गुरु मछिन्दर नाथ जी पुत्र वियोग मे अर्ध मुर्छित से थे ! और इधर गोरख सोच
रहे थे कि मोह माया भी क्या चीज है ? जिसने गुरु मछिन्दर नाथ जैसे महा
ज्ञानियों बुद्धि पर भी पत्थर पटक दिये ! गोरख ने गुरु को जगाने की
बडी युक्तियां की ! पर बेकार ! असल मे गोरख जानते थे की जब तक इनका मन
पुत्र मे रहेगा, तब तक गुरु वापस नही जायेंगे ! और गुरु वापस नही जायेंगे
तब तक शिष्यों को दुसरे लोगो के ताने सुनने पडेंगे !
गुरु गोरख इतने सिद्ध महायोगी थे कि अगर किसी मरे हुये पशु की हड्डियां भी
हों तो अपने योग बल से उसमे जान डाल देते थे ! और इन गोरखनाथ को आकाश
मार्ग से यानि हवा मे उडने की सिद्धि भी प्राप्त हो चुकी थी ! और ये नही चाहते
थे कि बालक को वापस जिन्दा किया जाये ! ये तो बस किसी तरह गुरु का भ्रम तोड कर
उनको वापस ले जाना चाहते थे ! गुरु होश मे आये तो फ़िर उनका प्रलाप शुरु हो
गया ! तब गोरख ने लाख समझाया कि महाराज ये सब झूंठी माया है आप जागो
और मेरे साथ चलो ! पर मछिन्दर तो जैसे पूरे मोह ममता मे डुबे थे ! आखिर गोरख
ने एक पैन्तरा फ़ेन्का और बोले - अगर आप चाहते हैं कि ये बालक जिवित हो जाये तो
आप बदले मे क्या दे सकते हैं ?
मछिन्दर बोले - इस बालक के एवज मे मैं अपने प्राण भी दे सकता हुं !
गोरख तो इसी घडी के इन्तजार मे थे ! उन्होने कहा की गुरु आप तो संकल्प करो इस
बात का ! फ़िर मैं किसी से बात करके देखता हूं ! मछिन्दर बोले - गोरख , जल्दी कर !
कहीं इस विरह वेदना मे मेरे प्राण ही ना निकल जायें ! गोरख ने मन ही मन कहा - की
वो तो मैं नही निकलने दुन्गा !
उधर जैसे ही मछिन्दर ने संकलप लिया वैसे ही गोरख ने उस बालक की हड्डियां इक्कठी
करके उसको जिन्दा कर दिया ! और मछीन्दर नाथ के तो प्राण मे प्राण लौट आये !
अब गोरख ने उनको इशारा किया कि अब चलो ! बहुत होगई आपकी घर गृहश्ती !
और अब तो शर्त भी हार चुके हो ! अपना वचन निभाओ ! अब देर मत करिए !
अब मछीन्दर अनमने से वापसी के लिये तैयार होने महल चले गये ! वहां उन्होने रानी
को सारी बात बताई ! रानी भी जानती थी कि इनके शिष्य बडे पराक्रमी हैं !
और एक ना एक दिन तो उनको लौटना ही होगा ! रानी को उनसे एक पुत्र की अभिलाषा
थी ! वह भी पूरी हो चुकी थी ! सो रानी ने उन्हे विदा किया ! पर चुंकी पत्नि थी
उनकी , सो साथ मे एक पोटली मे बहुत सारा यानि ५ किलो सोने का एक टुकडा भी
रख दिया ! उसने सोचा की अब इनको फ़कीरी की आदत तो रही नही सो यह इनके रास्ते मे
कहीं बख्त बेबख्त काम आयेगा !
दोनो गुरु चेले वहां से चल दिये ! अब रास्ते मे कहीं जंगल मे रुकते कहीं पहाड पर !
अब यहां मछीन्दर कहते, - गोरख कही आसपास बस्ती देख कर रात्री विश्राम करेंगे ! और गोरख
को जंगल मे रुकने का मन रहता ! अब गोरख को मालूम नही की इस पोटली मे माया है !
और इसी माया को कोई चोर डाकू ना लूट ले ! इसिलिये मछिन्दर किसी ग्राम के आस पास
रुकने की जिद्द करते थे !
गोरख ने देखा की गुरु के पास एक पोटली है इसको नही छोडते ! आखिर इसमे है क्या ?
