बापू की चुहलबाजी और टेगोर का जवाब !

gandhi & tagore बात उन दिनों की है जब महात्मा गांधी शान्ति निकेतन गए हुए थे और रविन्द्र नाथ टेगोर के मेहमान थे ! बापू और कविन्द्र रविन्द्र की खूब घुटती थी ! और दोनों ही एक दुसरे को पसंद करते थे ! बापू जितने भी दिन वहाँ रहे , उतने दिन टेगोर भी ज्यादा से ज्यादा उनके साथ रहने की कोशीश करते थे !


अक्सर सुबह शाम की सैर भी दोनों साथ साथ ही किया करते थे ! अब एक चीज आपने ध्यान दी होगी की बापू तो तन से ही फकीर नही थे वो तो मन से भी फकीर ही थे ! उनको वेशभूषा आदि किसी बात की कोई चिंता नही रहती थी ! इधर टेगोर साहब बिल्कुल उल्टे स्वभाव के ! लोग शायद ये समझते थे की बड़े जमींदार घराने से ताल्लुक रखते हैं तो ये बनने संवरने की खान दानी आदत होगी !


एक दिन शाम को सैर करने दोनों को जाना था ! गांधी जी अपने स्वभाव के मुताबिक जल्दी से अपनी लाठी उठाई और बाहर निकल लिए ! टेगोर साहब अन्दर ही रह गए ! अपने बाल वगैरह संवारने लग गए ! गांधी जी से ज्यादा इंतजार सहन नही हुआ तो भीतर आकर बोले - क्या टेगोर साहब आप भी इस बुढापे में बाल संवार रहे हो ? क्या जरुरत है इसकी ? देर हो रही है , चलिए !


अब टेगोर साहब ने गंभीर होकर उत्तर दिया - महात्मा जी जब मैं जवान था तब यूँही बिना बाल सँवारे चला जाता था पर अब बूढा हो चला हूँ तो आप ये मत समझना की सुंदर लगने के लिए बाल संवार कर सुंदर दिखना चाहता हूँ ? बात सिर्फ़ इतनी सी है की मैं कुरूप दिख कर किसी दुसरे देखने वाले के दुःख का कारण नही बनना चाहता !


सत्य है एक कवि का मन हमेशा और हर बात में सौन्दर्य खोजता है ! चाहे कविता हो या निजी शरीर ! 

क्या ईश्वर चिंतन करते समय सिगरेट पी जा सकती है ?

अगर देखा जाए तो प्रश्न पूछना एक कला है और उसका इच्छित उत्तर पाना भी एक बड़ी उपलब्धि होती है !

एक यहूदी फकीर  जोसुका लिएबमेन हुए हैं ! इन फकीर साहब के कई शिष्य थे ! एक दिन इनके दो शिष्य इनके  पास आए और प्रणाम करके बैठ गए ! 

थोड़ी देर बाद एक शिष्य ने पूछा - गुरुजी , क्या मैं ईश्वर का ध्यान करते समय सिगरेट पी सकता हूँ ?

फकीर ने जवाब दिया - बिल्कुल नही ! ऐसा नही करना !

अब थोड़ी देर बाद दुसरे शिष्य ने पूछा - क्या मैं सिगरेट पीते समय ईश्वर का ध्यान कर सकता हूँ  ? 

फकीर बोला - क्यों नही ? ईश्वर का ध्यान तो किसी भी अवस्था में किया जा सकता है ! 

चार सवाल और उनके जवाब

राजा भोज का दरबार लगा हुआ था ! जैसा की आप जानते हैं उनके दरबार में एक से बढ़ कर एक कवि और विद्वान् थे ! अचानक राजा भोज ने विद्वान् दरबारियों के सामने चार सवाल रक्खे और उनका जवाब माँगा ! राजा भोज ने कहा - सबसे विश्वसनीय दोस्त कौन है ?, सर्वश्रेष्ठ प्रकाश कौनसा है ?, दूध किसका अच्छा है ? और सबसे अच्छा राजा कौन है ?

एक कवि ने जवाब दिया -


भाई सरीखो मित्र नही, तेज ना सूर्य समान
दूध गाय सम को नही, राजा ना भोज समान

अर्थात : भाई सरीखा भरोसेमंद कोई दोस्त नही , प्रकाश सूर्य से बढ़कर कोई नही है, दूध गाय का अति उत्तम है और राजाओं में सर्वश्रेष्ठ राजा तो आप ही हैं ! यह जवाब सुनकर सब उपस्थित लोगो ने उस कवि की बड़ी प्रसंशा की !

इतनी देर में एक अन्य वृद्ध कवि उठ कर खड़े हुए और उन्होंने कहा - मैं इस उत्तर से संतुष्ट नही हूँ ! तब वहाँ उपस्थित अन्य लोगो ने कहा - अगर आप इतने सुंदर उत्तर से संतुष्ट नही हैं तो आप अपना उत्तर बताइये जो इससे बढिया और उपयुक्त हो !

इस पर उन वृद्ध कवि ने अपनी बात यो कही :

भुजा सरीखो मित्र  नही, तेज न नेत्र समान
दूध मात सम को नही, भूप न इन्द्र समान

अर्थात : सबसे विश्वस्त साथी अपना बाहुबल है , क्योंकि भाई तो कभी धोखा भी दे सकता है ! सर्वश्रेष्ठ प्रकाश तो आँख की ज्योति का है क्योंकि सूर्य अगर सौ  गुना ज्यादा भी प्रकाश करे पर आँख में ज्योति ही नही हो तो किस काम का ? और दूध तो माँ जैसा गुणकारी दूसरा किसी का हो ही नही सकता ! और राजाओं में तो सर्वश्रेष्ठ राजा इन्द्र ही है जो सारी दुनिया में जल के रूप  में वृष्टि करके जीवन को पल्लवित करते हैं !

श्री कृष्ण ने छलपूर्वक बर्बरीक से शीश का दान लिया !

श्री कृष्ण  समस्या पर गंभीर मंथन करके उस निर्णय पर पहुँच गए जो आखिरी निर्णय होता है ! शायद कोई भी उस समय कृष्ण की जगह होता तो इस के सिवाय कोई चारा नही होता ! बर्बरीक,  वो योद्धा अपने शिविर में रात्री  में बैठा है ! अचानक दस्तक हुई ! उसने द्वार खोला ! सामने एक ब्राह्मण खडा था ! उसने ब्राह्मण का स्वागत करके आसन दिया ! और आने का कारण पूछा ! ब्राह्मण ने कहा - मुझे आपसे दान पाने  की इच्छा है वीरश्रेष्ठ !
बर्बरीक ने कहा - मांगो ब्राह्मण ! क्या चाहिए ?


  ब्राह्मण बोला - आपको वचनबद्ध होना पडेगा ! तभी मांग सकता हूँ !बर्बरीक ने एक क्षण सोचा और बिना समय गंवाए  कहा - ब्राहमण देवता , आप आदेश करिए ! मैं आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण करूंगा ! ब्राह्मण रूपी  कृष्ण ने कहा - हे वीर श्रेष्ठ मुझे आपका शीश चाहिए !
वो योद्धा जैसे आसमान से गिरा हो ! उसने बड़ी मुश्किल से अपने आप को सम्भाला और तुंरत उसे अपनी भूल समझ आ गई की ये ब्राह्मण नही बल्कि कृष्ण है ! वो पहचान गया था !
योद्धा बर्बरीक बोला - श्री कृष्ण मैं आपको जान गया था ! जब आपने सर का दान माँगा ! अगर कोई ब्राह्मण होता तो कुछ गायें या कुछ गाँव दान में मांगता ! एक ब्राह्मण को मेरे सर से क्या लेना ? लेकिन आपसे वचन बद्ध हूँ आपकी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा ! परन्तु मेरी ये प्रबलतम इच्छा थी की काश महाभारत का युद्ध देख पाता ! और उसने अपना सर काटने की तैयारी करना शुरू करदी !

