गुरु कौन हो सकता है ?

आज साल २००८ का आखिरी दिन ! समय है लगातार बीतता जाता है ! जब भी कोई हमसे पूछता है कि क्या कर रहे हो ? हमारा स्वाभाविक जवाब होता है - यार टाईम पास कर रहा हूं ! जरा सोचिये .. हम टाईम को पास कर रहे हैं या टाईम हमे पास कर रहा है ! खैर सबके अपने अपने ख्याल हैं और अपनी २ जिन्दगी है !

अक्सर लोगो को आपने कहते सुना होगा कि वो आदमी मेरा गुरु है ! फ़िर कोई दुसरा आदमी उनका गुरु हो जाता है ! फ़िर तीसरा ! सुनने वाले भी अचरज मे पड जाते हैं कि आखिर ये मामला क्या है ? क्यों ये आदमी रोज कपडों की तरह गुरु बदल रहा है ?

आईये आज साल के अंतिम दिन इस विषय पर बात करें ! जिससे आपको भी इस विषय की जानकरी  हो सके ! असल मे कोई भी व्यक्ति हर विषय का यानि सम्पूर्ण जानकार नही हो सकता ! 


और कई बार किसी बहुत छोटे व्यक्ति मे भी कुछ गुरुत्व दिखाई पड जाता है और ज्ञानी वही है जो अपने से छोटे व्यक्ति से, भले ही वो उम्र और पद मे भी छोटा हो, उसको भी गुरु मानकर  उसके गुणों को आत्मसात कर लेता है !

आईये आपको एक कहानी की और लिये चलते हैं ! आशा है आप इस कहानी को टिपणी करने की दृष्टि से सरसरी तौर पर ना पढे बल्कि फ़ुरसत के समय आराम से पढकर इस पर मनन करें तो हमे बडी खुशी होगी कि आप आज साल के अंतिम दिन इस आश्रम से कुछ उपयोगी बात सीखकर जा रहे हैं !

एक सूफ़ी फ़कीर हुआ जुन्नैद ! उसने  कोई १० गुरु बताये हैं अपने ! जिन गुरुओ  से उसे ज्ञान प्राप्त हुआ ! आज उसके दस गुरुओं मे हम बात करेंगे उसके एक गुरु की जो शातिर चोर था ! आप चौंक रहे होंगे कि जुन्नैद जैसे पहुंचे हुये फ़कीर का गुरु और चोर ? जी हां, चौंकिये मत , मैं चोर ही कह रहा हूं ! 

बात उस समय की है जब जुन्नैद परमात्मा की खोज करते २ थक चुका था और उसका मिलना तो दूर बल्कि परमात्मा की कहीं आस पास होने की खबर भी नही थी उसको  ! वो अपनी झोले झंडे लेकर चला जारहा था और सोच रहा था कि अब इस परमात्मा की खोज ही बंद कर दूंगा !

उसको चलते २ सारा दिन हो गया ! रात शुरु हो गई और वो एक गांव के पास से गुजर रहा था ! तभी उसे एक व्यक्ती मिला और उसने जुन्नैद से कहा - फ़कीर साहब कहां जा रहे हो ?

फ़कीर - बस कोई ठोर ठिकाना नही है ! आगे जा रहा हूं !

वह व्यक्ति बोला - देखो महाराज ! आगे घना जंगल है और उसमे से होकर अब रात को जाओगे तो शेर चीते तुमको खा जायेंगे ! तो मेरी सलाह है कि अब आप रात को यहीं ठहर जाओ !

फ़कीर कुछ नही बोला ! फ़कीर को असमंजस मे देख कर वो व्यक्ति बोला - फ़कीर साहब , एक बात आप समझ लो कि इस गांव मे अब रात को कोई भी अपना दरवाजा तुम्हारे लिये नही खोलेगा क्योकि यहां सबके सब ज्ञानी हैं ! 

रात को चोर उच्चकों और जंगली जानवरों के डर से कोई दरवाजा नही खोलता और तुमको कोई भी जंगली पशु अपना शिकार बना लेगा ! और अब आगे तुम जानो ! मुझे क्या लेना देना ? मैने तो सही बात बता दी ! तुम सोचते हो कि कोई तुम्हे फ़कीर समझ के दरवाजा खोल देगा तो इस भूल मे मत रहना !

जुन्नैद कुछ समझता या बोलता उसके पहले ही वो व्यक्ति फ़िर बोला - और हां फ़कीर साहब, एक बात और सुन लो , फ़िर कल को कहोगे कि मुझे बताया नही था ! मैं हूं एक चोर ! और इसीलिये रात को आपको यहां बाहर मिल भी गया और कोई शरीफ़ आदमी तो इस समय घर के बाहर रुकता ही नही है !

