बापू की चुहलबाजी और टेगोर का जवाब !

gandhi & tagore बात उन दिनों की है जब महात्मा गांधी शान्ति निकेतन गए हुए थे और रविन्द्र नाथ टेगोर के मेहमान थे ! बापू और कविन्द्र रविन्द्र की खूब घुटती थी ! और दोनों ही एक दुसरे को पसंद करते थे ! बापू जितने भी दिन वहाँ रहे , उतने दिन टेगोर भी ज्यादा से ज्यादा उनके साथ रहने की कोशीश करते थे !


अक्सर सुबह शाम की सैर भी दोनों साथ साथ ही किया करते थे ! अब एक चीज आपने ध्यान दी होगी की बापू तो तन से ही फकीर नही थे वो तो मन से भी फकीर ही थे ! उनको वेशभूषा आदि किसी बात की कोई चिंता नही रहती थी ! इधर टेगोर साहब बिल्कुल उल्टे स्वभाव के ! लोग शायद ये समझते थे की बड़े जमींदार घराने से ताल्लुक रखते हैं तो ये बनने संवरने की खान दानी आदत होगी !


एक दिन शाम को सैर करने दोनों को जाना था ! गांधी जी अपने स्वभाव के मुताबिक जल्दी से अपनी लाठी उठाई और बाहर निकल लिए ! टेगोर साहब अन्दर ही रह गए ! अपने बाल वगैरह संवारने लग गए ! गांधी जी से ज्यादा इंतजार सहन नही हुआ तो भीतर आकर बोले - क्या टेगोर साहब आप भी इस बुढापे में बाल संवार रहे हो ? क्या जरुरत है इसकी ? देर हो रही है , चलिए !


अब टेगोर साहब ने गंभीर होकर उत्तर दिया - महात्मा जी जब मैं जवान था तब यूँही बिना बाल सँवारे चला जाता था पर अब बूढा हो चला हूँ तो आप ये मत समझना की सुंदर लगने के लिए बाल संवार कर सुंदर दिखना चाहता हूँ ? बात सिर्फ़ इतनी सी है की मैं कुरूप दिख कर किसी दुसरे देखने वाले के दुःख का कारण नही बनना चाहता !


सत्य है एक कवि का मन हमेशा और हर बात में सौन्दर्य खोजता है ! चाहे कविता हो या निजी शरीर ! 

7 comments:

  आशीष कुमार 'अंशु'

31 October 2008 at 19:49

बहूत पहले पढ़ी हुई कहानी को याद दिलाया. आभार

  Anonymous

31 October 2008 at 19:52

अच्छी पोस्ट है।गुरुदेव और महात्मा के बीच 'सत्य' बनाम 'सुन्दर' की बहस प्रसिद्ध है।इस पर महात्मा गांधी के प्रकाशन नवजीवन ने किताब छापी थी - "And the truth called them differently".

  Abhishek Ojha

31 October 2008 at 21:01

अच्ची पोस्ट ! शीर्षक देखकर हम तो सोचने लग गए थे की गाँधी बाबा ने क्या चुहलबाजी कर डाली होगी !

  सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी

31 October 2008 at 21:40

कहते हैं कि टैगोर ने इसे गान्धी के अहिंसा-सिद्धान्त से जोड़ दिया। कुरुप दिखकर दूसरों का मन खराब करने में उनके प्रति हिंसा अन्तर्निहित थी। :)

  राज भाटिय़ा

1 November 2008 at 01:11

बाबा जी आप की हर सीख बहुत अच्छी होती है.
राम राम जी की

  जितेन्द़ भगत

1 November 2008 at 15:30

मजेदार प्रसंग।

  seema gupta

1 November 2008 at 15:55

बात सिर्फ़ इतनी सी है की मैं कुरूप दिख कर किसी दुसरे देखने वाले के दुःख का कारण नही बनना चाहता
" read first time, what a deep meaning these words had, common man cant even think about it.... really so great thought"

Regards

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