तब भगवान् श्री कृष्ण ने कहा - हे वीर श्रेष्ठ आपकी ये इच्छा मैं पूर्ण करूंगा ! मैं आपके शीश को इस पीपल की सबसे उंची शाखा पर रख देता हूँ ! और आपको वो दिव्य दृष्टी प्राप्त है जिससे आप ये युद्ध पूरा आराम से देख पायेंगे ! उस योद्धा बर्बरीक ने अपना शीश काटकर श्री कृष्ण को दे दिया ! और श्री कृष्ण ने उसको वृक्ष की चोटी पर रखवा दिया ! सबने आराम की साँस ली ! चलो एक आफत से छुटकारा मिला ! नही तो कैसा महाभारत होता ? ये आपने अंदाज लगा ही लिया होगा ? 

इस घटना के बाद महाभारत का युद्ध खत्म हुवा ! यों तो खुशी मनाने लायक किसी के पास कुछ बचा नही था ! अन्दर से सब जानते ही थे ! किसी का कुछ भी साबुत नही बचा था ! जो भी बचे थे सबके सब आधे अधूरे ही थे !किसी का बाप नही तो किसी का बेटा नही ! पीछे सिर्फ़ युद्ध की विभीषिका ही बची थी ! इसके बावजूद भी पांडव खेमे में जश्न का माहौल था ! सब अपनी २ डींग हांकने में मस्त थे ! धर्मराज महाराज युद्धिष्ठर को ये गुमान था की ये युद्ध उनके भाले की नोंक पर जीता गया ! शायद वो सोचते थे की अगर उनका भाला नही होता तो ये युद्ध नही जीता जा सकता था !

अर्जुन को ये गुमान था की बिना गांडीव के जीतने की कल्पना तो दूर इस युद्ध में टिक ही नही सकते थे ! वो भी लम्बी २ छोड़ने में लगे हुए थे ! और भीम दादा का तो क्या कहना ? उन्होंने और भी लम्बी छोड़ते हुए कहा की अगर मेरी गदा नही होती तो क्या दुर्योधन को मारा जा सकता था ! और दुर्योधन के जीते जी क्या विजयी होना सम्भव था ? सारे ही उपस्थित लोग अपनी २ आत्मसंतुष्टी में मग्न थे !

अब बात श्री कृष्ण की सहन शक्ति के बाहर हो गयी ! तो उन्होंने कहा - भाई लोगो ! आप आपस में क्यूँ ये सब झगडा खडा कर रहे हो ? मुझे मालुम था की जो भी जीतेगा वो इसी तरह की बातें करेगा ! अब मुझे याद आया की वो जो महान धनुर्धर बर्बरीक था ! उसने ये सारा युद्ध देखा है ! और तुम जाकर उससे ही क्यूँ नही पूछ लेते की कौन सा योद्धा है जिसने ये युद्ध जिताया है ? सबको बात जम गयी और सब उस वृक्ष के नीचे इक्कठ्ठा हो गए ! अब श्री कृष्ण ने पूछा -

हे परम श्रेष्ठ धनुर्धर ! आपने यह पूरा युद्ध निष्पक्ष हो कर देखा है ! और मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँ की इस धर्म युद्ध को किसने जीता ? कृपा पूर्वक आप अपना निष्पक्ष मत देने की कृपा करे ! क्यूंकि यहाँ सभी वीरों में कुछ भ्रांतियां उत्पन्न हो गई हैं !

अब बर्बरीक ने बोलना शुरू किया - हे श्री कृष्ण आप कौन से धर्मयुद्ध की बात कर रहे हैं ? कहाँ हुवा था धर्म युद्ध ? अब उस वीर बर्बरीक ने धर्मराज युद्धिष्ठर की तरफ़ इशारा करके पूछा - क्या जब इन धर्मराज ने गुरु द्रोणाचार्य की ह्त्या झूँठ बोल कर करवायी ? हाँ मैं जानबूझकर ह्त्या शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ ! उनको युद्ध में नही मारा गया बल्कि उस ब्राह्मण  की षडयंत्र पूर्वक ह्त्या की गई थी ! तो क्या आप समझ रहे हैं वो धर्मयुद्ध था ? और अब धर्मराज और अर्जुन जमीन की तरफ़ देख रहे थे !

और जब दुर्योधन को सूर्यास्त के बाद भी आपने उकसा कर तालाब से बाहर आने को बाध्य किया ? और हद तो तब हो गई जब गदा युद्ध में वर्जित दुर्योधन की जंघा पर प्रहार आपने  ख़ुद करवाया भीम द्वारा ? ये क्या धर्म युद्ध था ? इस तरह उस वीर ने एक एक करके सारे वीरो की पोल पट्टी खोल कर रख दी ! उस निडर योद्धा ने तो कृष्ण को भी नही बख्शा !

अब अंत में उसने कहा - हे श्री कृष्ण अब आपको और सच्ची बात बताऊँ ? मैंने जो इस युद्ध में देखा वो यह था की इस पुरे युद्ध में ये  धर्मराज, अर्जुन , भीम, नकुल और सहदेव तो क्या ? कोई भी योद्धा नही था ! यहाँ तो सिर्फ़ आपका यानी कृष्ण का चक्र चल रहा था ! और योद्धा जो आपस में लड़ते दिखाई दे रहे थे परन्तु असल में वो आपके चक्र से  कट कट गिर रहे थे और उनके गिरते हुए सरो के पीछे मैंने द्रौपदी को अपने खुले बालों से घूमते हुए देखा ! और वो  अपने खप्पर में  रक्त भर भर  कर  उस रक्त का पान कर  रही थी ! बस इसके सिवाय और कुछ भी मैंने नही देखा ! बल्कि और कुछ वहाँ था ही नही ! अब तो वहाँ सनाट्टा छा गया ! और द्रौपदी इस तरह देख रही थी जैसे उसका जन्म लेने का हेतु पूरा हो गया हो !

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अब श्री कृष्ण ने कहा - हे वीर शिरोमणी बर्बरीक ! आपने जिस निष्ठा और साहस से सत्य बोला है ! उससे मैं बहुत प्रशन्न हूँ ! मेरे द्वारा इस लक्ष्य प्राप्ति में आपका भी अनायास ही बड़ा योगदान है ! आप अगर अपनी प्रतिज्ञा से मुकर गए होते तो ये लक्ष्य प्राप्त करना बड़ा मुश्किल था ! मैं आपको खुश होकर ये वरदान देता हूँ की आप कलयुग में मेरे श्याम नाम से पूजे जायेंगे ! और उस समय आप लोगो का कल्याण करेंगे ! और उनके दुःख क्लेश दूर करेंगे !  ऐसा कह कर श्री कृष्ण ने उस शीश को खाटू नामक ग्राम में स्थापित कर दिया ! ये जगह आज लाखो भक्तो और श्रद्धालुओं की आस्था का स्थान है ! यहाँ आज हर माह की सुदी १२ को मेला लगता है ! और फाल्गुन शुदी १२ को तो यहाँ लाखो लाखो अनुयायी सारी दुनिया से आते हैं ! आस्था और भक्ति का वो मंजर देखने लायक होता है जब लोग कोलकाता, मुंबई, मद्रास जैसी सुदूर जगहों से पैदल ही यात्रा कर के यहाँ पहुंचते हैं ! यह जगह आज खाटू श्यामजी ( जिला-सीकर, राजस्थान ) के नाम से प्रसिद्द है ! जयपुर के अत्यधिक नजदीक है ! जहाँ से रींगस होते हुए आप आसानी से वहाँ पहुँच सकते हैं !

मग्गाबाबा का प्रणाम !

बर्बरीक ने दिखाया श्री कृष्ण को चमत्कार

श्री कृष्ण वहाँ से सीधे निकल कर उस जगह पहुँच गए जहाँ वो योद्धा बर्बरीक था ! दिखने में साधारण , एक धनुष और एक बाण ! बस और कुछ नही ! श्रीकृष्ण भी अचरज में थे ! उनको भी जासूस की बातो पर यकीन नही हुआ ! पर वो श्रीकृष्ण ही क्या ? जो बिना पुरी तसल्ली हुए किसी बात को छोड़ दे ! इसीलिए तो वो पूर्णावतार कहलाये ! हर काम को अंजाम तक पहुंचाना ! धीरे २ चलते हुए वो योद्धा तक पहुँच गए ! दोनों ने एक दुसरे को आँखों ही आँखों में  तोला ! श्रीकृष्ण ने महसूस  की कुछ तो है इसमे !उस योद्धा की आँखों में एक अजीब सी चमक दिखी !    