अब आपको ये लग रहा हो कि एक चोर के यहां कैसे रुकुं फ़कीर होकर ? कैसे एक चोर के घर रोटी पानी करूं ,  तो तुम्हारी मर्जी ! मुझे देर हो रही है और मैं तो अब चला चोरी करने राजमहल की तरफ़ !

अब जुन्नैद को बडी जिज्ञासा हुई कि ये राजमहल मे जारहा है और वो भी चोरी करने ! तो वो उस चोर के घर ही ठहर गया ! चोर ने जुन्नैद को रोटी खिला कर कहा कि अब मैं तो चला राजमहल मे चोरी करने और आप आराम करो !

अब ये रोज का काम हो गया ! चोर दिन भर सोता और रोज रात होते ही चोरी करने चल पडता ! सुबह लौटकर जब वो आता तो जुन्नैद को अपनी सारी बात बताता कि मैं राजमहल के खजाने से इतनी दूर तक सेंध लगा चुका हू ! बस आज  तो मैं खजाने तक पहूंच ही जाऊंगा ! इस तरह दो महिने हो गये ! यही क्रम चलता रहा !

पर जुन्नैद ने देखा कि चोर के मन मे और आंखों मे आज भी वही चमक हैं सफ़ल होने को लेकर जो पहले दिन थी ! वो रोज असफ़ल हो कर लौट रहा था पर जब भी वो सूबह लौटता वो जुन्नैद से यही कहता बस आज की रात तो मैं खजाने का माल हथिया ही लूंगा ! कहीं कोई निराशा या हताशा नही !

अब जुन्नैद को भी सुबह उसके लौटने का इन्तजार रहता ! आखिर जुन्नैद को समझ आगया कि जब तक ये चोर खजाने को नही हथिया लेगा ये चुप नही बैठेगा ! उसकी आंखो की चमक और जोश दिन पर दिन कम होने की बजाए बढती  ही  जा रही थी ! 

फ़िर उसने खुद से कहा कि जब ये चोर होकर अपनी इच्छित वस्तु यानि तुच्छ से खजाने को पाने का अपना प्रयत्न नही छोड रहा है और मैं तो असली परमात्मा रुपी खजाने को पाने की तलाश मे इतनी जल्दी थक कर उसकी खोज छोडने की सोच रहा था !  
  
जुन्नैद इस घटना से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उसी समय उस चोर के पांव पकडे और गुरु स्वरुप उसे प्रणाम करके अपनी मंजिल की तरफ़ बढ गया और दुगुने उत्साह से परमात्मा की खोज मे लग गया !

असल मे सीखने की ललक हमारे अंदर होनी चाहिये ! इससे कुछ फ़र्क नही पडता कि सिखाने वाला कौन है ? सिखाने वाले का स्तर कुछ भी हो वो हमेशा प्रणम्य ही रहेगा और अगर हमे कुछ सीखना है तो इसी भावना से हम सीख सकते हैं ! सिखाने वाले के प्रति पुर्ण आदर भाव रखते हुये !

नव वर्ष की बधाई और मंगल कामनाएं ! ईश्वर आपको परिवार सहित २००९ मे सुख शान्ति और ऐश्वर्य दे यही मंगल कामना है !

मग्गाबाबा का प्रणाम !

अभिमान

तिरुवल्लुवर बडे संतोषी थे ! लोभ और क्रोध उनके आसपास भी नही था ! आजिविका चलाने के लिये वो कपडा बेचने का कार्य किया करते थे !

एक दिन एक सेठ के सामने लोगो ने तिरुवल्लुवर की प्रशन्सा कर दि कि वो बडे संतोषी जीव है और लोभ तो उनके पास फ़टकता नही है ! बस सेठ ने सोच लियी कि अब वो उनको गुस्सा भी दिला कर रहेगा और लोभी भी साबित कर देगा !

सेठ एक दिन बाजार मे उनके पास गया और कपडे का मोल पूछा ! उन्होने बताया एक रुपया

का एक गज ! सेठ ने बोला -  बहुत सस्ता बेच रहे हैं तो एक गज फ़ाड दो !

उन्होने एक गज फ़ाड दिया ! अब सेठ ने कपडा हाथ मे लेकर  उसके दो टुकडे करके पूछा - अब ये कितने का हो गया ? उन्होने कहा कि अब आठ आने का हो गया !

