भीमसेन जी को पुकारा ! अर्जुन बोले - भीम भाई साहब , आप इसी समय मेरा पत्र लेकर तुंरत इन्द्रलोक के लिए प्रस्थान करिए ! मैं एक चिठ्ठी आपको लिख के दे रहा हूँ ! एक पल भी समय बरबाद मत करना ! एक एक पल कीमती है ! किसी द्वारपाल वगैरह या प्रोटोकोल में मत उलझना ! सीधे इन्द्र के हाथ में यह पत्र देना और इन्द्र का ऐरावत हाथी लेकर आज आधी रात से पहले लौट आना ! और मैं इसी समय  अलका पुरी जाकर कुबेर से  एक हजार स्वर्ण कमल लेके आरहा हूँ ! और भ्राता श्री भीम आपसे निवेदन है की आप रास्ते में कहीं भी खाने पीने के लिए मत रुक जाना ! आज आप  भोजन भजन पर  कृपा ही रखना ! हमारे लिए एक एक पल इस समय कीमती है !

 

 

अब अर्जुन ने फ़टाफ़ट पत्र लिखना शुरू किया :-


indra111 स्वस्ति श्री सुरनाथ  तावक पदाम्भोज प्रणम्या दरात !

किन्चितप्रार्थयते प्रकाममसकृत पाण्डो स्तृतीय: सुत:!!

मातुर्वान्छ्ती पूर्तये निजगज: साल्न्कृति  प्रेष्यताम  ! 

नो चेद युद्ध रसाभिभाव विधिना तूर्णं समागम्यताम !!


                  अर्थात :-


स्वस्तिश्री देवराज इन्द्र के चरणकमलों में पांडव के तृतीय सुत अर्जुन का साष्टांग प्रणाम ! आपकी सेवा में थोडा सा निवेदन है पर मेरे लिए काम बहुत बड़ा है ! मेरी माता की इच्छा पूर्ति के लिए आपके ऐरावत हाथी को ( कुछ देर के लिए , सदा के लिए नही ) सजा कर भेज दें ! अगर नही भेजा तो हमको विवश होकर आपके विरुद्ध कड़वा निर्णय भी लेना पड़ सकता है !


यह लिखने के बाद जब अर्जुन ने देखा की पत्र कुछ ज्यादा ही कड़क और  अतिशयोक्ति पुर्ण लिखा गया और  उस समय में एक बार हाथ से लिखे गए को काट कर लिखना मुर्खता समझी जाती थी ! तो नीचे यह श्लोक फ़िर से लिख दिया !


            लिखितमभयतद    चिन्तनियं चिरेण !
            सुर गुरु    सहितेन   श्रीमतातदेतत !!
            न भवतु परिणामो  दुस्कृतोयेन  पक्ष !
            द्वयमपि सदृशंमे  श्रीश:  पादाब्जभाज: !!


                      अर्थात :-


जो कुछ ऊपर लिखा है उसको शांतचित से पढ़ना ! अगर मतिभ्रम हो तो देवगुरु बृहस्पति से सलाह लेना ! जल्दबाजी में निर्णय लेने से परिणाम दोनों ही पक्षों के लिए दुःख:दायक हो सकता है ! हम श्रीकृष्ण की कृपा से हाथी को युद्ध करके ले जाने में  भी सक्षम हैं !


पत्र लेकर भीमसेन जी तुंरत पहुँच गए इन्द्रलोक में ! और सीधे जा पहुंचे इन्द्रसभा में ! उन्होंने ना किसी द्वारपाल की सुनी ना किसी और की ! उनको तुंरत लौटने की हडबडी भी थी और समय उनके पास था नही ! और प्रोटोकाल के लिए समय बरबाद करने की मनाही कर दी गई थी ! तो सीधे  जा धमके इन्द्र महाराज के सामने ! और उनका हाथ पकड़ कर पत्र उनके हाथ में रख कर बोले - बता तेरा ऐरावत हाथी कहाँ है ? मैं अभी उसको लेजाने आया हूँ ! मेरे पास समय नही है ! 


इन्द्र तो आग बबूला हो गए ! कौन बदतमीज है ये ? फ़िर कुछ उलटा सीधा बोला ही चाहते थे की सोचा -   पत्र खोल कर ही देख लूँ ! क्या पता कौन हो ? पत्र की भाषा देख कर तो वो और आग बबूला हो उठे ! उन्होंने सोचा - ये तो मजाक बना रखी है इन्होने ! इन्द्र का हाथी नही हुआ कोई गाय बकरी हो गई ! चले आए मुंह उठाये ! फ़िर उन्होंने सोचा ये पहलवान छाप आदमी है इसे पहलवानी के बजाये अक्ल से निपटा लेते हैं ! और पत्र की भाषा को मन में तौल कर भी उलझने की इच्छा नही हुई ! क्योंकि सामने वाले ने श्रीकृष्ण और देवगुरु तक के नाम लिख रक्खे थे !


अब टालने की गरज से इन्द्र बोले - भीम सिंह जी , बात ये है की आज हमारे हाथी ऐरावत का ड्राईवर ( महावत ) नही आया है ! सो कैसे ले जाओगे ? आप आज रुक जावो मैं महावत को ख़बर करवाता हूँ फ़िर लिए जाना ! अब इन्द्र को मालुम था की महावत आयेगा नही तो ये कहाँ से ऐरावत ले जायेगा ?  ख़ुद ये ले जा नही सकता ! ऐरावत को वश में करना हर किसी के बूते की बात भी नही है ! ऐरावत जब पाँच सुन्डो से फुफकारता है तो अच्छे २ हवा में उड़ जाते हैं ! फ़िर भीम सिंह की तो ओकात ही क्या ? 


अब भीम सेन जी बोले - मुझे बिल्कुल भी समय नही है ! आप तो मुझे बताईये की ऐरावत कहाँ है ? बाक़ी ले जाने की चिंता आप मत करो ! वो लेजाने का काम मुझ पर छोडिये ! मुझे उसे लेजाने के लिए ही भेजा गया है ! अब इन्द्र ने उनको बता दिया की वो खडा है ऐरावत ! अब ऐरावत कितना खतरनाक हाथी है यह तो सब जानते ही हैं !


भीमसेन जी गए ऐरावत के पास ! और उसकी आगे की दोनों टाँगे दांये हाथ से पकडी और बांये हाथ से पीछे की दोनों टाँगे पकड़ कर, बकरी के बच्चे की तरह  अपनी गर्दन के पीछे कंधो  पर रख लिया और चल पड़े ! अब जैसे ही इन्द्र ने ये सब देखा उनकी तो साँसे ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई ! इन्द्र ने सोचा की ये तो ऐरावत की सारी इज्जत ख़राब कर देगा ! और समझ लिया की ये कोई साधारण वीर नही है ! इसको इज्जत पूर्वक हाथी देना ही पडेगा ! फ़िर उन्होंने कहा - हे वीर शिरोमणी  आप रुकिए  बस एक सैकिंड ! महावत आगया है ! आनन् फानन में आपको ये गंतव्य तक पहुंचा देगा ! और तुंरत भीमसेन जी समय रहते हाथी लेकर आगये !


shiv-temple और उधर अर्जुन कमल लेने अलका पुरी कुबेरजी के पास जा धमके  !  उन्होंने कुबेर जी से पहले निवेदन किया और बताया की किस प्रयोजन से चाहिए ? कुबेर को जब से रावण दादा ने लंका से बेदखल किया था तब से ही वो अलकापुरी में रह रहे थे और किसी से भी उलझते नही थे ! सो उन्होंने अर्जुन को कहा - हे कुंती  नंदन अर्जुन, आप इसी वक्त लौट जाए और चिंता नही करे ! आप पूजा की दूसरी तैयारियां देखे  !  आपके पहुँचने से पहले एक हजार तो क्या ? मैं पुरे शिव मन्दिर को ही स्वर्ण कमलो से ढांक दूंगा ! ऊपर से नीचे तक ! और वो भी सुगंध वाले स्वर्ण कमलो  से ! शंकर जी ख़ुद ही गिनती लगाते रहेंगे की कितने लाख स्वर्ण कमल से उनकी पूजा हुई ! और अर्जुन निश्चिंत होके लौट आए !   


