<><><><><></></></></></> यह तो ५/७ पागल दीवानों की महफ़िल है ! जहाँ बैठकर ये दीवाने सनम की बातें करते हैं ! और सनम बातो से नही मिला करते ! वो तो सनम की नजरे इनायत कभी किसी जन्म में हो जाए तो उसकी मर्जी ! पर हम सनम की बातें इस डर से करना क्यूँ छोड दे ? अरे जब हमको सनम की बातें करने में आनंद आता है तो सनम को भी तो हम से प्रेम होगा की नही ? वो भी तो हमसे मिलने को तरस रहा होगा ? मैं तो कहता हूँ सनम को की हमें तो तू तेरे सनमखाने की बातें ही करने दे ! जब तेरी मर्जी हो तब हमारे पास आजाना ! जल्दी नही है हमें ! पर हम तेरी बातें करना नही छोडेंगे ! |
राजा जनक का जैसे ही बुलावा आया ! सेवक ने आकर संदेश दिया की राजा आपको स्नान करवाने नदी पर ले लेजाना चाहते हैं !अब स्नान करवाने तो क्या ? बल्कि उस संन्यासी की क्लास लगाने ले जा रहे थे ! पर राज पुरूष हैं तो थोड़े शालीन शब्द प्रयोग करते हैं ! राजमहल नदी तट पर ही था ! ऋषी-पुत्र अपनी लंगोटी उठाकर चल दिया ! राजा और संन्यासी दोनों नदी में स्नान कर रहे हैं ! संन्यासी सोच रहा है ये योगी तो हो ही नही सकता ! ये तो महाभोगी है ! देखो यहाँ कैसे दासियाँ इसके वस्त्र लिए खडी हैं ? एक तरह संन्यासी का मन बड़ा प्रफुल्लित है की इस ज्ञानी राजा के सामने स्वयं वो कितना बड़ा त्यागी है ! और वो ख़ुद की उपलब्धियां जनक की तुलना में बहुत बड़ी मान रहा था !
इतनी देर में संन्यासी देखता है की राजमहल में आग लग गई है ! अब पता नही सच में लग गई या लगवा दी गई ? जनक जैसे पागल का क्या भरोसा ? पागल और ज्ञानी में ये ही तो एक साम्यता रहती है ! लगवा भी दे आग ! संन्यासी को समझाने के लिए ! पर कहानी तो यही कहती है की आग लग गई ! चारो तरफ़ लोग भागते दिखाई दे रहे हैं ! वो कुछ कहने के लिए राजा की तरफ़ नजर उठा कर देखता है ! उसको आश्चर्य होता है की राजा जलते महल को देख रहा है ! और दासिया उसकी पीठ पर उबटन लगा रही हैं ! आश्चर्य घोर आश्चर्य... ! संन्यासी सोचता है , कैसा बेवकूफ है ये राजा ? इसका महल जल रहा है , और इसको चिंता ही नही है !
संन्यासी इतनी देर में देखता है की आग फैलती २ नदी तट तक बढ़ रही है और अब तो जहाँ इस संन्यासी की लंगोटी रक्खी थी, वहाँ तक आग फ़ैल चुकी है ! संन्यासी ने सोचा की ये राजा तो महा ऐयाश दीखता है और आलसी भी ! अरे महल जल रहा है और ये स्नान में मग्न है ? तो संन्यासी जल्दी से तैर कर तट पर आया और अपनी लंगोटी उठा कर दौड़ पडा ! सही में लंगोटी ही जल गई तो फ़िर दिगंबर रह जायेगा ! आख़िर कितनी कीमती चीज है ? सो भाग लिया विपरीत दिशा में, अपनी लंगोटी उठाकर !