सेठ ने फ़िर उसका आधा आड के पूछा - तिरुवल्लुवर बोले - अब चार आने का !

इस तरह सेठ कपडे को आधा फ़ाडता गया और तिरुवल्लुवर भी उसका दाम आधा आधा करते गये ! जब कपडा बिल्कुल तार तार हो गया तो सेठ बोला - अरे संत जी महाराज मैने आपका बडा नुक्सान कर दिया ! लिजिये ये आपका एक रुपया ले लिजिये !

अब संत तिरुवल्लुवर बोले - सेठ्जी आपका यह रुपया मैने रख लिया तो आपका अभिमान ज्यों का त्यों बना रहेगा ! और अब ये कपडे के टुकडे आपके किसी काम के नही हैं ! मैं तो इनसे ऒढने बिछाने का कुछ बना लूंगा ! मेरे लिये अभी भी ये उपयोगी हैं !

बंधन और आजादी

सम्राट अकबर के निवेदन पर तानसेन ने अपने गुरु हरीदास जी के संगीत का आयोजन किया !

उनके साज और संगीत से बादशाह अकबर इतना मन्त्र मुग्ध हो गया कि उसने तानसेन से कहा - तानसेन , तू गाता तो वाकई बहुत बढिया है ! इसमे कोई शक नही ! पर जो बात तेरे गुरु के संगीत मे है वो तुझमे नही है !

 

अब तानसेन बोले - जहांपनाह , आप दुरुस्त फ़रमाते हैं ! और इसमे कोई आश्चर्य की भी बात नही है ! मैं बंधन मे हूं ! जब आपकी मर्जी हो मुझे गाना पडता है और गुरुदेव अपनी मर्जी से अपनी मौज से गाते हैं ! बस यही फ़र्क है !

मग्गा बाबा का चिट्ठाश्रम पुन: चालू



किसी भी काम को शुरु करने के लिये बोलना बंद करे और काम शुरु करे ! 


(गूगल बाबा ने इस ब्लाग को  बन्द कर दिया था , इस वजह से कोई पोस्टिंग   इतने दिन से नही हो पाई थी ! अब आज ब्लाग को उन्होने खोल दिया है ! अत: कोशीश रहेगी कि पहले की तरह चिट्ठाश्रम यथावत शुरु किया जा सके !)

मग्गाबाबा का प्रणाम !













धर्म का मर्म समझा सिर्फ़ द्रौपदी ने

महाभारत युद्ध की समाप्ति हो चुकने के बाद कृष्ण द्वारका प्रस्थान करना चाहते हैं !  अचानक वो आज का जाना स्थगित करके कहते हैं - आज कुरुवंश का सूर्य अस्त हुआ चाहता है ! वो पांडवो से कहते हैं की आज भीष्म पितामह के पास चलकर धर्म का मर्म समझ लेना चाहिए ! उनका अंत समय आ चुका है !


द्रौपदी सहित सभी पांडव और वहाँ  उपस्थित जन समुदाय वहाँ पहुँच कर पितामह के पास खडे हैं ! कृष्ण कहते हैं - पितामह देखिये कौन आया है ? सभी लोग आपसे धर्म का मर्म जानना चाहते हैं !


पितामह कहते हैं - हे श्री कृष्ण अच्छा हुआ आप आगये ! मैं अब आपका ही इन्तजार कर रहा था ! और आप तो साक्षात धर्म ही हैं ! मैं आपके सामने भला क्या धर्म का मर्म बता सकता हूँ ? मेरे पुरे शरीर में दुर्योधन के खाए हुए अन्न से जो लहू बना था वो इस शर शैया पर लेटे २ , बूंद बूंद कर निकल चुका है ! मेरे शरीर में असहनीय पीडा है ! और मैं पुरी तरह से अशक्त हो चुका हूँ ! बोलने में भी बड़ी पीडा हो रही है ! आप ही धर्म का मर्म समझाये !


श्रीकृष्ण ने आगे आकर पितामह के पुरे शरीर पर हाथ फेरा ! और उनके स्पर्श मात्र से पितामह के शरीर में हरकत हुई और वो अत्यन्त स्फूर्ति महसूस करने लगे ! तब उन्होंने धर्म का मर्म समझाया जो की काफी समय तक की चर्चा में समझाया गया ! पर लुब्बे लुआब ये की सत्य हमेशा सत्य होता है ! भले कड़वा हो पर सत्य खरा कुंदन है ! और किसी भी  प्राणी से वो व्यवहार मत करो जो तुम्हे अपने लिए ना पसंद हो ! यही था धर्म का मर्म !