श्री कृष्ण की आँखों में एक चमक आगई ! और उन्होंने उस योद्धा को अपनी तरफ़ से लड़ने का निमंत्रण दिया ! वो योद्धा बोला - नही ये नही हो सकता ! मैं तो अपने प्राण पर अडिग हूँ ! जब श्रीकृष्ण ने देख लिया की ये मानने वाला नही है तो उन्होंने अपने स्वभाव के अनुसार दूसरा पैंतरा आजमाया ! उसका आत्मविश्वास तोड़ने की दृष्टी से बोले - यार तेरे पास ऐसा क्या है ? जो मैं तेरी और लल्लो चप्पो करूँ ? तेरे पास एक बाण है उससे तू क्या कर लेगा ?

भगवान कृष्ण को लग रहा था की ये ग्वालिये जैसा लग रहा है ! और थोडा इसकी हिम्मत कम हो जायेगी तो ये मान जायेगा ! पर वो कोई साधारण योद्धा नही था ! उसने कहा की बताऊँ ? मेरा एक बाण क्या कर सकता है ? कृष्ण बोले - दादा इतनी देर से और रामायण क्या हो रही है ! आप तो दिखाओ ! क्या दिखाना चाहते हो ? वो देखने ही तो आए हैं ! अब उस धनुर्धर ने अपना बाण धनुष पर चढाया और कुछ मन्त्र बोलते हुए ऊपर पीपल के वृक्ष की तरफ़ छोड़ दिया ! वो बाण उड़ चला और उस बाण ने पीपल के प्रत्येक पत्ते पर निशान लगाया और लौट कर इस धनुर्धर के तरकश में समा गया ! इसी के साथ २ एक पता पीपल के पेड़ से टूट कर गिर गया और उस पर कृष्ण ने अपना पाँव रख लिया ! अब फ़िर उस धनुर्धारी ने उसी बाण को हाथ में लिया और फ़िर कुछ मन्त्र बोलते हुए उसको छोड़ दिया ! बाण धनुष से निकल पीपल के प्रत्येक पत्ते को छेदता हुवा आकर श्री कृष्ण के पाँव में घुसने लगा और तुंरत कृष्ण ने अपना पाँव पीछे खींच लिया और वो बाण उनके पाँव के नीचे के पत्ते को बेधता हुवा वापस उस धनुर्धर के तरकश में जा समाया !  ये मंजर देख कर श्रीकृष्ण की ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे रह गई ! आज जीवन में पहली बार ऐसा धनुर्धर देखा था ! उनकी इच्छा तो हुई की इस धनुर्धर के चरण स्पर्श कर ले ! पर युद्ध और स्वार्थ की मजबूरी कभी आदमी को सत्य के साथ नही रहने देती ! कहने को तो धर्म युद्ध था पर सब तरह का अधर्म जो भी युद्ध में हो सकता था वो सब उस धर्म युद्ध में भी हुवा ! और युद्धों में हर काल में ऐसा होता आया है !

अब श्री कृष्ण सोच से बाहर निकले और पूछा - हे धनुर्धर ! आपकी अब क्या इच्छा है ? आप किसकी तरफ़ से युद्ध करोगे ? योद्धा बोला - आप भी श्रीमान अजीब आदमी हो ! जब से  एक ही बात पूछे जारहे हैं ? और मैं जवाब दिए जा रहा हूँ की मैं जो भी हारेगा उसकी तरफ़ से लडूंगा ! अब कृष्ण बोले - मान लीजिये आज के युद्ध में पांडव कमजोर पड़े या हारते दिखे तब ? वो बोला - मैं पांडवो की तरफ़ से लडूंगा ! अब कृष्ण बोले -  और फ़िर आपका बाण कौरवों का सफाया कर देगा तब कौरव हारने लगेंगे ! तब क्या करिएगा ? बर्बरीक नाराज होते हुए बोला - कह तो चुका हूँ की हारने वाले की तरफ़ से लडूंगा ! उस स्थिति में मैं कौरवों की तरफ़ से लडूंगा और पांडवों का सफाया कर दूंगा ! अपना प्रण ही ऐसा है ! मैं किसी को हारते हुए नही देख सकता !

अब श्री कृष्ण को काटो तो खून नही ! उन्होंने कभी स्वपन्न में भी इस बात की कल्पना नही की थी ! इस योद्धा ने आकर तो सारे गणित बिगाड़ दिए ! अभी तक जीत के जो समीकरण उन्होंने बैठाए थे वो सारे ध्वस्त दिखाई देने लगे ! अब क्या किया जाए ! ये तो जिसकी तरफ़ से भी लडेगा तब सामने वाला तो हारेगा ही उस स्थिति में ये वापस हारने वाले की तरफ़ से लडेगा ! इस तरह से तो ये दोनों तरफ़ के सब योद्धाओं को मार डालेगा  ! कुछ भी नही बचेगा ! क्या फायदा युद्ध का ! जब कोई विजयी होने के लिए ही नही बचेगा ! उन्होंने उसको समझाने के लिए कहा - धनुर्धर मैं आपको प्रणाम और नमन करता हूँ ! मेरी जानकारी में आपसे बढ़ कर और कोई धनुर्धर आज इस भूतल पर नही है जो आपका मुकाबला कर सके ! और आप जो कह रहे हैं उस हिसाब से इस युद्ध में सिर्फ़ और सिर्फ़ मौत है ! कोई भी नही बचेगा ! अत: आप अगर इस युद्ध में भाग नही ले तो ये मानवता के लिए अच्छा होगा !

अब योद्धा थोडा नाराजी दिखाता हुवा बोला - मुझे इससे कोई फर्क नही पङता की इसका परिणाम क्या होगा ? और आपने इस युद्ध की नींव रखते समय हम जैसे योद्धाओं के बारे में क्यूँ नही सोचा ? आपको सिर्फ़ कर्ण और अर्जुन दो ही धनुर्धर दिखे थे क्या ? अब मैं मेरी प्रतिज्ञा से नही हटूंगा ! चाहे जो हो जाए मैं अपनी प्रतिज्ञा पर कायम हूँ ! और रहूंगा ! और आप मुझे युद्ध करने से भी नही रोक सकते !

और श्री कृष्ण ने भी सोचा की ये सही कह रहा है ! उस समय के नियमो के हिसाब से व्यक्ति अपनी पसंद के खेमे में शामिल होकर युद्ध लड़ सकता था ! श्री कृष्ण के सामने इस युद्ध के जब आसार दिखाई देने लगे थे तब से आज तक इससे पेचीदा समस्या नही आई थी ! इस धनुर्धर ने तो सारे समीकरण ही उलटा दिए ! बड़ा मुश्किल है ! श्री कृष्ण जैसा व्यक्ति और चिंतित ? समस्या शायद बड़ी गंभीर है ! (क्रमश:)

मग्गाबाबा का प्रणाम !

बर्बरीक : महाभारत युद्ध के निर्णायक !

महाभारत युद्ध के दिनों में इस युद्ध की उतनी ही गहन चर्चा और उत्सुकता थी जैसी इस सदी में हुए हाई-टेक युद्ध , मित्र राष्ट्र बनाम ईराक़ युद्ध की ! जैसे इस युद्ध में लाबिंग की गई थी की कौन कौन अमेरिका का साथ देगा और कौन नही ! ये अलग बात है की जो भी आया वो अमेरिका के साथ ही आया या फ़िर तटस्थ रह गया ! ईराक़ के साथ खुल कर कोई नही आया ! महाभारत युद्ध में भी बड़े पैमाने पर लाबिंग हुई थी और इसी लाबिंग का प्रमाण है की श्रीकृष्ण स्वयं तो पांडवो के साथ थे परन्तु उनकी सेना कौरवों के पक्ष में खडी थी ! कहने का मतलब ये की योद्धा आ रहे थे और दोनों खेमे सीमा पर ही उनकी आवभगत में खड़े होकर उनको अपने २ पक्ष में आने का निवेदन कर रहे थे !