क्या तो संन्यासी ? और क्या उसकी लंगोटी ? कितना मूल्य होगा उसकी लंगोटी का ? राजा का राजमहल जल रहा है ! उसी राज महल में स्वाभाविक है उसकी रानियाँ और राज कुमार / कुमारियाँ भी होंगे ! पर वो निश्चिंत है ! और एक ये संन्यासी यानी जिसने सब कुछ त्याग दिया है ! उसके लिए इतनी कीमती है लंगोटी ? जनक सब कुछ छोड़ कर , स्नान का आनंद ले रहे हैं और संन्यासी का मन बसा है लंगोटी में ! अरे वाह रे त्यागी महाराज ! धन्य है आपका त्याग और सन्यास ! इतना होने पर भी उनको जनक भोगी और ढोंगी दिखाई पड़ रहे हैं ! जनक ने सोचा होगा - ये भी किसी कलयुग का संन्यासी होगा ! इतने से इसको अक्ल नही आयेगी ! इसको कुछ और एक्स्ट्रा डोज देना पडेगा ! और बिना ज्ञान कराये छोड़ दे तो फ़िर विदेह जनक कैसे ! ये ही तो उनकी विशेषता है ! बस २४ घंटे में तो वो वज्र मुर्ख को ज्ञानी बनादे !
राजा जनक ने देखा की ये तो गया बिना ज्ञान लिए ही , तो सेवक दौडाए उसके पीछे ! कहा - उस संन्यासी महाराज को लाओ वापस ! अभी उसकी कक्षा पुरी भी नही हुई और वो तो भाग लिया ! सेवक दौड़ पड़े उस संन्यासी के पीछे ! और थोड़ी देर में ही उसको ले कर वापस आगये !
राजा जनक ने पूछा - क्या हुवा ऋषिवर ? आप भाग क्यूँ लिए थे ? संन्यासी ने सोचा अजीब पागल है ! अब इसका क्या करे ? राजा है , पकड़वा कर बुलवा लिया , इच्छा हो जाए तो जेल में भी डाल दे ! उसने डरते २ अपनी दुविधा बताई की आप कैसे ज्ञानी हो ? आपको इतना भी नही पता की राजमहल जल रहा है और आप दासियों में मग्न हैं ? आप तो भोगी हो !
राजा बोला - ठीक है ऋषि पुत्र ! आप अब महल चले ! दोपहर होने आई ! मुझे मालुम है आपका मन यहाँ नही लग रहा है ! आप भोजन कर ले और फ़िर थोडा विश्राम करके आप जा सकते हैं ! संन्यासी के तो जान में जान आई ! चलो अब थोड़ी देर में तो इस पागल से पीछा छुट जायेगा ! महल में शानदार दावत का प्रबंध था ! ५६ भोग .. सुंदर दासियाँ परोसने के लिए ! और भी सुंदर २ दासियाँ पंखा झल रही हैं ! संन्यासी को नहाने के बाद की भाग दौड़ में कस कर भूख लगी हुई थी ! और फ़िर इसके बाद जाने की आज्ञा मिल चुकी थी सो संन्यासी को भोजन की सुगंध से और कस कर भूख लग आई ! और संन्यासी ने मन बना लिया था की आज डट कर ५६ भोग का आनंद लेगा ! पता नही अब भविष्य में कब राजसी भोजन का अवसर मिले !
राजा जनक और संन्यासी खाने के लिए आसन पर बैठे ! संन्यासी ने देखा ठीक उसके सर के ऊपर एक नंगी तलवार बिल्कुल कच्चे धागे से लटकी हुई है ! ज़रा सा हवा का झोंका भी उसको गिरा सकता था संन्यासी के सर पर ! उसकी तो रूह काँप गई ! सोचा , ये तो बड़ा पागल है राजा ! इसको इतनी भी अक्ल नही है की इस हालत में इंसान कैसे खाना खायेगा ! पर क्या बोले ? राजा का डर भी था ! उधर तरह २ के व्यंजन परोसने का दासियाँ आग्रह करती रही ! जैसे तैसे थोडा बहुत अन्दर उतारा और कुल कोशीश यही की जल्दी से जल्दी भोजन खत्म कर के इस जगह से उठ जाय ! जिससे इस तलवार का खतरा टले !