जिस समय पांडव धर्म का मर्म समझ रहे थे उस समय पीछे से अश्वथामा ने जो किया वो आप पीछे पढ़ चुके हैं ! वापस लौट कर पांडव शिविर में कोहराम मचा हुआ था ! आप कल्पना कर ही सकते हैं की जिस औरत के पाँच पुत्र एक साथ काल कवलित हो गए हों उसकी क्या मनोदशा हो रही होगी ?


अचानक अर्जुन बोले - मुझे मालुम है ये किसका काम है ? पांचाली , तुम धैर्य रखो !
जो भी तुम्हारा गुनाहगार है मैं उसे तुम्हारे सामने लाकर उसका सर धड से अलग करूंगा !
अब कौरवों में सिवाए गुरुपुत्र अश्वथामा के कोई नही बचा है ! और ये कार्य सिर्फ़ उसी का है ! और किसी का नही ! और अर्जुन अपना गांडीव उठा कर चलने लगे !


अश्वथामा को मैं आकाश पाताल या कहीं पर भी हो , आज द्रौपदी के सामने लाकर उसका सर काटूंगा !


कृष्ण बोले - भैया अर्जुन मैं भी आपके साथ ही चलता हूँ!

अर्जुन - हे वासुदेव , आप क्या करेंगे ? अश्वथामा कोई इतना बड़ा वीर नही है जो आपकी जरुरत लगेगी ? और वो तेजी से बाहर निकल गया ! पर वासुदेव कृष्ण भी उसी के पीछे पीछे लग गए  !


अश्वथामा उसी जलाशय के आसपास अर्जुन को दिख गया ! अर्जुन ने जाकर उसकी बड़ी बड़ी शिखाओं से पकड़ लिया और घसीटते हुए लाने लगे ! इतने में कृष्ण ने इशारा किया की इसका सर यहीं धड से अलग करदे ! पर अर्जुन मना कर देता है ! 


अर्जुन को श्री कृष्ण ने बहुत समझाया की इसका यहीं पर काम तमाम कर दे ! पर अर्जुन बोला - की नही ! मैंने पांचाली को वचन दिया है ! मैं उसके सामने ही इसका सर काटूंगा !


इधर जैसे ही अश्वथामा को घसीटते हुए अर्जुन वहाँ पहुंचा तो द्रौपदी उसका घसीटा जाना देख कर दूर से ही चिल्लाकर बोली - आर्यपुत्र इसे छोड़ दीजिये !


अर्जुन बोला - यही है तुम्हारे पांचो पुत्रो का हत्यारा !

द्रौपदी - नही आर्यपुत्र , ये गुरुपुत्र है ! और गुरुपुत्र वध करने के लायक नही होता ! इसे अविलम्ब छोड़ दिया जाए !


इस पर युधिष्टर जो साक्षात धर्मराज का अवतार थे - उन्होंने कहा की ये बाल ह्त्या का दोषी है इसे मृत्युदंड दिया ही जाना चाहिए ! और वहाँ उपस्थित सभी ने अश्वथामा को मृत्युदंड दिए जाने की सिफारिश की !


अब द्रौपदी बोली - कल ही तो पितामह ने हमको धर्म का मर्म समझाया था की दुसरे के साथ वह व्यवहार मत करो जो तुम्हे अपने लिए पसंद ना हो  ! और आज ही भूल भी गए ? अरे पुत्र वियोग  की पीडा क्या होती है ? ये मुझसे अच्छी तरह और कौन जान सकता है ? मैं नही चाहती की माँ कृपी ( अश्वथामा की माता ) भी उस शोक को प्राप्त हो जिसे मैं भुगत रही हूँ ! अरे उनका इस अश्वथामा के अलावा अब इस दुनिया में बचा ही कौन है ? गुरु द्रौणाचार्य भी वीरगती को प्राप्त हो चुके हैं !


अब द्रौपदी ने बड़े ही तेज स्वर में कहा - आर्यपुत्र, आप  तुंरत गुरु पुत्र को छोड़ दे !


अब अर्जुन  क्या करे ? उसको कृष्ण की बात का मतलब अब समझ आया की वो क्यों उसका सर वहीं काटने का कह रहे थे ! पर अब अर्जुन की प्रतिज्ञा का क्या हो ? वो तो हत्यारे का सर काटने की प्रतिज्ञा कर चुका था !