 

महाभारत का युद्ध उतरोतर चिंताजनक हालत में पहुँच रहा था ! उस समय में युद्ध भी धर्म युद्ध ही हुआ करते थे ! और इस युद्ध में भी बहुत हद तक इस बात की कोशीश की गई थी की इस नियम का पालन हो ! पर शायद युद्ध और प्रेम में ये बातें केवल कहने भर की ही होती  हैं ! जैसे जयद्रथ वध में हुआ, कर्ण के साथ हुआ, दुर्योधन जब अंत समय तालाब में छुपे थे , तब हुआ ? यह एक अलग प्रसंग हो जायेगा ! और फ़िर कभी संयोग आया तब चर्चा करेंगे !

अभी तो आप को युद्ध  में भाग लेने  आए एक योद्धा  की कहानी सुनाते हैं  ! जब भी कोई योद्धा युद्ध क्षेत्र में आता था , दोनों और से उसे अपने पक्ष में करने  की कवायद शुरू हो जाती थी ! यह बर्बरीक नाम का योद्धा मात्र अपना धनुष और एक बाण लेके वहाँ आता है ! दोनों तरफ़ से स्वाभाविक गतिविधियाँ हुई , पर जब देखा की इसके पास तो एक ही बाण है तो यह सोच कर की ये क्या लडेगा एक बाण से !  किसी ने बहुत ज्यादा रूचि नही ली ! बर्बरीक दोनों खेमो के मध्य बिन्दु, एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और यह घोषणा कर डाली - मैं उस पक्ष की तरफ़ से लडूंगा जो हार रहा होगा !

 

mahabharat yudh उसकी यह घोषणा सुन कर वहाँ खड़े कुछ लोगो ने सोचा की कोई पागल होगा ! इसके पास ना कोई हथियार है, ना ही कोई बाण वगैरह हैं ! ऐसे ही हवाबाजी कर रहा होगा ! जासूसों ने, जैसा की रोज की रिपोर्टिंग करते थे , आज भी अपनी २ रिपोर्ट दी ! और अंत में उन्होंने बताया की आज एक ऐसा पागल भी योद्धा बन कर आया है और बोल रहा है की वो उसकी तरफ़ से लडेगा जो हार रहा होगा ! कौरव पक्ष में किसी ने इस पर ध्यान भी नही दिया ! सब हंस कर टाल गए और अपने २ शिविरों में चले गए !  उधर पांडव खेमे में  भी रिपोर्टिंग का काम चल रहा था ! असल में लोग कहते हैं की पांडव  श्री कृष्ण  के कारण ही जीते थे ! यह बात बिल्कुल सही है ! असल में पांडवों का पूरा  सी.आई.डी. विभाग श्री कृष्ण के जिम्मे था ! और इसमे ही उनकी प्रतिज्ञा भी बचती थी ! कोई हथियार उठाना नही पड़ रहे थे ! और सबसे महत्त्व पूर्ण कार्य को अंजाम दे रहे थे ! यहीं पर कौरव मात खा गए ! वरना तो इस युद्ध की कहानी ही अलग होती !  इसीलिए दुर्योधन को मुर्ख कहा गया ! उस बेवकूफ ने कभी भी सी, आई. डी. विभाग पर धन नही खर्च किया ! सिर्फ़ हथियार और योद्धा खरीदता रहा ! और पांडव इस विभाग में उससे बड़े उस्ताद थे ! उनका सारा दारोमदार ही जासूसी पर था ! और इस विभाग के चीफ भी स्वयं भगवान श्री कृष्ण थे ! जो की इन धंधों में बचपन से ही डिग्रीधारी थे !

आज की जासूसों की रिपोर्टिंग सुनने महाराज युधिष्ठर और अर्जुन भी कक्ष में उपस्थित थे ! जासूस ने जैसे ही बर्बरीक के बारे में बताया , एक बार तो बात आई गई हो गई ! पर श्री कृष्ण   ने तुंरत जासूस से कहा - फ़िर से बताना ! क्या कह रहे थे ?
जासूस ने योद्धा के बारे में बताया और उसकी प्रतिज्ञा के बारे बताया ! अब जासूस ने जो कुछ सुनाया वो सुनकर श्री कृष्ण के माथे पर चिंता की लकीरे साफ़ उठ आई ! महाराज युधिष्ठर के पूछने पर श्री कृष्ण बिना कुछ कहे तेजी से उठकर बाहर चले गए !
और उनको परेशान देख कर महाराज युधिष्ठर और अर्जुन भी विचलित हो गए ! दोनों अच्छी तरह जानते हैं की जब भी पांडवो की सुरक्षा पर आंच आती दिखाई देती है , उसी समय श्रीकृष्ण इतना परेशान हो जाते हैं ! (क्रमश:)

मग्गाबाबा का प्रणाम !

क्‍या फकीर को राजमहल का सुख उठाना शोभा देता है ? भाग-२

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यह तो ५/७ पागल दीवानों की महफ़िल है ! जहाँ बैठकर ये दीवाने सनम की बातें करते हैं ! और सनम बातो से नही मिला करते ! वो तो सनम की नजरे इनायत कभी किसी जन्म में हो जाए तो उसकी मर्जी ! पर हम सनम की बातें इस डर से करना क्यूँ छोड दे  ? अरे जब हमको सनम की बातें करने में आनंद आता है तो सनम को भी तो हम से प्रेम होगा की नही ? वो भी तो हमसे मिलने को तरस रहा होगा ? मैं तो कहता हूँ सनम को की हमें तो तू तेरे सनमखाने की बातें ही करने दे ! जब तेरी मर्जी हो तब हमारे पास आजाना ! जल्दी नही है हमें ! पर हम तेरी बातें करना नही छोडेंगे ! 

 

राजा जनक का जैसे ही बुलावा आया ! सेवक ने आकर संदेश दिया की राजा आपको स्नान करवाने नदी पर ले लेजाना चाहते हैं !अब स्नान करवाने तो क्या ? बल्कि उस संन्यासी की क्लास लगाने ले जा रहे थे ! पर राज पुरूष हैं तो थोड़े शालीन शब्द प्रयोग करते हैं ! राजमहल नदी तट पर ही था !  ऋषी-पुत्र अपनी लंगोटी उठाकर चल दिया ! राजा और संन्यासी दोनों नदी में स्नान कर रहे हैं ! संन्यासी सोच रहा है ये योगी तो हो ही नही सकता ! ये तो महाभोगी है ! देखो यहाँ कैसे दासियाँ इसके वस्त्र लिए खडी हैं ? एक तरह संन्यासी का मन बड़ा प्रफुल्लित है की इस ज्ञानी राजा के सामने स्वयं वो कितना बड़ा त्यागी है ! और वो ख़ुद की उपलब्धियां जनक की तुलना में बहुत बड़ी मान रहा था !

इतनी देर में संन्यासी देखता है की राजमहल में आग लग गई है ! अब पता नही सच में लग गई या लगवा दी गई ? जनक जैसे पागल का क्या भरोसा ? पागल और ज्ञानी में ये ही तो एक साम्यता रहती है ! लगवा भी दे आग ! संन्यासी को समझाने के लिए  ! पर कहानी तो यही कहती है की आग लग गई !  चारो तरफ़ लोग भागते दिखाई दे रहे हैं ! वो कुछ कहने के लिए राजा की तरफ़ नजर उठा कर देखता है ! उसको आश्चर्य होता है की राजा जलते महल को देख रहा है ! और दासिया उसकी पीठ पर उबटन लगा रही हैं ! आश्चर्य घोर आश्चर्य... ! संन्यासी सोचता है , कैसा बेवकूफ है ये राजा ? इसका महल जल रहा है , और इसको चिंता ही नही है !