सोते जागते उनका मन इस पोटली मे ही बस रहा था ! आखिर है क्या ? जो गुरु इतने
अनमने से चल रहे हैं ! एक दिन मछिन्दर को जरा जल्दी मे शौच लग गया ! और वो भूल गये
और वो पोटली वहीं भूल कर चले गये ! पीछे से गोरख ने देखा की - अरे यह तो सोना
है ! तब समझ आया कि गुरुजी क्यों अनमने हैं ? और जंगल मे रुकने से क्यों डरते हैं !
गोरख ने ये पोटली ऊठाकर पहाड से नीचे फ़ेंक दी ! मछीन्दर को शौच से वापसी मे
पोटली याद आयी और जल्दी जल्दी वापस आये ! और नजरों से इधर उधर देखना शुरु
किया ! और संकोच वश गोरख से बहुत देर पूछा भी नही ! आखिर सब जगह देख दाख
कर उन्होने गोरख से पूछा - गोरख इधर एक पोटली थी ! देखी क्या ?
गोरख बोले - गुरुजी वो आफ़त की पोटली थी ! और अब आप उस आफ़त से निश्चिंत रहो !
मैने वो आफ़त पहाड से नीचे फ़ेंक दी ! आप आराम से चलो अब चोर उचकों का भी डर नही !
ना रहा बांस ना बजेगी बाँसुरी !
और इस तरह गुरु मछिन्दर नाथ जी का भ्रम टुटा ! और वो वहां से वापस अपने धूने पर
पहुंच कर तप मे लीन हो गये !
सच है - मोह और माया अच्छे २ ज्ञानियों की बुद्धि भ्रष्ट कर देती है !
अब आगे एक दो कहानियां हम गुरु गोरखनाथ जी की लेंगे पर उन कहानियों का यहां से
कोई तार्तम्य नही है ! सब अलग २ हैं ! सो जैसे २ समय मिलेगा ! हम बाद मे कभी भी
उनको ले लेंगे !
मग्गाबाबा का प्रणाम !
गुरु मछिंदरनाथ वापस लौटे गोरख के साथ
Sunday, 7 September 2008 at Sunday, September 07, 2008 Posted by मग्गा बाबा
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8 comments:
7 September 2008 at 21:29
मग्गा बाबा, प्रणाम।
आपका यह सत्संग मुझे बहुत भा रहा है। इस प्रेरणादायक कथा के लिए आभार। सही बात है, मोह माया अच्छे अच्छे ज्ञानियों की बुद्धि भ्रष्ट कर देती है।
7 September 2008 at 21:53
सच बाबा, हम तो कृतार्थ हो गए। इस कथा को जानने के लिए मेरी बेताबी व्यर्थ नहीं गई। अब अगले अंक का इंतजार रहेगा। पर एक बात बताऍं-मग्गा बाबा है कौन? काल्पनिक नाम मालूम जान पड़ता है।
7 September 2008 at 21:56
बहुत ही सुन्दर कथा कही हे आप ने , ओर इस से शिक्षा भी अच्छी मिलती हे, लेकिन आज सभी इस आफ़त की पुडियां के बिछे पागल हो रहे हे, ओर मान सम्मन सब बेच रहे हे...
ध्न्य हो बाबा
राम राम
8 September 2008 at 00:27
मग्गा बाबा की जय!!!
आनन्द आ जाता है प्रवचन सुन कर.
बहुत आभार. कभी पॉडकास्ट भी कर दिजिये अपना प्रवचन.
8 September 2008 at 02:02
साँसोँ की माला पे
सिमरूँ मैँ राम नाम
यही एक सत्य है !
- लावण्या
8 September 2008 at 02:28
मग्गा बाबा की जय!
बहुत ही गहरी बात कही है इस प्रसंग में. जब गुरु गोरखनाथ जी के अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ जी भी माया के फेरे में आ सकते है तो आम लोगों का तो कहना ही क्या. संत कबीर ने ठीक ही कहा है -
"माया महा ठगिनी हम जानी"
8 September 2008 at 10:04
" bhut acche ktha hai, sach hee kha hai, moh maya hume chain se jene nahee daita or hum apne krtvey ke marg se bhtak jateyn hain, prernadayak ktha ke liye thanks"
Regards
14 September 2008 at 19:36
तर गये इस ज्ञान से!
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