उधर राजा इत्मीनान से ५६ भोग का आनंद ले कर भोजन उदरस्त करने में लगे हैं ! संन्यासी हाथ धोकर उठने की फिराक में है ! पर शिष्टाचार वश राजा के पहले उठ नही सकता ! सर पर नंगी तलवार लटकी है ! बड़ी दुविधा ! सारा ध्यान तलवार में लगा है ! खाना तो क्या खाता ? जैसे ही राजा ने हस्त-प्रक्षालन शुरू किया की इन्होने तो तुंरत वो आसन छोडा ! हाथ तो धोये बैठे ही थे ! उस आसन से हटते ही जान में जान आई ! जान बची तो लाखो पाये ! अब नही आयेगा ये किसी राजा के राजमहल में ! कसम खाली आज !
दासियों ने पान बीड़े पेश किए ! और जनक ने पूछा - कहिये ऋषिवर , भोजन कैसा लगा ! आपके लिए आज बिल्कुल स्पेसियल आर्डर देकर बनाया गया था ! और हमारे राजमहल के प्रधान रसोइए ने अपने हाथों से बनाया था ! मुझे तो बड़ा स्वादिष्ट लगा ! उम्मीद करता हूँ आपको भी स्वाद तो पसंद आया होगा ? राजा का इतना पूछना था की संन्यासी फट पडा ! उसने सोचा की अगर तलवार गिर गई होती तब भी मर ही चुके होते ! अब बोलने से भी क्यूँ चूकें ? ऐसी तैसी इस राजा की ! होगा राजा ! क्या इस तरह घर में आए के प्राण लेगा क्या ?
वो संन्यासी बोला - राजन ! आप अजीब मसखरी करते हो ! व्यंजन तो बहुत बढिया २ बनवाये , परोसवा भी दिए ! पर स्वाद कहाँ लेने दिया ? अरे अगर सर पर तलवार और वो भी नंगी तलवार लटकी हो तो कोई स्वाद ले सकता है क्या ? सच बात तो यह है की मैं तो आपके डर से खाने का नाटक कर रहा था ! सारा ध्यान तो मेरा उस नंगी तलवार पर लगा था ! ५६ भोग का मजा क्या ख़ाक लेता ?
अब विदेह जनक बोले - ऋषिवर , आपको जिस बात को समझने के लिए आपके पिताजी ने भेजा था वो मैंने समझा दी है ! और आशा करता हूँ की आप जो मेरे को भोगी समझ रहे थे वो भ्रान्ति भी आपकी दूर हो गई होगी ! ऋषिपुत्र राजा जनक के चहरे की तरफ़ टक टकी लगाए देखता रहा और राजा जनक बोलते रहे !
जिस तरह तुम्हारा सारा ध्यान ५६ भोग में नही होकर भी तलवार में था ! जबकि तुम प्रत्यक्षत: ५६ भोग भोगते हुए दिखाई दे रहे थे ! और तुमने उनको खा भी लिया और तुम्हे स्वाद भी नही मालुम ! उसी तरह मैं ये सारा सुख वैभव भोगता हूँ ! पर मुझे वाकई इन भोगो का स्वाद नही मालुम ! भोगता दिखाई जरुर देता हूँ पर मेरा सारा ध्यान २४ घंटे उस तलवार रूपी ब्रह्म में ही लगा रहता है ! और ये भोग मैं चाहूँ तो भी छोड़ कर नही जा सकता , क्योंकि मेरे पिछले जन्मों के पाप पुण्य का हिसाब-किताब भी यहीं होना है ! पिछले जन्मों के शेष बचे हुए पुण्य की वजह से मैं राजा हूँ ! नए शिरे से कोई पाप पुण्य नही हों , इस लिए मैं मेरे अंत:करण में उसी ब्रह्म को स्थित देखता हूँ ! ये कर्म मुझे छू भी नही जाते ! और संन्यासी पूर्ण संतुष्ट होकर विदेह जनक को प्रणाम करके चला गया !
मग्गाबाबा का प्रणाम !