तब कृष्ण बोले - अर्जुन,  अश्वथामा  ब्राह्मण है,  और ब्राह्मण की अगर शिखा ( चोटी ) काट दी जाए तो भी उसकी मृत्यु के बराबर ही है ! अत: अब तुम इसकी सिखा काट दो और इसके माथे की अमर मणी निकाल कर इसको भटकने के लिए छोड़ दो ! यूँ भी ये अमरता का वरदान प्राप्त है ! और अर्जुन ने ऐसा ही किया !


इसी लिए कहा जाता है की धर्म का मर्म तो सबने ही सुना था पर उसका पालन सिर्फ़ द्रौपदी ने ही किया ! धन्य हो द्रौपदी !


अब श्रीकृष्ण बोले - काफी समय हो गया अब मैं द्वारका के लिए प्रस्थान करूंगा ! रथ तैयार खडा था ! तब उन्होंने कहा की मैं बुआ कुंती से मिलकर आता हूँ ! वो अन्दर कुंती से आज्ञा लेकर गांधारी से मिलने गए !


गांधारी को प्रणाम किया तो गांधारी बोली- कृष्ण , आज मैं सब कुछ खोकर जिस हालत में हूँ , अगर तुम चाहते तो ऐसा नही होता ! इस पृथ्वी पर वर्तमान में ऐसा कोई नही है जो तुम्हारी बात का उलंघन कर सके ! तुम चाहते तो युद्ध रुक भी सकता था ! पर शुरू से ही तुम्हारी नियत में खोट था ! मैं आज ये दिन नही देखती !


मैं तुझे श्राप देती हूँ की जिस तरह मेरा कुल निर्मूल होकर खत्म हो गया ! उसी तरह से तुम्हारा कुल यदुवंश भी निर्मूल समाप्त हो जाए !


श्री कृष्ण बड़े संयत भाव से सुनते रहे और बोले - माते , मैंने तो आपके श्राप  देने से पहले ही मेरे कुल को ठिकाने लगाने का इंतजाम कर दिया था ! फ़िर आपने  क्यूँ नाहक श्राप देकर अपना तपोबल क्षीण किया ?


और श्री कृष्ण वहाँ से द्वारका के लिए रवाना हो गए ! द्वारका में नई महाभारत तैयार ही थी !


मग्गाबाबा का प्रणाम !

अश्वथामा ने द्रौपदी के पांचो पुत्रो के सर काटे

दुर्योधन की जंघा भीम द्वारा तोड़ दी गई ! अब इसका कुछ मतलब नही है की छल या बल कैसे तोडी गई ! दुर्योधन पानी को बाँधने की कला जानते थे ! सो वो जिस ताल के समीप गदायुद्ध चल रहा था उसी ताल में घुस गए और पानी को बाँध कर छुप गए !


असहनीय मानसिक और शारीरिक पीडाओं से गुजरते हुए ! वहाँ एक यक्षिणी द्वारा उनसे सहानुभूति दिखाने पर भी उस समय उन्होंने उसका प्रणय निवेदन स्वीकार नही किया ! और ये तो उस चंचला यक्षिणी की भूल थी ! क्या मौत के मुंह में जाता हुआ इंसान प्रेम मुहब्बत कर सकता है ?

दुर्योधन के पराजय होते ही युद्ध में पांडव विजय सुनिश्चित हो चुकी थी ! सभी पांडव खेमे के लोग विजयोंमाद में मतवाले हो रहे थे ! और आख़िर हो भी क्यूँ ना ? विजय आख़िर विजय होती है !

इधर दुर्योधन के पास अश्वथामा आता है ! और वो कहता है, हे कुरु श्रेष्ठ ! आप यह मत सोचना की हम युद्ध हार चुके हैं ! मेरे जिंदा रहते यह असंभव है ! आप मुझे सेनापति नियुक्त कीजिये !मुझे अमरत्व का वरदान प्राप्त है ! अब युद्ध का सञ्चालन मैं करूंगा ! और आपको इस युद्ध में विजयश्री मैं दिलवाउंगा !

दुर्योधन के चहरे पर एक बार फ़िर चमक सी उठती है ! सो दुर्योधन ने अपने रक्त से अश्वत्थामा के ललाट पर टीका लगा कर उसे सेनापति नियुक्त कर दिया !

अब कौरव सेनापति थे अश्वथामा ! अश्वथामा बोला - कुरुनन्दन ! मैं आज ही पांचो पांडवों के सर काट कर आपके कदमो में चढा दूंगा ! और दुर्योधन की आँखें एक बार फ़िर चमक उठी !