कुंती ने समय रहते  ऐरावत पर सवार होकर पहले पहुँच कर पूजा संपन्न कर वरदान प्राप्त कर लिया ! इधर  हाथी पर सवार होके और एक हजार छोटे छोटे मानव निर्मित स्वर्ण कमल लेके   जब  गांधारी पहुँची तो सामने शिव-मन्दिर स्वर्ण कमलो से ढंका पडा था !   मालुम पडा की माता कुंती पूजा करके लौट चुकी हैं !

मैंने लंका नही जलाई : पवनपुत्र

ram-hanu अक्सर किसी भी सफलता के बाद बड़े बड़े वक्तव्य आते हैं स्व-प्रसंशा में ! जैसे आपने देखा होगा की महाभारत में विजयी होने के बाद पांडव भी इसी अतिरेक और गर्व में थे ! भीम अपनी गदा और अर्जुन अपने गांडीव को सारा श्रेय देने में लगे थे और भगवान् कृष्ण ने उनकी ओकात याद दिलाने को उस परम वीर बर्बरीक से निर्णय लेने का कहा था !


इसी तरह जब हनुनान जी माता सीता जी की ख़बर लेकर और लंका जलाकर सकुशल लौट आए तो श्रीराम के खेमे में बड़ा उत्साह और खुशी का माहौल था ! सब एक दुसरे से हँसी मजाक कर रहे थे ! महाराज  सुग्रीव, जाम्बवंत जी, हनुमान जी आदि प्रमुख सेना नायक भगवान राम  और लक्ष्मण जी के साथ बैठे थे ! और हँसी मजाक चल रहा था !


अब आप आर्श्चय चकित होंगे की इन लोगो के बीच हँसी मजाक चल रहा था ? कहीं मग्गाबाबा का माथा तो खराब नही हो गया ! असल में आपका दोष नही है ! भगवान की छवि भी हमारे दिमाग में एक उदास और लटके चहरे वाले की बना दी गई है, इन तथाकथित मर्यादावादियो ने !


अरे क्या भगवान सिर्फ़ मुंह लटकाने के लिए ही जन्म लेते हैं ? अरे  भाई भगवान कोई डरने की चीज नही है जो कई लोग आपको कहते मिलेंगे " I am God fearing man/woman.   क्यो डरते हो भगवान से ? ईश्वर तो प्रेम है ! उससे प्रेम करो ! अगर डरते हो तो तुम जरुर कोई गलत काम करते हो !


हम एक बार किसी के ब्लॉग पर जिज्ञासा वश भ्रमण कर रहे थे की उस  ब्लॉग पर किसी नए ब्लॉगर सज्जन ने लक्ष्मी जी की आरती की बड़े सुंदर ढंग से पैरोडी की हुई थी ! कुछ गलत नही था ! आप में साहस और निडरता है तो ही आप भगवान से मजाक भी कर सकते हैं ! भीरु  लोग क्या मजाक करेंगे !


फ़िर वहाँ एक मर्यादावादी की सस्नेह टिपणी दिखी " भगवान से इस तरह के मजाक नही करने चाहिए"  ये अच्छी  बात नही है ! अगर आपको लिखना ही है तो और विषय भी बहुत हैं ! लो बोलो ! अब विषय भी ये तय करेंगे !

 

और एक मर्यादावादी तो पिछले सप्ताह ही हमको भी ज्ञान प्रदान कर गया ! हमारी पोस्ट "देवराज इन्द्र ने छलपूर्वक कर्ण से कवच कुंडल लिए" पर --- नहीं इस प्रकार की कहानियों से भगवान के किस रूप को दिखाने की चेष्‍टा की गयी है ? --- अब बताईये ! हम क्या रूप दिखायेंगे ! इनको ये भी पता नही की क्या कह रहे हैं ? यहाँ किसी भगवान के दर्शन करवाने की ख़बर इनको कहाँ से मिल गई, की मग्गाबाबा ने भगवान को पिंजरे में बंद कर लिया है और लोगो को टिकट लेकर दिखा रहा है ! बहुत शर्मनाक बात है ये !


अब इसका कोई ओचित्य है क्या ? ये लोग पढेंगे लिखेंगे कुछ नही ! बस अपनी पोने दो अक्ल  लगाने कि इनको  पडी रहती है !


अब आप पूछेंगे की बाबाजी डेढ़ अक्ल लगाना तो सुना था ! अब  ये पोने दो अक्ल  क्या है ? तो आज बता ही देते हैं की ये अक्ल का फ़न्डा क्या होता है ! क्योंकि ऎसी बातो के लिए अक्ल लगाने की अक्ल भी हमें कभी कभी ही आती है !


कहते हैं की भगवान ने अक्ल बांटने का दिन घोषित किया हुवा था ! सो ये मर्यादावादी सबसे पहले उठ कर गए और लाइन में सबसे आगे खडे हो गए ! स्वाभाविक था की भगवान ने पहले ही कह दिया था की अक्ल का कुल जमा स्टाक २ किलो का है ! और फर्स्ट कम फर्स्ट सर्व बेसिस पर अलोटमेंट होगी ! चूंकी ये आगे खड़े थे सो इन्होने कहना शुरू कर दिया की दो में से डेढ़ अक्ल भगवान ने हमको दे दी और बाक़ी आधा किलो सारे जीवों को बाँट दी ! इस लिए ये कहावत चली डेढ़ अक्ल वाली !


अब काफी समय हो गया सो इन डेढ़ अकलों को भी शरीफ लोग झेलने के आदी हो गए ! फ़िर शुरू हो गया ब्लागिंग का कारोबार ! सो यहाँ के मर्यादावादी कुछ ज्यादा ही फटे में टांग अडाते हैं और चूंकी फटे में टांग अडाना डेढ़ अक्ल से नही हो सकता ! क्योंकि ब्लागिंग दूसरा भी कोई इतना कमजोर नही है ! वो भी छाती में बाल रखता है ! तो सारी समस्या खडी हो गई ! और इन मर्यादावादियो ने भगवान के नाक में दम कर दिया !


इनसे परेशान हो कर और  हार थक कर फ़िर भगवान जी ने अक्ल अलोटमेंट का दिन घोषित कर दिया ! और वही हुआ ! मर्यादावादी  फ़िर लाइन में आगे थे और अबकी बार ये झटक लाये दो में से पोने दो अक्ल ! बाक़ी सारी दुनिया को मिली पाव अक्ल ! सो इन पोने दो अक्लो से आप कहाँ तक बचेंगे ? इसलिए आज कल कहावत बदल लीजिये अब डेढ़ अक्ल नही लगाई जाती अब पोने दो अक्ल लगाई जाती है !


भाई खूब हंसो , खूब गाओ ! यही जीवन है ! रोते गाते काटने के बजाये हंस गाकर जिन्दगी गुजार लो ! अगर तुम सही में मर्यादावादी हो तो ओढ़ने की और ढोंग करने कि जरुरत नही हैं !  भगवान राम भी इस लिए मर्यादावादी पुरुषोत्तम कहलाये थे कि वो इन मर्यादावादियो कि तरह दुसरे को शिक्षा नही देते थे बल्कि उन्होंने स्वयं वैसा जीवन जीकर दिखाया ! इसलिए वो  मर्यादा पुरुषोत्तम  राम थे !