संन्यासी इतनी देर में देखता है की आग फैलती २ नदी तट तक बढ़ रही है और अब तो जहाँ इस संन्यासी की लंगोटी  रक्खी थी, वहाँ तक आग फ़ैल चुकी है ! संन्यासी ने सोचा की  ये राजा तो महा ऐयाश दीखता है और आलसी भी ! अरे महल जल रहा है और ये स्नान में मग्न है ? तो संन्यासी जल्दी से तैर कर तट पर आया और अपनी लंगोटी उठा कर दौड़ पडा ! सही में लंगोटी ही जल गई तो फ़िर दिगंबर रह जायेगा ! आख़िर कितनी कीमती चीज है ? सो भाग लिया विपरीत दिशा में, अपनी लंगोटी उठाकर  !

क्या तो संन्यासी ? और क्या उसकी लंगोटी ? कितना मूल्य होगा उसकी लंगोटी का ? राजा का राजमहल जल रहा है ! उसी राज महल में स्वाभाविक है उसकी रानियाँ और राज कुमार / कुमारियाँ भी होंगे ! पर वो निश्चिंत है ! और एक ये संन्यासी यानी जिसने सब कुछ त्याग दिया है ! उसके लिए इतनी कीमती है लंगोटी ? जनक सब कुछ छोड़ कर , स्नान का आनंद ले रहे हैं और संन्यासी का मन बसा है लंगोटी में ! अरे वाह रे त्यागी महाराज ! धन्य है आपका त्याग और सन्यास ! इतना होने पर भी उनको जनक भोगी और ढोंगी दिखाई पड़ रहे हैं !  जनक ने सोचा होगा - ये भी किसी कलयुग का संन्यासी होगा ! इतने से इसको अक्ल नही आयेगी !  इसको कुछ और एक्स्ट्रा डोज देना पडेगा ! और बिना ज्ञान कराये छोड़ दे तो फ़िर विदेह जनक कैसे ! ये ही तो उनकी विशेषता है ! बस २४ घंटे में तो वो वज्र मुर्ख को ज्ञानी बनादे !

राजा जनक ने देखा की ये तो गया बिना ज्ञान लिए ही , तो सेवक दौडाए उसके पीछे ! कहा -  उस संन्यासी महाराज को लाओ वापस ! अभी उसकी कक्षा पुरी भी नही हुई और वो तो भाग लिया ! सेवक दौड़ पड़े उस संन्यासी के पीछे ! और थोड़ी देर में ही उसको ले कर वापस आगये !

राजा जनक ने पूछा - क्या हुवा ऋषिवर ? आप भाग क्यूँ लिए थे ? संन्यासी ने सोचा अजीब पागल है ! अब इसका क्या करे ? राजा है , पकड़वा कर बुलवा  लिया , इच्छा हो जाए तो जेल में भी डाल दे ! उसने डरते २ अपनी दुविधा बताई की आप कैसे ज्ञानी हो ? आपको इतना भी नही पता की राजमहल जल रहा है और आप दासियों में मग्न हैं ? आप तो भोगी हो !

राजा बोला - ठीक है ऋषि पुत्र ! आप अब महल चले ! दोपहर होने आई ! मुझे मालुम है आपका मन यहाँ नही लग रहा है ! आप भोजन कर ले और फ़िर थोडा विश्राम करके आप जा सकते हैं ! संन्यासी के तो जान में जान आई ! चलो अब थोड़ी देर में तो इस पागल से पीछा छुट जायेगा ! महल में शानदार दावत का प्रबंध था ! ५६ भोग .. सुंदर दासियाँ परोसने के लिए ! और भी सुंदर २ दासियाँ पंखा झल रही हैं ! संन्यासी को नहाने के बाद की भाग दौड़ में कस कर भूख लगी हुई थी ! और फ़िर इसके बाद जाने की आज्ञा मिल चुकी थी सो संन्यासी को भोजन की सुगंध से और कस कर भूख लग आई !  और संन्यासी ने मन बना लिया था की आज डट कर ५६ भोग का आनंद लेगा ! पता नही अब भविष्य में कब राजसी भोजन का अवसर मिले !

राजा जनक और संन्यासी खाने के लिए आसन पर बैठे ! संन्यासी ने देखा ठीक उसके सर के ऊपर एक नंगी तलवार बिल्कुल कच्चे धागे से लटकी हुई है ! ज़रा सा हवा का झोंका भी उसको गिरा सकता था संन्यासी के सर पर ! उसकी तो रूह काँप गई ! सोचा , ये तो बड़ा पागल है राजा ! इसको इतनी भी अक्ल नही है की इस हालत में इंसान कैसे खाना खायेगा ! पर क्या बोले ? राजा का डर भी था ! उधर तरह २ के व्यंजन परोसने का दासियाँ आग्रह करती रही ! जैसे तैसे थोडा बहुत अन्दर उतारा और कुल कोशीश यही की जल्दी से जल्दी भोजन खत्म कर के इस जगह से उठ जाय ! जिससे इस तलवार का खतरा टले !

उधर राजा इत्मीनान से ५६ भोग का आनंद ले कर भोजन उदरस्त करने में लगे हैं ! संन्यासी हाथ धोकर उठने की फिराक में है  ! पर शिष्टाचार वश राजा के पहले उठ नही सकता ! सर पर नंगी तलवार लटकी है ! बड़ी दुविधा ! सारा ध्यान तलवार में लगा है ! खाना तो क्या खाता ? जैसे ही राजा ने हस्त-प्रक्षालन शुरू किया की इन्होने तो तुंरत वो आसन छोडा ! हाथ तो धोये बैठे ही थे ! उस आसन से हटते ही जान में जान आई ! जान बची तो लाखो पाये ! अब नही आयेगा ये किसी राजा के राजमहल में  ! कसम खाली आज ! 

दासियों ने पान बीड़े पेश किए ! और जनक ने पूछा - कहिये ऋषिवर , भोजन कैसा लगा ! आपके लिए आज बिल्कुल स्पेसियल आर्डर देकर बनाया गया था ! और हमारे राजमहल के प्रधान रसोइए ने अपने हाथों से बनाया था ! मुझे तो बड़ा स्वादिष्ट लगा ! उम्मीद करता हूँ आपको भी  स्वाद तो पसंद आया होगा ? राजा का इतना पूछना  था की संन्यासी फट पडा ! उसने सोचा की अगर तलवार गिर गई होती तब भी मर ही चुके होते ! अब बोलने से भी क्यूँ चूकें ? ऐसी तैसी इस राजा की ! होगा राजा ! क्या इस तरह घर में आए के प्राण लेगा क्या ? 

वो संन्यासी बोला - राजन ! आप अजीब मसखरी करते हो ! व्यंजन तो बहुत बढिया २ बनवाये , परोसवा भी दिए ! पर स्वाद कहाँ लेने दिया ? अरे अगर सर पर तलवार और वो भी नंगी तलवार लटकी हो तो कोई स्वाद ले सकता है क्या ? सच बात तो यह है की मैं तो आपके डर से खाने का नाटक कर रहा था ! सारा ध्यान तो मेरा उस नंगी तलवार पर लगा था ! ५६ भोग का मजा क्या ख़ाक लेता ?

अब विदेह जनक बोले - ऋषिवर , आपको जिस बात को समझने के लिए आपके पिताजी ने भेजा था वो मैंने समझा दी है ! और आशा करता हूँ की आप जो मेरे को भोगी समझ  रहे थे वो भ्रान्ति भी आपकी दूर हो गई होगी  ! ऋषिपुत्र राजा जनक के चहरे की तरफ़ टक टकी लगाए देखता रहा और राजा जनक बोलते रहे !