अश्वथामा वहाँ से निकल कर सीधे द्रौपदी के शिविर में आता है ! रात शुरू हो चुकी थी ! शिविर में विजयोंमाद छाया हुआ था ! उसको किसी ने नही रोका ! क्योंकि युद्ध तो समाप्त ही हो चुका था ! सो पहरे वगैरह सब ढीले कर दिए गए थे ! अन्दर शिविर में द्रौपदी के पांचो कुमार सोये हुए थे !

द्रौपदी को प्रत्येक पांडव से एक एक पुत्र था ! और हर पुत्र अपने पिता की हुबहू कार्बन कापी था ! पांचो कुमार बिल्कुल अपने पिता की तरह पांडव होने का ही भ्रम उत्पन्न करते थे ! पहचानना मुश्किल की पिता है या पुत्र !

अश्वथामा ने पांचो सोते हुए कुमारो के सर काट लिए और वहाँ से निकल भागा ! द्रौपदी के शिविर में अभी तक किसी को कुछ ख़बर नही ! और अश्वथामा आगया ताल में छिपे हुए दुर्योधन के पास !

आकर बोला - हे मित्र आज मेरा कलेजा ठंडा हो गया ! आज मैंने मेरे पिता की ह्त्या का बदला भी ले लिया और तुम्हारा ऋण भी उतार दिया ! लो पकडो ये पांचो पांडवो के सर ! और उसने वो मुंडो की पोटली दुर्योधन के पास खिसका दी !


अत्यन्त हर्ष और आवेश में दुर्योधन ने भीम का नरमुंड हाथ में ले लिया और अट्टहास कर उठा ! फ़िर और आवेग में आते हुए उसने भीम का मुंड दोनों हथेलियों में लेकर गुस्से में जोर से दबाया ! अरे ये क्या हुआ ? जरा सा जोर लगाते ही सर तरबूज की तरह फूट गया ! बिजली की गति से सारा माजरा उसकी समझ में आगया !

सर के पिचकते ही दुर्योधन ने माथा पीट लिया और चिल्लाकर पूछा - अरे दुष्ट अश्वथामा ये तूने क्या किया ? अरे ये भीम नही हो सकता ! क्या भीम का सर इस तरह मेरी हथेलियों से तरबूज की तरह फूट सकता है ?

जिस भीम पर मैं जब दो सो मन की गदा से प्रहार करता था तब गदा पलट कर अपने आप वापस आ जाती थी ! ये भीम नही हो सकता ! अरे चांडाल सही बता ! कहीं ये भीम और दौपदी का कुमार तो नही है ?

अब अश्वथामा ने बताया की वो पांडवो के द्रौपदी वाले शिविर में गया था और उन पांचो को पांडव समझ कर उनके सर काट लाया था !

अब दुर्योधन असहनीय पीडा से बोला - अरे चांडाल गुरु पुत्र अश्वथामा ! ये क्या किया तुने ? अरे हमारे वंश को ही तुने तो निर्मूल कर दिया ? ये आखिरी निशानी थे जो हमारे वंश को आगे बढाते ! तुने तो सब कुछ बरबाद कर दिया !

अरे दुष्ट चांडाल , दूर हो जा मेरी नजरो से ! और इस महाबली गदाधारी ने बड़ी पीडा पूर्वक अपने प्राण त्याग दिए !

उधर द्रौपदी के शिविर में कुमारो के सर कटे धड पाये जाने पर हां हां कार मचा हुआ था ! द्रौपदी दारुण विलाप कर रही थी ! कृष्ण, और पांचो पांडव किकर्तव्यविमुढ बैठे थे !

और सब यह सोच रहे थे की आख़िर अब कौन सा योद्धा बच गया जो ये कारनामा कर सकता था ? अचानक अर्जुन खडे हो गए और बोले --

मग्गाबाबा का प्रणाम !

राज्य प्राप्ति के लिए गांधारी और कुंती द्वारा शिव-पूजन

कृष्ण निराश होकर लौट चुके हैं ! संधि प्रस्ताव असफल हो चुका है !   महाभारत का  युद्ध टालने की सारी  कोशीसे जब बेकार साबित हो गई तो अब सिवाय इसके कोई चारा नही बचा कि युद्ध की तैयारियां की जाये ! प्रत्येक आदमी अपने अपने स्तर पर मशगूल हो गया ! अब कोई भी उपाय नही बचा कि इस विभीषिका से बचा जा सके ! गांधारी और कुंती भी अपने २ स्तर पर तैयारियों में सलंग्न हो गई !


shiv दोनों ही , गांधारी और कुंती,  राजमहल के पिछवाडे दूर जंगल में बने शिव मन्दिर में राजोपचार विधि से, अपने अपने  पुत्रो को राज्य दिलवाने की कामना से  शिव पूजन करने लगी ! कुछ दिन पश्चात भगवान् भोलेनाथ दोनों पर ही प्रशन्न हो गए और वर मांगने के लिए कहा ! दोनों ही माताओं ने अपने अपने पुत्रो के लिए राज्य माँगा ! 