आपके इन मर्यादावादियो की तरह उन्होंने प्रपंच नही  किया ! जीवन में जितना झूँठा ढकोसला करोगे उतनी ही ज्यादा तकलीफ उठाओगे ! ये पका समझ लेना ! इसलिए हलके होकर जीओ ! ढकोसला मत पालो ! फ़िर देखो , तुम्हारे जीवन में बहारे आ जायेगी ! निर्भार हो जाओगे ! मत पालो इन मर्यादावादियो की फ़िक्र ! ये तो जलने के लिए पैदा हुए हैं इनके भाग्य में यही है ! इनको जलने दो ! 


इन के चक्कर में कहानी ही रह गई थी ! हाँ तो वहाँ श्रीराम ने हंसते हुए हनुमान जी से पूछा -पवन पुत्र, आपने बड़ा ही सुंदर कार्य करके मुझ पर उपकार किया है !


हनुमान - नही प्रभु ! मैंने कुछ नही किया ! ये सब आपकी कृपा थी !


श्रीरान - भाई हनुमान , तुम्हारे परम मित्र जाम्बवंत जी कह रहे हैं कि तुमने लंका जलादी ?


हनुमान - नही प्रभु, मैंने लंका नही जलाई !


श्रीराम - ये क्या कह रहे हो पवन सुत ? आप झूँठ कबसे बोलने लग गए ? सारी दुनिया में ढिंढोरा पिट चुका है कि रावण की लंका पवन पुत्र ने जला कर ख़ाक करदी और आप कह रहे हैं कि मैंने नही जलाई ? आख़िर माजरा क्या है  पवनसुत ?   हमें भी तो बताइये कि आपको झूँठ बोलने की क्या जरुरत पड़ गई ?


हनुमान बोले - हे श्रीराम , आपको मुझ पर पुत्रवत प्रेम है ! और पुत्र की बदमाशियां भी अच्छी लगती हैं ! असल में पिता अपने पुत्र पर उपरी दिखावे के लिए ही नाराज होता है ! वरना तो पुत्र की जायज नाजायज सब हरकत और उसका छोटा काम भी बड़ा लगता है !


भगवान श्रीराम मुस्करा दिए और कहा - हनुमान आगे भी कुछ बताओगे या भाषण ही पिलाओगे ?


हनुमान जी बोले - परभू इस संसार में इतना बलशाली और हिम्मत वाला कोई नही है  जो दशानन रावण की लंका जला सके ! फ़िर मेरी तो ओकात ही क्या ? दसकंधर जितना अकलवान जब लंका जैसा दुर्ग बनवाता है तो फायर प्रूफ पहले करवाता है !


अब श्रीराम चोंके और बोले - पवन सुत साफ़ साफ़ बताइये ! आप पहेलियाँ मत बुझाइये ! माना कि आप विद्ध्या बुद्धी में अजेय हैं ! पर अधीरता मत बढाइये !


हनुमान जी बोले - प्रभु आपकी बात सही है ! लंका जलते तो मैंने भी देखी थी ! मैं भी वहीं था ! पर यकीन मानिए वो मैंने नही जलाई थी ! पर मैंने ५ लोगो को मिलकर लंका जलाते देखा था !


अब तो लखन लाल जी का धैर्य जवाब दे गया ! वो बोले -- भ्राता हनुमान ! माना कि आप हम सबमे ज्यादा पढ़े लिखे हैं ! आप सूर्य के शिष्य हैं ! पर अब इतनी उंची उंची पहेलियाँ तो मत बुझाईये !


अब वो ५ कौन थे ? ये भी बता ही दीजिये !


इस पर विनय पूर्वक इस विनय की मूर्ति  हनुमान जी ने कहा  :- सुनिए :-


(१) रावण का पाप 


(२) सीता का संताप


(३) विभीषण का जाप


(४) प्रभु का प्रताप


(५) हनुमान का बाप (पवन)


इस प्रकार इस विनय की साक्षात मूर्ति ने जवाब दिया और प्रभु श्रीराम ने उठकर उनको अपने गले से लगा लिया !


मग्गाबाबा का प्रणाम !

हनुमान जी ने बताया अपनी शिक्षा दीक्षा के बारे में

किष्किन्धा पर्वत पर पहुँच कर हनुमान जी ने दोनों भाईयो को उतार कर और अपने महाराज सुग्रीव को प्रणाम किया ! और उनको परिचय करवाया !  उसके बाद एकांत में हनुमान जी से जब लक्ष्मण ने बार बार बताने का आग्रह किया की वो सुग्रीव जैसे निहायत ही डरपोक किस्म के प्रति इस तरह क्यों रहते हैं ! सुग्रीव कहीं से भी आपके महाराज नही लगते हैं ! तब हनुमान जी ने बताया की मैं बचपन में बहुत ही शरारती था !


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मुझे सिवाय बदमाशी करने के और कोई शौक नही था ! ऋषी मुनियों के आश्रम में पेड़ पोधे तोड़ देना , फल खाए तो खाए नही तो तोड़ कर फेंक देना ! ताकत और बल मेरे अन्दर इतना था की मैं हाथियों को उठाकर पटक देता  था ! मेरी माता अंजनी के पास रोज कोई ना कोई मेरी शिकायत ले लेकर आ जाता था ! आख़िर माँ परेशान हो गई और जब मेरे बापू केशरी घर आए तो मेरी शिकायत करदी ! अब बापू को भी कुछ चिंता हो गई की आख़िर इस बालक का क्या करे ? ये रोज दिन पर दिन बिगड़ता जा रहा है ! मुझे कितने ही स्कुलो और गुरुकुलों में भेजा गया ! पर मुझे पढाने को कोई तैयार ही नही हुआ ! और वो मुझे क्या पढाते ? वो जानते थे की इसको आश्रम में  रखना और आफत मोल लेना ! सो  आख़िर कार मेरे परेशान बापू को रास्ता सूझ ही गया !

 

मेरे बापू केशरी जी ने सोचा की ये बालक सूर्य के समान ओजस्वी है ! अगर इसको सूर्य भगवान् के पास पढने उनकी स्कूल में भेज दिया जाए तो ये पढ़ लिख कर आदमी बन सकता है ! अब मेरे पिताजी मुझे लेकर सूर्य देवता के पास गए ! जब उन्होंने आने का कारण पूछा तो पिताजी ने बताया ! अब सूर्य देव बोले - केशरी जी आपकी बात तो सही है ! आपका बालक बड़ा शैतान है  ! चलिए मैं मान लेता हूँ की बचपने में इसने मुझे अपने मुंह में रख लिया होगा पर अब मैं इसको कैसे पढा सकता हूँ ? टालने की गरज से सूर्यदेव बोले !


सूर्य देव बोले - केशरी जी मेरा कोई एक ठिकाना तो है नही ! मैं इसको कहाँ पर शिक्षा दूँगा  ? मैं चोबिसों घंटे चलता रहता हूँ ! मेरा ठहरने का काम ही नही है !  अब इतनी पिताजी की परेशानी देख कर मैंने तय कर लिया की अब मैं भी पढ़ लिख कर  सज्जन बनूंगा और अब बदमाशियां करना बंद कर दूंगा ! इस पर मैंने कहा - अब तो आप ही मेरे गुरुजी हो ! आपके आगे २ मैं आपकी तरफ़ मुंह करके चलता रहूंगा और आप अपना चलने का काम भी करते रहना और मुझे पढाते भी रहना ! अब मेरा यह आईडिया सुनकर गुरुजी सूर्यदेव तो मेरे ऊपर प्रशन्न हो गए और मुझे पढाने के लिए राजी हो गए ! इस तरह सूर्य देव का शिष्य बन कर मैंने शिक्षा प्राप्त की !

hanuman-lakshman जब शिक्षा प्राप्त हो चुकी और मैं वहाँ से चलने लगा तब मैंने गुरुजी से कहा की आप गुरुदक्षिना ले लीजिये ! गुरुजी ने मना कर दिया ! मैंने बहुत जिद की और कहा की ऐसा तो नही हो सकता ! आपको गुरुदक्षिना तो लेनी ही पड़ेगी ! बहुत मना  करने पर भी मैं टस से मस नही हुआ तब गुरुजी ने कहा -  ठीक है , मेरा बेटा सुग्रीव  है और वो बहुत ही कामी और लम्पट है ! साथ ही साथ वो डरपोक और भीरु भी है ! मुझे हरदम उसी की चिंता लगी रहती है ! मैं तुमसे गुरुदक्षिना में यही मांगता हूँ की तुम हमेशा उसकी सहायता करना ! तुम्हारी सहायता के बिना वो राज काज भी नही कर पायेगा !