जिस तरह तुम्हारा सारा ध्यान ५६ भोग में नही होकर भी तलवार में था ! जबकि तुम प्रत्यक्षत: ५६ भोग भोगते हुए दिखाई दे रहे थे ! और तुमने उनको खा भी लिया और तुम्हे स्वाद भी नही मालुम ! उसी तरह मैं ये सारा सुख वैभव भोगता हूँ ! पर मुझे वाकई इन भोगो का स्वाद नही मालुम !  भोगता दिखाई जरुर देता हूँ पर मेरा सारा ध्यान २४ घंटे उस तलवार रूपी ब्रह्म में ही लगा रहता है ! और ये भोग मैं चाहूँ तो भी छोड़ कर नही जा सकता , क्योंकि मेरे पिछले जन्मों के पाप पुण्य का हिसाब-किताब भी यहीं होना है !  पिछले जन्मों के शेष बचे हुए पुण्य की वजह से मैं राजा हूँ ! नए शिरे से कोई पाप पुण्य नही हों , इस लिए मैं मेरे अंत:करण में उसी ब्रह्म को स्थित देखता हूँ ! ये कर्म मुझे छू भी नही जाते ! और संन्यासी पूर्ण संतुष्ट होकर  विदेह जनक को प्रणाम करके चला गया !

मग्गाबाबा का प्रणाम !

क्‍या फकीर को राजमहल का सुख उठाना शोभा देता है ?

कुछ व्यस्तताएं जीवन की ऐसी हो जाती हैं की हम जो करना चाहते हैं और वो समय पर कर नही पाते ! अब जैसे बीमारी को ही लेले ! इधर में  " श्री जीतेन्द्र भगत"  ने सर्जरी करवाई ! चंद दिन अस्पताल में बिताए ! और उनके प्रश्न पहले भी आते रहे हैं ! और उनका आज भी एक प्रश्न है ! जवाब देने का मूड नही था ! क्योंकि हम कुछ दूसरी पोस्ट लिखने के मूड में थे !  पर फ़िर अचानक ध्यान में आया की वो अभी अस्पताल से लौटे हैं, और उनकी जिज्ञासा का यथासम्भव जवाब देना चाहिए !

वैसे हमने ४ साल पहले  "बोम्बे हॉस्पिटल, मुम्बई"  में अपने दिल की "बाई-पास-सर्जरी" करवाई थी , तब ११ दिन वहाँ रहने का शौभाग्य हमें प्राप्त हुआ था ! हमारा ऐसा मानना है की वो ११ दिन हमारी जिन्दगी के सबसे खूबसूरत दिन थे ! उन ११ दिनों को हमने जितना एन्जॉय किया उतना कभी नही किया ! ध्यान के जितने गहरे प्रयोग हम वहाँ कर पाये वो बाहर सम्भव नही हैं ! वहाँ के डाक्टर्स भी चमकृत थे , हमारी रिकवरी देख कर ! वो आज तक हमारे मित्र बने हुए हैं और ध्यान का उपयोग  सर्जरी में स्वीकार करते हैं !  हम सोचते हैं भगत साहब भी विपस्यना ध्यान सीख के आए हैं तो उन्होंने भी कुछ उपयोग इस मौके का अवश्य किया होगा !

जीतेन्द्र भगत साहब का सवाल है :-

मग्‍गा बाबा को मेरा प्रणाम, आपके आश्रम से कई दि‍नों से दूर था। आज की कथा में फकीर की दुनि‍यादारी बहुत भाई, पर कुछ चीजें सोचता भी रहा- क्‍या फकीर को राजमहल का सुख उठाना शोभा देता है, शायद मैं फकीर होता तो ऐसा कभी नहीं करता। बंधन में बि‍ना बंधे भौति‍क सुख भोगना भी राग ही है, वैराग नहीं। गुस्‍ताखी माफ।
पि‍छली पोस्‍ट में आनंद को बुद्ध ने सही तरह समझाया। वाकई एक ही बात को समझने के लि‍ए लोगों के पास अलग-अलग बुद्धि‍ पाई जाती है।
आपके अनुग्रह का आकांक्षी...

10 October 2008 23:09

आपके सवाल के जवाब में एक कहानी सुनाते हैं ! शायद आप बात को समझ पायेंगे !

राजा जनक का नाम सबने सुना होगा ! लेकिन शायद कम लोगो को मालुम होगा की राजा जनक के लेवल का ज्ञानी दूसरा कोई नही था ! वो स्वयं  चेतना के उच्च शिखर पर थे ! उनको गुरु कहाँ से मिले ? क्योंकि स्वयं महान ज्ञानी और जैसे सीता स्वयंबर का प्रण कर लिया था इसी तरह उनका यह भी प्रण था की गुरु ऐसा चाहिए जो मुझे ज्ञान कराने में सिर्फ़ इतना समय लगाए , जितना घोडे की पीठ पर सवार होने में लगता है  ! अब बताइये ऐसा गुरु कहां मिले ? घोडे की पीठ पर सवार होने में ज्यादा से ज्यादा अनाडी आदमी को २० सेकिंड और जनक जैसे राज-पुरूष को तो पलक झपकना भी ज्यादा ही हो जायेगा !  अब ये घोषणा सुन कर कौन गुरु तैयार होगा ! इतना त्वरित ज्ञान लेने और देने में दोनों ही पक्षों का चेतना का  स्तर क्या होगा ? ज़रा कल्पना करिए ! 

अब सामने आए अष्टावक्र ! उन्होंने कहा- राजन ये तो ज्यादा समय है ! मैं तो तुमको सिर्फ़ इतनी देर में ज्ञान दे सकता हूँ जितनी देर में तुम घोडे पर चढ़ने के लिए रकाब में पाँव डालो ! बैठने तक तो बहुत देर हो जायेगी ! पर मेरी भी एक शर्त है !
राजा जनक सन्न रह गए............ !

ये अलग कहानी हुई ! फ़िर कभी देखेंगे ! यहाँ आपको ये कहानी थोड़ी सी सुनाने के पीछे उद्देश्य यह है की राजा जनक किस उच्च  स्तर के ज्ञानी पुरूष थे ! राजा जनक के पास  बड़े बड़े ज्ञानी,  महात्मा और साधू-संन्यासी ज्ञान प्राप्त करने आते थे !

एक दिन राजा जनक महफ़िल में बैठे हैं ! राज-नर्तकी नृत्य में लीन है और जनक बड़े मनोयोग से नाच-गान में मशगूल हैं ! एक संन्यासी आता है ! उसको आसन दे कर आने का सबब पूछते हैं ! वो संन्यासी कहता है - राजन मेरे पिताने मुझे आपसे ज्ञान लेने भेजा है ! जनक कहते हैं - ठीक है ! अभी तो आप भी नाच-गाने का आनंद लीजिये ! ज्ञान की बातें फ़िर कर लेंगे ! और उस ऋषी-पुत्र को भी राजा ने वहीं बैठा लिया ! बेचारा ऋषी-पुत्र ... घबरा गया.. जनक के ये हथकंडे देख कर ! उसने सोचा , शायद पिताजी से भूल हुई है ! ये मुझे क्या ज्ञान देगा ? नृत्य-गान में मशगूल रहने वाला ? शायद लोगो ने इस राजा के डर के मारे इसको ज्ञानी कहना शुरू कर दिया है ! जैसे आजकल नकली डिग्री  पी.एच.डी. की लेकर कोई अपने आपको डाक्टर लिखना शुरू करदे !   ऋषी-पुत्र का मन ग्लानी से भर गया ! उसकी इच्छा हुई की इसी वक्त निकल भागे यहाँ इस ढोंगी ज्ञानी के चंगुल से ! पर पिता की अवज्ञा का डर ! सो राजा के पास बैठा रहा ! और जनक ने भी जितना भोगीपना दिखाना था वो सब दिखाया !

रात को राजा ने उसको बढिया आलिशान राज-कक्ष में रुकवा दिया ! दासियाँ पंखा झल रही हैं, आलिशान गद्दे पर उसको नींद कहाँ ? मन ही मन पिताजी को गालियाँ देने लगा ! और जनक को तो पता नही क्या २ मन ही मन सुना डाला ! राजा जनक ने तो उसका धर्म ही भ्रष्ट कर डाला ! जिस ऋषि-पुत्र को किसी औरत जात की हवा नही लगी थी उसको औरतो से पंखा करवा दिया इस पाखंडी ज्ञानी ने ! इस पाखंडी राजा ने ये भी नही सोचा की अभी ये ऋषी-पुत्र ब्रह्मचारी है ? ओहो ..हो .. ! बड़ा अधर्मी है ये ...! रात कैसे जैसे राम राम करते निकली ! सुबह ही राजा का आदेश आगया ! शेष अगले भाग में.... !