भगवान् शिव बोले - यह असंभव है ! राज्य एक है तो दोनों को नही मिल सकता ! एक काम करो एक पक्ष राज्य लेलो और दूसरा मोक्ष लेले ! आप लोग आपस में निर्णय कर लीजिये !


gandhari & kunti

इस पर गांधारी बोली - शिवजी महाराज , मैं मोक्ष लेकर क्या करूंगी ? अब कोई ५/७ पुत्र हो तो मोक्ष भी लेलू ! पुरे एक सैकडे के ऊपर मेरे पुत्र हैं ! और अब कहाँ मोक्ष के चक्कर में भीख माँगते फिरेंगे ? और मेरे पुत्रो को शुरू से ही राज्य करने की आदत रही है ! बिना राज्य के इतने बड़े कुनबे का पालन पोषण नही हो सकता ! आप एक काम करिए की राज्य तो मेरे पुत्रो को  दे दीजिये और मोक्ष इनको दे दीजिये ! इनको जंगलो में भटकने की आदत भी है ! कोई ज्यादा परेशानी भी इन्हे नही होगी !

 

अब कुंती बोली - भोलेनाथ , इनके पुत्रो ने हमेशा राज्य किया है अब थोडा बहुत राज्य सुख मुझे और मेरे पुत्रो को भी मिलना चाहिए ! इसके बेटो ने तो सब सुख देख लिया अब इन्हे मोक्ष और मुझे मेरे बेटो के लिए राज्य दीजिये भगवन !


भोले नाथ ने उन दोनों को काफी समझाया पर विवाद और बढ़ता चला गया ! अब भोले बाबा भी अपनी वाली पर आगये और उन्होंने व्यवस्था दे दी की ठीक है ! जब तुम दोनों ही मानने को तैयार नही हो तो अब वरदान सशर्त कर देता हूँ ! अब कल के   अरुणोदय से पूर्व जो भी हाथी पर बैठ कर आयेगी  और एक हजार स्वर्ण कमलो से मेरा अभिषेक करेगी उसी को राज्य मिलेगा ! और इतना कह कर बिना कुछ सुने ही शिव बाबा वहाँ से अंतर्धान हो गए !


गांधारी ने आकर दुर्योधन को बताया और दुर्योधन ने सारे सुनारों को लगा दिया स्वर्ण कमल बनाने में और हाथियों की कोई कमी नही थी ! यानी गांधारी को कोई समस्या ही नही थी !


कुंती ने सोचा - भोले बाबा भी समर्थ की ही सहायता करते हैं ! भोले बाबा को मालुम है की मेरे पास एक हजार स्वर्ण कमल तो क्या एक का भी जोगाड़ नही है और हाथी तो क्या हमारे पास गधा भी नही है फ़िर इस शर्त का क्या मतलब ! सीधे कह देते की राज्य गांधारी का ! इसी तरह मन में क्षोभ-विक्षोभ उठ रहे थे की इतने में अर्जुन आ गए ! अर्जुन ने माँ से उदासी का कारण पूछा तब माँ ने सारा किस्सा बताया ! अर्जुन ने माँ से कहा - माँ आप आराम से अब शयन करो ! कल सुबह आप निर्धारित समय पर यह पूजा करने जा रही हो ! कुंती उसके मुंह की तरफ़ देखने लगी !

  

arjun और फ़टाफ़ट भाई भीमसेन जी को पुकारा ! अर्जुन बोले - भीम भाई साहब , आप इसी समय मेरा पत्र लेकर तुंरत इन्द्रलोक के लिए प्रस्थान करिए ! मैं एक चिठ्ठी आपको लिख के दे रहा हूँ ! एक पल भी समय बरबाद मत करना ! एक एक पल कीमती है ! किसी द्वारपाल वगैरह या प्रोटोकोल में मत उलझना ! सीधे इन्द्र के हाथ में यह पत्र देना और इन्द्र का ऐरावत हाथी लेकर आज आधी रात से पहले लौट आना ! और मैं इसी समय  अलका पुरी जाकर कुबेर से  एक हजार स्वर्ण कमल लेके आरहा हूँ ! और भ्राता श्री भीम आपसे निवेदन है की आप रास्ते में कहीं भी खाने पीने के लिए मत रुक जाना ! आज आप  भोजन भजन पर  कृपा ही रखना ! हमारे लिए एक एक पल इस समय कीमती है !