इतना कह कर हनुमान जी आगे बोलने लगे - भाई लक्ष्मण , यही कारण है की मैं हमेशा इनकी सहायता और सेवा  में लगा रहता हूँ ! और मुझको इन में अपने गुरु सूर्यदेव की झलक ही दिखाई पड़ती है ! ये मेरे गुरुपुत्र हैं और मेरे लिए हमेशा वन्दनीय है !इनकी सेवा ही मेरे लिए गुरु सेवा है !  इतना सुन कर लक्षमण जी उठे और हनुमान जी के गले लग गए ! सही है इतनी वीरता प्राप्त व्यक्ति जब विनयशील होता है तभी सच्ची विनयशीलता आती है ! कमजोर तो हमेशा  मजबूरी की वजह से  विनयशील होता है !


मग्गाबाबा का प्रणाम !

अपने बारे में हनुमान जी ने बताई कुछ गूढ़ बातें

सीता जी की तलाश में राम और लक्ष्मण जंगलो में भटकते २ किष्किन्धा पर्वत के पास घूम रहे थे ! वही पर सुग्रीव अपने भाई बाली के डर से छुप कर रहते थे ! उन्होंने जब इन दोनों भाईयो को इधर आते देखा तो अपने डरपाक स्वभाव वश हनुमान जी से कहा - हनुमान , जरा आप देखो कौन है ? मुझे डर लग रहा है ! लगता है बाली भाईसाहब के भेजे लोग ही हैं ! जाओ और पता लगाओ ! अगर मेरा अनुमान सही हो तो दूर से इशारा कर देना , मैं निकल भागूंगा ! जाओ जल्दी करो !

 

hanuman3 हनुमान तुंरत पर्वत से निचे आते हैं और दोनों भाईयो से परिचय प्राप्त करते हैं ! जब दोनों तरफ़ से तसल्ली  हो जाती है तब हनुमान कहते हैं - हे श्रीराम , मेरे महाराज सुग्रीव , यहाँ अपने भाई के डर से वनवासी जीवन काट रहे हैं ! और आपकी तरह ही भार्या के विरह से भी पीडीत हैं ! उनके भाई बाली ने उनकी पत्नी को भी छीन लिया और जान का प्यासा बन कर उनके पीछे पडा है ! आप मेरे साथ ऊपर पर्वत पर उनके पास चलिए ! मैं आप दोनों की मित्रता करवाए देता हूँ सो आप दोनों मिलकर अपने लक्ष्य में सफल हो सकेंगे !


अब श्री राम ने कहा - हनुमान जी , मैं क्यों ऊपर जाऊ ?  आपके महाराज सुग्रीव की व्यथा आप ख़ुद ही बखान कर रहे हैं की, वो ये मालुम होते हुए भी,  की उनकी पत्नी उनके भाई बाली ने छीन ली और डर से छुप कर यहाँ रह रहे हैं,  तो वो बलशाली और वीर पुरूष तो नही ही हैं ! और कायर से दोस्ती करने मैं क्यों ऊपर जाऊं ? अगर उनको दोस्ती ही करनी है तो उन्हें नीचे मेरे पास आना चाहिए !


अब हनुमान ने अत्यन्त सुंदर बात कही - हे प्रभो . ये जीव तो कभी भी कुछ पकड़ कर छोड़ देता है ! पर आप तो परम ब्रह्म हैं ! अगर आपने एक बार उनका हाथ  पकड़ लिया तो फ़िर साथ नही  छूटेगा ! महाराज सुग्रीव का क्या ? आज पकड़ लेंगे फ़िर शायद कल छोड़ भी देंगे ! इस करके मैं चाहता हूँ की आप कृपा करकर ऊपर चलिए ! और मेरा मनोरथ पूरा करिए ! श्रीराम हनुमान जी की लच्छेदार बातो में आ गए और ऊपर चलने के लिए तैयार  हो गए ! और बोले - हनुमान तुम तो मुझे लक्षमण से भी दुगुने प्रिय हो !


सुनु कपि जिए मानसि जनि ऊना ! तैं मम प्रिय लछमन ते दूना !!

 

तुम्हारी बात मैं कैसे टाल सकता हूँ ? और चलने के लिए अपने डंड-कमंडल समेटने लगे !


इधर लक्ष्मण ने सुना तो उनके तन बदन में आग लग गयी ! उन दोनों की बातें सुन कर लगा की उनकी १३ साल की तपस्या भंग हो गई ! अरे दिन रात जंगलो में ख़ाक मैं छान रहा हूँ और मेरे से भी प्रिय ये बन्दर हो गया ? और छोटा मोटा भी नही, सीधे दुगुना प्रिय ! लक्ष्मण की मनोदशा इतनी खराब हो गई की लगा , उन्होंने राम के साथ वनवास में आकर अपनी जिन्दगी खराब कर ली ! लक्ष्मण के तन बदन में आग लग गई ! उनको लगा की अभी भैया राम से पूछे की - यही इनाम दिया मेरी सेवा का ? उनका मन ये सहन नही कर पाया ! मन कह रहा था की अभी लौट चले वापस अयोद्धया को ! उनका अब क्या काम ? अब ये  बन्दर महाराज मिल  तो गए मुझसे सीधे दुगुने प्रिय ! यही ढूंढ़ लायेंगे सीता भाभी को ! मन हाहाकार  करने लगा ! बस मन बगावत करने को तैयार था ! फ़िर सोचा - पहले ये बन्दर हनुमान चला जाए , फ़िर पूछता हूँ और  उसके बाद अगला कदम उठाउंगा !लक्ष्मण मन ही मन  पूरी तरह बगावत पर उतर आए !


१३ साल के वनवासी जीवन के कारण पांवो में छाले  पड़े हुए हैं ! श्रीराम सोच रहे हैं हैं ऊपर कैसे चढेंगे ? इतनी खतरनाक और सीधी चढाई पर ! उन दर्रों को कोई बन्दर ही पार कर सकता है ! श्रीराम असल में लक्ष्मण की मन की बात जान चुके थे ! और उन्होंने इसी वक्त उसका निदान करने की वजह से हनुमान जी को ये पीडा मन  ही मन  बताई !  श्रीराम की  बातें जान कर हनुमान बोले - श्रीराम आप और भैया लक्ष्मण मेरे दोनों कांधो पर सवार हो जाईये ! मैं आपको अभी पर्वत शिखर की चोटी पर पहुंचा दूंगा ! और दोनों भाई उनके काँधे पर सवार हो गए ! और हनुमान जी ने जो हैलीकोप्टर की तरह सीधे उपर की तरफ़ ९० डिग्री पर उठना शुरू किया तो लक्ष्मण दंग रह गए ! और देखते ही देखते उनको किष्किन्धा पर्वत की चोटी पर पहुंचा दिया !


लक्ष्मण ने सोचा , मैं तो सिर्फ़ शेषनाग हूँ जो अपने फन पर पृथ्वी का भार उठाये हूँ ! और ये कौन है ? जो मुझ शेषनाग सहित नारायण ( श्रीराम ) को भी अपने कंधे पर धारण कर लिया ! और इस तरीके से कोई साधारण मनुष्य या बन्दर तो नही कर सकता ? भैया सही कह रहे थे ! ये तो मुझसे भी दुगुना प्रिय होगा ही ! मैं सिर्फ़ पृथ्वी का बोझ धारण करता हूँ और ये तो मुझ शेषनाग सहित नारायण का बोझ भी धारण करता है ! तो उनका मन हनुमान के प्रति अनुराग से भर गया !