मग्गाबाबा का प्रणाम !
( अगला भाग हम जल्द से जल्द पोस्ट करेंगे ! पोस्ट ज्यादा लम्बी होने की दुविधा होने से आज  इतना ही !)

तुझमे और मुझमे क्या फर्क ?

एक राजा जंगल में शिकार खेलने जाया करता था ! उसी रास्ते में सड़क किनारे एक फकीर की कुटिया भी थी ! तो राजा जब भी उधर से निकलता तब उसकी फकीर से दुआ सलाम होने लग गई ! और धीरे २ राजा की उस फकीर में श्रद्धा हो गई ! अब राजा जब भी उधर से निकलता , वो फकीर को प्रणाम करता और थोड़ी देर वहाँ रुक कर फकीर की बातें सुनता ! राजा को इससे बड़ी शान्ति मिलती !

राजा को फकीर बड़ा दिव्य और पहुँचा हुवा मालुम पड़ने लगा ! अब राजा जब भी फकीर से मिलता वो हमेशा फकीर से आग्रह करता की आप राज महल चलिए ! फकीर मुस्करा कर टाल देता ! अब ज्यूँ २ फकीर मना करता गया त्यों २ राजा का आग्रह बढ़ता गया ! फ़िर एक दिन बहुत आग्रह पर फकीर राजमहल जाने को तैयार हो गया ! अब राजा का तो जी इतना प्रशन्न हो गया की पूछो मत ! राजा ने फकीर के  राजमहल पहुँचने पर इतना स्वागत सत्कार किया की जैसे साक्षात ईश्वर ही उसके राजमहल में पधार गए हों ! राजा ने फकीर के स्वागत में पलक पांवडे बिछा दिए ! और फकीर को राजमहल के सबसे सुंदर कमरे में ठहराया गया ! और राजा अपना दैनिक कर्म करने से जो भी समय बचता वो फकीर के पास बैठ कर उससे ज्ञानोपदेश लेने में बिताता ! राजा परम संतुष्ट था ! और फकीर भी मौज में !

समय बीतता गया ! अब राजा ने नोटिस करना शुरू किया की फकीर की हरकते बड़ी उलटी सीधी हो गई हैं ! राजा ने देखा - फकीर जो कड़क जमीन पर सोया करता था कुटिया में , अब नर्म गद्दों पर शयन करता है ! वहाँ रुखा सुखा खा लिया करता था , अब हलवा पूडी से भी मना नही करता ! शुरू में तो राजा, रानियाँ और राजकुमार श्रद्धा पूर्वक फकीर के चरण दबाया करते थे अब वो मना ही नही करता , चाहे सारी रात दबाए जाओ  ! और कभी २ तो दासियों को चरण दबाने को कहता है ! उसको जो भी काजू बादाम खाने को दो , मना ही नही करता ! और ऐसा आचरण तो फकीर को नही ही करना चाहिए !


और एक रोज तो हद्द ही हो गई जब वो किसी राज पुरूष द्वारा दी गई मदिरा का सेवन भी बिना किसी ना-नुकुर के करने लग गया ! अब राजा ने सोचा हद्द हो गई ! ये कैसा फकीर ? जो मैं करता हूँ वो ही ये करता है ! इसमे मुझमे क्या फर्क ? मेरे जैसे ही गद्दों पर सोता है, मदिरा सेवन करता है , दासियों से पाँव दबवाता है ! चाहे जो खाता है ! राजा को बड़ी मुश्किल हो गई ! उसकी सारी श्रद्धा जो फकीर के प्रति थी वो ख़त्म होती जा रही थी ! क्या करे ?  जिस फकीर को वह परमात्मा समझ कर लाया था ठीक उससे उलटा काम हो गया ! सही है अगर हमको सही में परमात्मा भी मिल जाए तो हम ऐसा ही करेंगे ! इंसान को जब तक जो वस्तु नही मिले तब तक ही उसकी क़द्र करता है ! वो तो अच्छा है की  भगवान समझदार हैं जो आदमी को मिलते नही हैं वरना आदमी तो उनकी भी मिट्टी ख़राब करदे !

वो कहते हैं ना की समझदार आदमी को राजा, साँप और साधू से दोस्ती नही करनी चाहिए पर यहाँ तो सिर्फ़ साँप की कमी थी ! राजा जब पूरी तरह उकता गया तो उसने फकीर से पूछ ही लिया की - बाबा आपमे और मुझमे क्या फर्क रह गया है ! अब आप फकीर कैसे ? फकीर चुप रह गया ! अगले दिन सुबह २ फकीर ने कहा- राजन अब हम प्रस्थान करेंगे !
राजा उपरी तौर पर नाटक करता हुवा बोला- बाबाजी थोड़े दिन और ठहरते ! पर मन ही मन प्रशन्न था की चलो इस आफत से पीछा छूटा ! फकीर ने अपना कमंडल जो साथ लाया था वो उठाया और चलने लगा ! राजा बोला- आपका यहाँ का सामान भी लेते जाइए ! और आपमे मुझमे क्या फर्क है इसका जवाब भी दे दीजिये ! फकीर मुस्कराया और बोला - राजन , जवाब अवश्य देंगे ! चलिए थोडी दूर हमारे साथ , हमको विदा करने थोड़ी  दूर तो  चलिए ! रास्ते में जवाब भी दे देंगे ! इस सारे वार्तालाप में राजा चलता रहा फकीर के साथ साथ ! और इसी तरह बातें करते २ नगर की सीमा तक आ गए !

अब राजा बोला - अब मेरी बात का जवाब मिल जाए तो मैं लौट जाऊं ?
फकीर कहता - बस राजन थोड़ी दूर और ! फ़िर देता हूँ आपकी बात का जवाब !
इस तरह करते २ राजा उस फकीर के साथ काफी दूर निकल आया !
राजा जवाब मांगता और फकीर कहता थोड़ी दूर  और !
अब इस तरह शाम होने को आ गई !  राजा का सब्र जवाब दे गया ! अब राजा झल्लाकर बोला - महाराज , शाम होने को आगई ! मेरे आज के  सारे राज-काज बाक़ी रह गए , राजमहल है, इतनी बड़ी राज-सत्ता है , इस तरह मेरा अनुपस्थित रहना ठीक नही है ! पीछे से कहीं कोई हमला वमला करदे ! तो क्या होगा ? अब मैं और आपके साथ नही चल सकता !आपको जवाब देना हो तो दो नही तो मुझे नही चाहिए ! क्यूँकी आपके पास कोई जवाब है ही नही !

फकीर बोला - बस थोड़ी दूर और चलो ! फ़िर देता हूँ जवाब !

अब आख़िर राजा था इतनी बेअदबी थोड़ी बर्दाश्त करता ! बोला - बस अब बहुत हो गया !
वैसे ही फकीर बोला - बस यही तो है जवाब ! राजन तुम्हारी मजबूरी है राजमहल लौटना हमारी नही ! तुम राज-महल के यानी संसार के बंधन में हो ! उसको छोड़ना मुश्किल ! और हमारी कोई मजबूरी नही कोई बंधन नही ! जितने दिन राजमहल के सुख थे उनका मजा लिया !  आज राजमहल नही है तो छोड़ने की पीडा भी  नही है ! अब आज पेड़ के निचे अपना राज-महल बनेगा ! वहाँ के सुख का आनंद उठाएंगे ! यही है तुझमे और मुझमे फर्क !  हम जहाँ जाते हैं वहीं राजमहल है और तुम्हारे लिए ये मिट्टी गारे के राजमहल में लौटना ही राजमहल है ! फर्क इसी बंधन का है ! 