उनका बगावत करने का विचार तो काफूर हो गया और नई खट खट दिमाग में शुरू हो गई की ये मुझसे भी बलशाली कौन है जो यहाँ बन्दर रूप में बैठा है ? ऊपर पर्वत पर पहुँच कर लक्ष्मण जी ने अपनी जिज्ञासा हनुमान जी के समक्ष रखी ! उन्होंने पूछा की - आप यहाँ क्या कर रहे हैं और कौन हैं ? और आप इतने बलशाली हो कर भी ये कायर की तरह छिपे सुग्रीव को महाराज महाराज संबोधित कर रहे हैं ? मुझे समझ नही आ रहा है की आप इनकी सेवा चाकरी क्यो कर रहे हैं ! जबकि आप तो  स्वयम महाराज बनने के हर तरह से काबिल हैं !  हे वानर श्रेष्ठ आप मेरी जिज्ञासा शांत कीजिये ! 

  

ये कहानी यहाँ पुरी हुई ! हनुमान जी ने अपने और सुग्रीव के गूढ़ रिश्तो के बारे में जो बताया वो  आपने शायद पहले कहीं नही पढा  होगा   ! वो फ़िर कभी बता देंगे ! क्रमश: में हमको भी बंधन लगता है  और आपको भी लगता  है ! अब इस बंधन से आप और हम मुक्त होते हैं ! अक्सर जब भी मौज आयेगी तब यहाँ गप-शप चलती रहेगी ! हमको तो कोई प्रसंग याद आजाता है तो आपको सुना देते हैं ! 


और यहाँ जो भी प्रसंग हम आपको बताते हैं वो अमूमन ज्यादा प्रचलित नही हैं ! और ज्यादा प्रचलित प्रसंग तो आप भी जानते हैं और सारी दुनिया जानती  हैं !  ये प्रसंग कुछ टीकाकारों  ने लिखे हैं ! हमने इनकी कापी नही की है ! वर्षों पहले ये हमने पढ़े सुने होंगे ! अब याद आजाते हैं तो अपनी भाषा में लिख देते हैं !  ये काफी ज्ञानवर्धक और मनोरंजक भी हैं ! और उम्मीद करता हूँ की आपको पसंद  भी आते होंगे ! अगली बार फ़िर कुछ और किस्से बताएँगे आपको !


मग्गाबाबा का प्रणाम !

सपना सच है या झूँठ : अष्टावक्र की दृष्टी

आज बहुत दिनों बाद एक सपना देखा ! उसके बाद नींद खुल गई ! सपने में मेरे दिवंगत मित्र स्व. एम् . मुखर्जी  साहब मुझसे मुखातिब थे ! ये एक ब्यूरोक्रेट थे ! अभी कोई ३ साल पहले नही रहे ! काफी धार्मिक प्रवृति के थे ! बंगाली होने के बावजूद मछली और अन्य मानवीय दुर्गणो से काफी दूर थे !  मेरा इनसे जब परिचय हुआ था उस समय ये काफी हाई प्रोफाईल में थे ! मैं ज्यादा कुछ उनके निजी व्यक्तितव या प्रोफेशन  के बारे में आपसे यहाँ कोई चर्चा नही करूंगा ! इनके साथ बिताये समय को मैं फ़िर कभी आपके साथ शेयर करने की कोशीश करूंगा !


कुछ व्यवसायिक डील्स के सम्बन्ध में हमारा मिलना होता था ! मेरा कुछ फ़क्क्ड पना और मस्त स्वभाव देख कर ये मेरी तरफ़ आकर्षित हो गए ! और ज्यादा से ज्यादा मेरा साथ चाहने लगे ! और फ़िर कालांतर में हमारी दोस्ती गहराती चली गई ! हमारी ८० प्रतिशत चर्चा आध्यात्मिक और २० प्रतिशत  व्यापारिक ,घरेलु या राजनैतिक सामाजिक होती थी !


इन्होने इस दुनिया से कूच करने के कुछ ही समय पहले मुझे एक अन्ग्रेज़ी भाषा में  किताब भेंट की थी "उद्धव-गीता"  की  ! और लिक्खा था की मैं उसको पढ़ कर उन्हें बताऊ की इसका सार क्या है ?  किताब आई और यूँ ही रखी रह गई ! उस समय मेरे स्वास्थय के कारणों से समय ही नही मिल पाया ! खैर... ! आज सपने में इन्होने पूछा की - मुझे आज तक आपने उद्धव गीता के बारे में नही बताया ?


मेरी नींद खुल गई और अब मैं सोच रहा हूँ की सच क्या है ? सपना सच है ? या नींद खुल गई , उसके बाद मैं ये जो बैठा लिख रहा हूँ यह सच है ? 


अचानक मुझे अष्टावक्र की याद हो आई ! असल में कृष्ण की गीता में सुविधा है की आप अपनी पसंद का मतलब निकाल लो ! आपको पूरी पूरी छुट है ! इसीलिए जितने भी अनुवाद हुए गीता के , उन सबके अलग २ मतलब निकले हैं ! पर अष्टावक्र के साथ ऐसा नही है ! अष्टावक्र का ज्ञान बिल्कुल सूखा और नीरस है ! जिसे कहते हैं कडुआ सच !


असल में जनक- अष्टावक्र संवाद है ही ऐसा की इसमे शिष्य जनक ज्ञानी है, और गुरु अष्टावक्र परम ज्ञानी ! अब एक ज्ञानी शिष्य को परमज्ञानी गुरु सिवाए शुद्ध ज्ञान के और क्या देगा ? अष्टावक्र कहीं गुंजाइश ही नही छोड़ते की आप कहीं उठकर भटक जाए ! अष्टावक्र तो लट्ठ की तरह ज्ञान देते हैं ! आपकी मर्जी हो और उनकी भाषा समझ सके तो उनके पास तो विशुद्ध तत्व है , इसे दर्शन समझने की भूल मत करना ! असल में तत्व और दर्शन एक जैसा लगता है पर दोनों में दिन रात का फर्क है ! ऎसी ग़लती आपने की तो आप बात को चूक जायेंगे ! आइये अब इसी सपने से सम्बंधित  एक प्रसंग पर चलते हैं !


राजा जनक को सपना आता है की वो हाथ में भीख माँगने वाला कटोरा लेकर नगर में भीख मांग रहे हैं ! बस राजा की नींद खुल जाती है ! असल में ज्ञान जब तक परिपूर्ण नही होता तब तक ज्ञानी की हालत बड़ी ख़राब होती है ! राजा जनक यूँ तो पैदायशी ज्ञानी ही थे  ! पर कहते हैं की जब तक गुरु नही मिले तब तक ज्ञान पूर्ण नही होता ! अब राजा जनक को गुरु कहाँ से मिले ? उस समय के सारे ज्ञानी तो आ आकर राजा जनक से ज्ञान लेते थे ! और फ़िर जनक की शर्ते भी गुरु बनाने को लेकर उटपटांग थी सो उनको तो कोई उटपटांग गुरु ही ज्ञान दे सकता था ! और शायद अष्टावक्र से बड़ा उटपटांग तो कोई हुआ ही नही ! 


सुबह का जैसे तैसे राजा जनक ने इंतजार किया और सभा में अपना सपना कह सुनाया और उसका मतलब पूछा ! राजा जनक की सभा में एक से एक ज्ञानी थे सबने अपने २ हिसाब से सपने का अर्थ समझाया पर राजा संतुष्ट नही हुआ ! अब राजा कहाँ से संतुष्ट होता ? अरे भाई जब सम्राट को भीख मांगनी पड़ रही है तो कारण क्या है ! अंतत: राजा को किसी ने सलाह दी की इस सपने का अर्थ सिर्फ़ वही १२ साल का लड़का अष्टावक्र ही बता सकता है जो यहाँ आकर आपके सारे दरबारियों को चमार कहके चला गया था ! जनक उससे बहुत घबडाए हुए थे ! पता नही वो आड़ा तिरछा लड़का जिसके शरीर में आठ बल पड़े है जो सीधा चल भी नही सकता , अब आके और क्या कह जाए ? पर ज्ञान की भूख ही ऎसी होती है की सब मंजूर करना पड़ता है ! अगर सही में ज्ञान की इच्छा है तो मान अपमान एक कोने में रखना पड़ता है !


बड़े आदर पूर्वक अष्टावक्र को बुलावा गया और दरबारियों के साथ आसन  दे दिया गया ! अब राजा जनक ने सवाल पूछा की मुझे ऐसा सपना आया है की मैं नगर में कटोरा हाथ में लेके भीख मांग रहा हूँ ! इसका क्या मतलब ? मुझे जवाब चाहिए ?


अष्टावक्र बोले - ये कोई तुम्हारा तरीका नही है सवाल पूछने का ! तुम तो राजा और प्रजा वाली बात कर रहे हो ! मैं कोई तुम्हारा चापलूस दरबारी नही हूँ जो तुमको जवाब देदूं तुम्हारे मन माफिक ? अगर मुझसे जानना ही चाहते हो तो तुम यहाँ नीचे आकर बैठो और मुझे तुम्हारे राज सिंघासन पर बैठने दो ! प्रश्न पूछने वाले को अपनी औकात में और नीचे बैठ कर सवाल पूछना चाहिए और चूँकी बताने वाला बड़ा होता है तो उसे ऊँचे स्थान पर बैठना चाहिए ! बोलो अगर मेरी शर्त मंजूर हो तो अभी जवाब देता हूँ नही तो राम राम जी की ! अपन चले अपने घर ! 


अब जनक क्या करे ? सपने की घटना बड़ी कचोट रही है ! सारी प्रभुसत्ता जा रही है ! एकदम राजा से सीधे भिखारी ? और उनको अष्टावक्र से कोई सीधे सवाल जवाब  की उम्मीद भी नही थी ! क्योंकि अष्टावक्र राजा जनक की पहले भी मिट्टी ख़राब कर चुका था ! अरे जब उसने अपने पिता "ऋषि  कहोड़ " को नही बख्शा तो ये राजा जनक कहाँ लगते हैं उसको ?


राजा जनक तत्क्षण उठकर नीचे आगये और अष्टावक्र को राज सिंघासन पर बैठा दिया ! और हाथ जोड़ कर खड़े हो गए और अपने प्रश्न का जवाब माँगा ! अब अष्टावक्र ने बोलना शुरू किया !


राजन अब ये बताओ की इस समय इस राज्य का राजा कौन है ? तुम या मैं ?


अगर तुम मुझे राजा बताते हो इस समय , क्योंकि इस राज सिंघासन पर अब  मैं विराजमान हूँ ,  तो समझ लो तुम्हारा सपना झूंठा था !  और अगर तुम ये कहते हो की राजा तो अब भी तुम ही हो ये सिर्फ़ एक एडजेस्टमेंट है तो समझ लो की तुम्हारा सपना सच है तुम नही !

कवच कुंडल दान के बाद कर्ण दुर्योधन संवाद

कर्ण को कुछ भी रंज गम या शोक नही था कवच कुंडल दान में दे दिए जाने का ! उनके लिए तो एक सामान्य सी घटना थी ! पर जैसे ही दुर्योधन को मालुम पडा की कर्ण ने अपने कवच कुंडल दान में दे दिए हैं ! तो दुर्योधन को तो चक्कर ही आ गए ! उसको हस्तिनापुर का राज्य हाथ से फिसलता लग रहा था ! वो और दुशाशन गुस्से में लाल पीले होते हुए कर्ण के पास पहुँच गए !


और जाते ही अपने स्वभाव अनुसार उसने कैफियत मांगी ! कर्ण ने भी सहज उत्तर दे दिया की ब्राह्मण बन कर इन्द्र ले गया ! मैं याचक को मना कैसे कर सकता था ! इस बात पर दुर्योधन को बहुत गुस्सा आ गया ! और वो बोला - ये क्यों नही कहते की अपने सगे भाइयो की पक्षपात करते हुए तुमने दे दिए ! तुमको मालुम है मैं तुम्हारे सारे राजा शाही शोक इस लिए उठा रहा हूँ की एक दिन अर्जुन को तुम ही मारोगे ! और किसी के बूते की बात नही है ! और तुम्हारे कोई सुरखाब के पर नही लगे हैं ! तुम भी इन्ही कवच कुन्डलो की वजह से इसमे सक्षम थे ! पर हाय री किस्मत... दुर्योधन विलाप करते हुए बोला - तुमने मुझे कहीं का नही छोडा ! तुम धोखेबाज कहीं के .... ! और दुर्योधन आंय बांय.. सन्निपात के मरीज की तरह बकने लग गया !

 

कर्ण ने उसको समझाने की बहुत कोशीश की ! पर बड़ा मुश्किल था दुर्योधन को कुछ भी समझाना ! और सही है दुर्योधन ने कर्ण को बराबरी का  दर्जा यानी राजा का दर्जा दिया ! उस सूत पुत्र कर्ण को ! जिसको कोई राजाओ  की सभा में बैठने नही देता था ! और दुर्योधन ये कोई दान पुण्य में नही कर रहा था ! उसको भी कर्ण से चाहत थी ! और जब वो चाहत पूरा करने के काबिल ही नही रहा तो काहे का दोस्त ?  अब कर्ण उसको लंगडा घोडा लगने लग गया था! फ़िर भी थोड़ी देर के बाद गुस्सा थोडा कम हुआ तो उसने पूछा - क्या वो इन्द्र का बच्चा यूँ ही ले गया तुम्हारे कवच कुंडल ? या बदले में कुछ दे कर भी गया था ?


अब कर्ण को याद आया की वो कोई वज्र रूपी शक्ति दे के गया था ! तब उसने कहा - की हाँ इन्द्र एक वज्र रख के भाग गया था जल्दी में ! अब दुर्योधन की आँखों में  कुछ चमक आयी और व्यग्रता से उसने पूछा - कहाँ है वो शक्ति ? कर्ण बोला - वो उस कोने में रखी है ! उसको इतना लापरवाह देख कर दुर्योधन की इच्छा तो हुई की इसको दो चार गालियाँ दे कर बाहर करदे ! पर उसको मालुम था की बिना कवच कुंडल के भी कर्ण का कोई तोड़ दुर्योधन के पास नही था !


उस वज्र को हाथ में लेते हुए दुर्योधन ने पूछा की उस इन्द्र के बच्चे ने और क्या कहा था इस शक्ति को देते समय ? अब कर्ण ने कहा - हाँ याद आया ! देवराज ने कहा था की इसको तुम एक बार काल पर भी चला दोगे तो काल भी खत्म हो जायेगा !


अब दुर्योधन की बांछे खिल गई ! उसे युद्ध में अर्जुन की मौत दिखाई देने लग गई ! कर्ण से उसने क्षमा याचना की ! कर्ण ने कहा - मित्र क्या हुवा जो तुम तनिक आवेश में आ गए ! मैंने सारा ठाठ तो तुमसे ही पाया है ! अगर तुम एक बार गुस्से में कुछ कह गए तो पिछ्ला तुम्हारा इतना कर्ज मेरे ऊपर है की मैं कभी तुमसे कर्ज मुक्त नही हो पाउँगा ! मित्र तुम यकीन रखो ! मेरे प्राण अगर जायेंगे तो तुम्हारे लिए !

  

दुर्योधन बोला - कर्ण मेरे मित्र मुझे क्षमा करना ! मैंने ये सारे युद्ध की तैयारी ही तुम्हारे दम पर की है ! अब इस वज्र को मैं संभाल कर रखता हूँ ! तुम लापरवाही में इधर उधर पटक दोगे ! दुर्योधन शायद डर गया था की कोई फ़िर याचक बन कर इसे बेवकूफ  बना कर ना ले उडे ! अब वो संभाल कर उस शक्ति को साथ में ले कर दुशाशन के साथ  कर्ण के राज प्रासाद से बाहर निकल गया !