तुम्हारे को इतनी आजादी नही है की अपनी मर्जी से राजमहल छोड़ दो ! तुमको लौटना मजबूरी है !  हम अपनी मर्जी से राज महल गए थे और अपनी मर्जी से आज छोड़ दिया ! हमको लौटना कोई मजबूरी नही है !

सबकी समझ अपनी अपनी होती है : गौतम बुद्ध

जैसा की आप जानते हैं आनंद बुद्ध का प्रिय शिष्य भी था और बुद्ध को सबसे प्रिय भी था ! आनंद ने बुद्ध की इतनी सेवा की थी की अगर हम उनका गुणगान लेकर बैठे तो ये पोस्ट यहीं  कहीं गुम हो जायेगी ! आनद के बिना बुद्ध का जीवन चरित्र अधूरा ही रहेगा ! हम पहले ही वादा कर चुके हैं की आनद के बारे में विस्तृत चर्चा समय पर अवश्य करेंगे ! और आपको आनंद के बारे में कुछ और बातें मालुम पड़ेगी ! अभी तो आप ये समझ लीजिये की आनद बुद्ध की परछाई की तरह २४ घंटे उनके साथ रहता था ! और वो इसी निकटता के कारण बुद्ध से  सबसे गूढ़ बातें भी पूछ लिया करता था ! आज वैसी ही एक घटना का जिक्र करते हैं !

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भगवान बुद्ध सांध्यकालीन प्रवचन देकर हमेशा की तरह तीन बार बोले - अब अपना २ कार्य संपन्न करें!और उठ कर अपने विश्राम स्थल की और बढ़ गए ! आनंद भी उनके पीछे २ वहाँ पहुँच गया ! आज आनंद ने आख़िर बुद्ध से पूछ ही लिया की आप एक ही बात को तीन बार क्यूँ दोहराते हैं ?

 

बुद्ध की आदत थी की हर बात वे अपने शिष्यों को तीन बार समझा देते थे ! अब आनंद को ये शायद फालतू की बात ही लगती होगी की अब रोज रोज ये क्या तीन बार दोहराना की जावो अब अपना अपना काम करो ! अरे भाई स्वाभाविक और समझी हुई बात है की, बुद्ध के भिक्षू हो तो , सांध्य कर्म और सभा के बाद सब ईश्वर चिंतन और ध्यान करो ! अब ये भी कोई रोज  रोज समझाने की बात है भला ?  

अब बुद्ध ने कहा - आनंद तुम कहते तो ठीक हो की भिक्षु को रोज रोज क्या समझाना की जावो अब अपना २ काम करो ! पर तुमने शायद ध्यान नही दिया की यहाँ धर्म सभा में आस-पास की बस्तियों के भी काफी सारे लोग आते हैं ! और वो शायद पहली बार भी आए हुए हो सकते हैं !  सो उनकी सहूलियत के लिए भी ये जरुरी हो जाता है ! पर आनंद के हाव भाव से महात्मा बुद्ध को ऐसा लगा की वो इस बात से शायद सहमत  नही है !

अब बुद्ध बोले - आनंद अब तुम एक काम करो ! आज  की ही सभा में जितने लोग बैठे थे उनमे एक वेश्या और एक चोर भी प्रवचन सुनने आए थे ! और संन्यासी तो खैर अनेको थे ही ! अब तुम एक काम करना की सुबह इन तीनो ( संन्यासी, वेश्या और चोर ) से जाकर  पूछना की कल रात्री धर्म-सभा में बुद्ध ने जो आखिरी वचन कहे उनसे वो क्या समझे ? अब आनंद के आश्चर्य का कोई ठिकाना नही रहा ! उसको ख़ुद नही मालुम की इतनी बड़ी हजारों की धर्म-सभा में कौन आया और कौन नही आया ? और भगवान् बुद्ध एक एक आदमी को जानते हैं ! और उसे आश्चर्य हुवा की वो कैसे पहचान गए की वो वेश्या है और वो चोर है ! घोर आश्चर्य हुवा आनंद को ! और बुद्ध से उनके नाम पते लेकर मुश्किल में रात्री काटी और सुबह होते ही तहकीकात में लग गया की वाकई वो वही हैं जो बुद्ध ने बताए हैं या बुद्ध आनंद के मजे ले रहे हैं ? 

सुबह होते ही आनंद के सामने जो पहला संन्यासी पडा उससे आनंद ने पूछा - आपने रात्री सभा में बुद्ध ने जो आखिरी वचन कहे की अब जाकर अपना २ काम करो ! उन शब्दों से आपने क्या समझा ? भिक्षु बोला - इसमे समझने वाली क्या बात है ? भिक्षु का नित्य कर्म है की अब शयन पूर्व का ध्यान करते २ विश्राम करो ! आनंद को इसी उत्तर की अपेक्षा थी अत: वो अब तेजी से नगर की और चल दिया !

आनंद सीधे चोर के घर पूछते २ पहुँच गया और चोर तो भिक्षु आनंद को देखते ही गद गद हो गया और उनकी सेवा में लग गया ! आनद को बैठाकर उनसे आने का प्रयोजन पूछा ! आनंद ने अपना सवाल दोहरा दिया ! और चोर बड़े ही विनम्र शब्दों में बोला - भिक्षु , अब आपको क्या बताऊँ ? कल रात पहली बार बुद्ध की धर्मसभा में गया और उनके प्रवचन सुन कर जीवन
सफल हो गया ! फ़िर भगवान् ने कहा की अब अपना २ काम करो ! तो मैं तो चोर हूँ अब बुद्ध के प्रवचन सुनने के बाद झूँठ तो बोलूंगा नही ! कल रात मैं वहाँ से चोरी करने चला गया और इतना तगड़ा हाथ मारा की जीवन में पहली बार इतना तगड़ा दांव लगा है की आगे चोरी करने की जरुरत ही नही है ! आनंद को बड़ा आश्चर्य हुवा और वो वहाँ से वेश्या के घर की तरफ़ चल दिया !

वेश्या के घर पहुंचते ही वो तो भिक्षु आनद को देखते ही टप टप प्रेमाश्रु बहाते हुए उनके लिए भिक्षा ले आई और अन्दर आकर बैठने के लिए आग्रह किया ! आनंद अन्दर जाकर बैठ गया और अपना सवाल दोहरा दिया !  वेश्या ने कहना शुरू किया - भिक्षु ये भी कोई पूछने की बात है ? भगवान बुद्ध ने कहा की अब जावो अपना २ काम करो ! सो उनके वचन टालने का तो कोई प्रश्न ही नही है ! मेरा काम तो नाचना गाना है सो वहाँ से प्रवचन सुन कर आने के बाद तैयार हुई और महफ़िल सजाई ! यकीन मानो कल जैसी महफ़िल तो कभी सजी ही नही ! और सारे मेरे ग्राहक जिनमे बड़े २ राजे महाराजे भी थे ! वो इतने प्रशन्न हो के गए
की अपना सब कुछ यहाँ लुटा कर चले गए ! अब मुझे धन के लिए ये कर्म करने की कभी आवश्यकता ही नही पड़ेगी ! बुद्ध की कृपा से एक रात में इतना सब कुछ हो गया !  आनंद बड़ा आश्चर्य चकित हो कर वहाँ से वापस बुद्ध के पास लौट गया !

आनंद ने जाकर बुद्ध को प्रणाम किया और सारी बात बताई ! अब बुद्ध बोले - आनंद .. इस संसार में जितने जीव हैं उतने ही दिमाग हैं ! और बात तो एक ही होती है पर हर आदमी अपनी २ समझ से उसके मतलब निकाल लेता है ! अब तुम समझ ही गए होगे की बात तो एक ही थी पर सबकी समझने की बुद्धि अलग २ थी ! और इसीलिए मैं एक बात को तीन बार कहता हूँ की कोई गलती नही हो जाए पर उसके बाद भी सब अपने हिसाब से ही समझते हैं ! और इसका कोई उपाय नही है ! ये सृष्टि ही ऎसी है !

मग्गाबाबा का प्रणाम !

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