अब ये बात है महाभारत युद्ध के उन दिनों की जब यह युद्ध कौरवों की तरफ़ से कर्ण के  सेनापतित्व में लड़ा जाने लगा था !

 

उस समय अर्जुन ने पुरी कौरव सेना को अपने बाणों से गाजर मूली की तरह काटने का सिलसिला कायम कर रखा था ! रात को दुर्योधन , कर्ण और दुशाशन के साथ अगले दिन की युद्ध की योजना बना रहे थे ! दुर्योधन ने अर्जुन की तरफ़ से जो नुक्सान पहुँच रहा था उस पर चिंता जाहिर करते हुए कर्ण से कहा की तुम तो कल जाते ही ये इन्द्र वाली शक्ति अर्जुन पर चला देना ! फ़िर इस युद्ध में ऐसा कुछ भी नही है जो हमारे काबू से बाहर हो ! कर्ण ने भी अपनी सहमती जताई !

 

पर लगातार दो दिनों के युद्ध के बाद भी कर्ण ने वह शक्ति अर्जुन पर नही चलाई ! रात्री फ़िर से कौरवों के मंत्रणा शिविर में इसी को लेकर बहस हो रही है ! दुर्योधन बहुत नाराज है कर्ण से ! वो जानना चाहता है की क्यूँ नही शक्ति को चलाया गया अर्जुन पर !

 
क्या इस लिए की वो तुम्हारा सगा भाई है ?  अब युद्ध के इस मोड़ पर तुम मुझसे धोखा करने पर आमादा हो ? पता नही दुर्योधन क्या क्या आंय बांय बकने लग गया ! आख़िर बड़ बोला तो था ही ! कर्ण ने इसको बहुत समझाने की कोशीश की पर वो समझने को तैयार हो तब ना !


कर्ण बोला - मित्र दुर्योधन मेरा यकीन करो ! तुम जो कह रहे हो वैसी बात बिल्कुल नही है ! मुझे  पता नही क्यों ? इस शक्ति के उपयोग करने का स्मरण ही नही आता ? पता नही क्यूँ ? मैं क्यूँ भूल जाता हूँ ? अर्जुन की तरफ़ से इतनी घनघोर बाणों की बाढ़ सी आती है की सब कुछ भूल कर उससे बचने की सोचने में इस शक्ति के उपयोग की याद ही नही आती ! कल मैं इसका अवश्य उपयोग कर लूंगा !


इस पर दुर्योधन ने लगभग चिल्लाते हुए कहा - हाँ हाँ ठीक है ! कल तुम्हारा सारथी बन कर मैं चलूँगा ! और मैं अपने हाथ से उठाकर यह शक्ति तुमको दूंगा फ़िर देखता हूँ कैसे अर्जुन कल बच पाता है ! यह तय हो गया की कल कर्ण का सारथि दुर्योधन रहेगा !


उधर गुप्तचरों ने जैसे ही कृष्ण को इस बात की सुचना दी ! कृष्ण के माथे पर चिंता की लकीरे खींच गयी ! उनको लगा की कल का दिन अर्जुन का आखिरी दिन होगा ! दुर्योधन सारथि है तो वो तो भूलने से रहा ! वो तो कितने ही नुक्सान के बल पर भी आते ही वो शक्ति अर्जुन पर चलवा देगा ! अब कृष्ण ने तेजी से सोचना शुरू किया ! और तुंरत उन्होंने कल अर्जुन की जगह सेना नायक को बदलने की ठान ली !


उन्होंने इसी दिन के लिए भीम पुत्र घटोत्कच को तैयार रक्खा था ! उन्होंने उसे बुलवा भेजा ! आते ही घटोत्कच ने प्रणाम किया और खडा हो गया ! कृष्ण ने अपना प्रोयोजन बताया तो घटोत्कच की बांछे खिल उठी ! आख़िर घटोत्कच जैसे शूरवीरों का जन्म किस लिए होता है  ? पर इधर दादा भीम पुत्र मोह से पगला से उठे ! उन्होंने कहा - वासुदेव ! आप यह क्या कर रहे हैं ! अरे हम अभी जिंदा बैठे हैं ! फ़िर बच्चो को क्यों युद्ध में झोंका  जा रहा है ! अभी इनके युद्ध लड़ने के नही खेलने खाने के दिन है !  कल का युद्ध मैं लडूंगा ! घटोत्कच अभी बच्चा है ! उसे कर्ण जैसे महारथी के सामने भेजना यानी की उसके प्राणों की आहुती देना !

 

अब युधिष्टर ने कहा - भीम  ! ये पहले ही तय हो चुका है की हम इस बारे में कोई दखल नही देंगे ! जो भी रणनीति वासुदेव बनायेंगे वो हमारे लिए शुभ ही होगी ! तुम चिंता मत करो ! कोई पांडव अपने प्रिय पुत्र घटोत्कच को युद्ध में भेजने को तैयार नही था ! पर कृष्ण के आगे कोई कुछ बोल नही सकता था !


सिर्फ़ कृष्ण जानते थे की उस शक्ति से एक पांडव वीर की मृत्यु निश्चित है ! और वो पांचो पांडवो में किसी को भी खोना नही चाहते थे ! और दूसरा कोई वीर ऐसा नही था जो कर्ण और दुर्योधन को युद्ध में इतना थका दे की वो उस पर उस शक्ति का उपयोग कर ले जिससे अर्जुन की प्राण रक्षा हो सके ! कृष्ण जानते थे की घटोत्कच ही एक ऐसा समर्थ वीर है जो अपने प्राणों की बली दे  कर भी कर्ण को वो शक्ति अपने ऊपर चलाने को विवश कर सकता है ! और उन्होंने यह जुआ खेलने  की जोखिम उठा कर ही घटोत्कच को अगले दिन का सेना नायक बनाने का निश्चय किया था ! वो किसी भी तरह उस शक्ति को बेकार करना चाहते थे !


अगले दिन घटोत्कच ने ऐसा भयानक युद्ध किया की कर्ण और दुर्योधन दोनों को प्राणों के लाले पड़ते दिखाई देने लगे ! वीर घटोत्कच पूरा मायावी था ! और मायावी युद्ध कला में निपुण था  ! अदृश्य होकर  मैले गंदगी की बरसात करना, पहाड़ के पहाड़ उठा कर पटक देना, खून की बारिश करना और धूल भारी आंधियां लाकर उसने उस दिन कौरव सेना के पाँव उखाड़ दिए ! अब दुखी होकर दुर्योधन ने कर्ण से कहा की वो शक्ति इस पर चलाओ ! कर्ण ने कहा - वो शक्ति तो अर्जुन को मारने के लिए रक्खी है !


तब दुर्योधन बोला - मित्र कर्ण जल्दी करो ! अर्जुन पर तो हम शक्ति तब चलाएंगे ना जब हम जिंदा बचेंगे ! अगर तुमने तुंरत इस घटोत्कच पर इन्द्र की दी हुई शक्ति नही चलाई तो ये अब हम तुम दोनों को मार डालेगा ! शीघ्रता करो मित्र ! नही तो प्राण अब चले जायेंगे ! और घटोत्कच के प्रहारों से घबराकर कर्ण ने इन्द्र की दी हुई अजेय शक्ति वीर घटोत्कच पर चला दी ! और इस तरह कृष्ण अर्जुन को बचाने में सफल हुए ! इस तरह वीर घटोत्कच ने अपना वीर होना साबित करके इतिहास में  अपना नाम अमर कर लिया !


मग्गाबाबा का प्रणाम !


देवराज इन्द्र ने छलपूर्वक कर्ण से कवच कुंडल लिए !

पांडवो के रणनीतिकार कृष्ण को यह पका हो चुका था की कर्ण को रास्ते से हटाये बगैर अर्जुन सुरक्षित नही हो सकता ! कृष्ण ये भी जानते थे की  जिस दिन भी युद्ध में अर्जुन का सामना कर्ण से हुआ उस दिन अर्जुन का अन्तिम  सूर्योदय होगा ! उधर देवराज इन्द्र की चिंता तो अनंत गुना बढी हुई थी ! देवराज इन्द्र का  दिन का चैन और रात की नींद ख़राब हो चुकी थी ! क्या किया जाए ? क्या नही  किया जाए ? इसी उधेड़बुन में उनके दिन आज कल निकल रहे थे !  आख़िर एक पिता को अपने से अधिक अपने पुत्र की चिंता होती है ! तो देवराज की चिंता आप अच्छी तरह समझ सकते हैं !

vrtrasura भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे की जब तक कर्ण के पास पैदायशी कवच और कुंडल हैं वो युद्ध में अजेय है ! सूर्य पुत्र कर्ण को मारना तो दूर उसके बाणों के सामने टिकना भी किसी योद्धा के बस की बात नही है !  भीष्म पितामह और गुरु द्रोण भी कर्ण का सामना करने में अक्षम  थे फ़िर अर्जुन की तो बिसात ही क्या थी ? 

आख़िर सोच विचार के बाद देवराज ने एक निर्णय कर लिया और अपने सारथी को चलने की  तैयारी करने का हुक्म कर दिया !

अपने वायुगति से भी तेज गति से दौड़ने वाले घोडो से जूते रथ पर सवार होकर देवराज इन्द्र तुरत फुरत कर्ण के महल में एक ब्राह्मण का वेश बना कर पहुँच गए ! राजा कर्ण, जी हाँ दानी कर्ण ...याचको को दान दे रहे हैं ! सभी याचक अपनी उम्मीद से भी ज्यादा इच्छित  वस्तु पाकर खुश हैं और कर्ण को आशीष देते हुए जा रहे हैं ! सबसे अंत में एक ब्राह्मण आया और भिक्षा का अनुरोध किया ! दानी कर्ण ने पूछा - विप्रवर आज्ञा करिए ! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए  हैं ?

 
विप्र बने इन्द्र ने कहा - महाराज आप जैसा दानी तो इस धरा पर दूसरा कोई नही है ! तो मुझे मालुम है की इच्छित वस्तु तो आप अवश्य देंगे ही ! फ़िर भी आप संकल्प कर ले तब मैं मान्गुगा !

 
दानी कर्ण ने थोड़ी नाराजी से कहा - विप्र आप शंका क्यूँ कर कर रहे हैं ! आप आदेश करिए ! दान के नाम पर हम जान न्योछावर कर देंगे !

 
विप्र - नही नही राजन ! आपकी जान की सलामती की हम कामना करते हैं ! बस हमें इच्छित वस्तु मिल जाए ! आप तो यह प्रण कर कर लीजिये !

 
कर्ण - हम प्रण करते हैं विप्रवर ! मांगिये !


ब्राह्मण ने कहा - राजन आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दान स्वरूप चाहिए !

इस दान वीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाए अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से  खंजर की सहायता से अलग किए और ब्राह्मण को सौंप दिए ! पूरा शरीर लुहलुहान हो गया ! वाह रे दान वीर कर्ण ! अपनी मौत का सामान इस ब्राह्मण बने छलिया इन्द्र को सौपने में एक क्षण भी नही लगाया !  

इन्द्र ने तुंरत वहाँ से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार हो गया ! उसने सारथी को आज्ञा दी की जितनी जल्दी हो यहाँ से भाग चलो ! देर मत करो ! इन्द्र को यह डर सता रहा था की कहीं कर्ण का मन बदल जाए और वो आकर ये  अपने कवच कुंडल वापस ना लेले ! उसने सारथी को तेज गति से चलने के लिए फ़िर कहा ! पर ये क्या ? सारथि ने कहा - महाराज इन्द्र , रथ आगे नही जा पा रहा है ! अश्वों की पीठ चाबुक खा खा कर लाल पड़ चुकी हैं ! पर वो रथ को खींच नही पा रहे हैं! शायद रथ के पहिये अन्दर धंस चुके हैं !

धड़कते और आशंकित से इन्द्र ने रथ से नीचे उतर कर देखना चाहा ! इतनी देर में आकाशवाणी हुई ! उसने कहा - ऐ देवराज इन्द्र ! तुमने इतना बड़ा पाप किया है की उस पाप के बोझ से तेरा रथ जमीन में धंस गया है ! और अब आगे नही जा सकता ! अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तुने छल पूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है !

अब जैसा की सब जानते हैं इन्द्र जैसा निर्लज्ज और स्वार्थी दूसरा कोई भी नही हुआ आज तक ! सो इन्द्र ने आकाशवाणी से पूछा की ठीक है अब जो हो गया वो गया ! पाप पुन्य का फैसला होता रहेगा ! पर अभी तो मुझे यहाँ से निकलने का उपाय बताओ ! तब आकाशवाणी ने बताया की बदले में बराबरी की कोई वस्तू  उस कर्ण को  दे कर आवो ! उसके बाद ही तुम यहाँ से निकल पाओगे ! वरना सारी उम्र यहीं बैठ कर रोना  अब !

बुरे फंसे देवराज आज तो ! क्या करते ? मजबूरी थी ! सो वापस बेशर्म जैसे पहुँच गए महाराज कर्ण के दरबार में ! महाराज कर्ण अपने दैनंदिन कार्य में ऐसे लगे थे जैसे कुछ हुआ ही नही हो ! सिर्फ़ कानो पर और सीने पर कुछ  ताजा घाव के निशान और रक्त अवश्य दिखाई दे रहा था ! उन्होंने इन्द्र को आते देखा तो पूछ बैठे - देवराज आदेश करिए अब क्या चाहिए ? वह भी अवश्य मिलेगा !

इन्द्र ने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा - अब मैं याचक नही हूँ ! आपको कुछ देना चाहता हूँ ! आप मांग लीजिये जो कुछ भी चाहिए ! कर्ण ने कहा - देवराज , मैंने आज तक कभी किसी से कुछ नही माँगा और ना ही मुझे कुछ चाहिए ! कर्ण सिर्फ़ दान देना जानता है  लेना नही ! अब देवराज को पसीना आ गया ! क्या करे ?

इन्द्र ने कहा - महाराज कर्ण, आपको कुछ तो मांगना ही पडेगा वरना मेरा रथ यहाँ से नही जा सकेगा ! आप कुछ मांग कर मुझ पर अहसान करिए ! आप जो भी मांगेगे मैं देने को तैयार हूँ !


अब कर्ण ने नाराज होते हुए कहा - देवराज मैं सुर्यपुत्र कर्ण ऐसा कोई काम नही करता जो मुझे माँगने के लिए विवश होना पड़े ! मुझे दान देने में आनंद आता है लेने में नही ! और ना ही मैं भिखमंगा हूँ ! देवराज को गुस्सा भी आ रहा था ! उसके मुंह पर ही उसको भिखमंगा कहा जा रहा है! पर क्या कर सकते हैं वो कर्ण का !

लाचार इन्द्र ने कहा - मैं ये वज्र रूपी शक्ती तुमको इसके बदले में दे कर जा रहा हूँ ! तुम इसको जिस के ऊपर भी चला दोगे वो बच नही पायेगा  भले ही साक्षात काल के ऊपर ही चला देना ! और कर्ण कुछ कहते उसके पहले ही देवराज वो शक्ति वहाँ रख कर तुंरत भाग लिए ! कर्ण के आवाज देने पर भी वो रुके नही ! तब कर्ण ने उस शक्ति को उठा कर एक तरफ़ रख दिया और अपने काम में लग गए  ! (क्रमश:)

मग्गा बाबा का प्रणाम !

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