 

 

अब अर्जुन ने फ़टाफ़ट पत्र लिखना शुरू किया :-


indra111 स्वस्ति श्री सुरनाथ  तावक पदाम्भोज प्रणम्या दरात !

किन्चितप्रार्थयते प्रकाममसकृत पाण्डो स्तृतीय: सुत:!!

मातुर्वान्छ्ती पूर्तये निजगज: साल्न्कृति  प्रेष्यताम  ! 

नो चेद युद्ध रसाभिभाव विधिना तूर्णं समागम्यताम !!


                  अर्थात :-


स्वस्तिश्री देवराज इन्द्र के चरणकमलों में पांडव के तृतीय सुत अर्जुन का साष्टांग प्रणाम ! आपकी सेवा में थोडा सा निवेदन है पर मेरे लिए काम बहुत बड़ा है ! मेरी माता की इच्छा पूर्ति के लिए आपके ऐरावत हाथी को ( कुछ देर के लिए , सदा के लिए नही ) सजा कर भेज दें ! अगर नही भेजा तो हमको विवश होकर आपके विरुद्ध कड़वा निर्णय भी लेना पड़ सकता है !


यह लिखने के बाद जब अर्जुन ने देखा की पत्र कुछ ज्यादा ही कड़क और  अतिशयोक्ति पुर्ण लिखा गया और  उस समय में एक बार हाथ से लिखे गए को काट कर लिखना मुर्खता समझी जाती थी ! तो नीचे यह श्लोक फ़िर से लिख दिया !


            लिखितमभयतद    चिन्तनियं चिरेण !
            सुर गुरु    सहितेन   श्रीमतातदेतत !!
            न भवतु परिणामो  दुस्कृतोयेन  पक्ष !
            द्वयमपि सदृशंमे  श्रीश:  पादाब्जभाज: !!


                      अर्थात :-


जो कुछ ऊपर लिखा है उसको शांतचित से पढ़ना ! अगर मतिभ्रम हो तो देवगुरु बृहस्पति से सलाह लेना ! जल्दबाजी में निर्णय लेने से परिणाम दोनों ही पक्षों के लिए दुःख:दायक हो सकता है ! हम श्रीकृष्ण की कृपा से हाथी को युद्ध करके ले जाने में  भी सक्षम हैं !


पत्र लेकर भीमसेन जी तुंरत पहुँच गए इन्द्रलोक में ! और सीधे जा पहुंचे इन्द्रसभा में ! उन्होंने ना किसी द्वारपाल की सुनी ना किसी और की ! उनको तुंरत लौटने की हडबडी भी थी और समय उनके पास था नही ! और प्रोटोकाल के लिए समय बरबाद करने की मनाही कर दी गई थी ! तो सीधे  जा धमके इन्द्र महाराज के सामने ! और उनका हाथ पकड़ कर पत्र उनके हाथ में रख कर बोले - बता तेरा ऐरावत हाथी कहाँ है ? मैं अभी उसको लेजाने आया हूँ ! मेरे पास समय नही है ! 


इन्द्र तो आग बबूला हो गए ! कौन बदतमीज है ये ? फ़िर कुछ उलटा सीधा बोला ही चाहते थे की सोचा -   पत्र खोल कर ही देख लूँ ! क्या पता कौन हो ? पत्र की भाषा देख कर तो वो और आग बबूला हो उठे ! उन्होंने सोचा - ये तो मजाक बना रखी है इन्होने ! इन्द्र का हाथी नही हुआ कोई गाय बकरी हो गई ! चले आए मुंह उठाये ! फ़िर उन्होंने सोचा ये पहलवान छाप आदमी है इसे पहलवानी के बजाये अक्ल से निपटा लेते हैं ! और पत्र की भाषा को मन में तौल कर भी उलझने की इच्छा नही हुई ! क्योंकि सामने वाले ने श्रीकृष्ण और देवगुरु तक के नाम लिख रक्खे थे !


अब टालने की गरज से इन्द्र बोले - भीम सिंह जी , बात ये है की आज हमारे हाथी ऐरावत का ड्राईवर ( महावत ) नही आया है ! सो कैसे ले जाओगे ? आप आज रुक जावो मैं महावत को ख़बर करवाता हूँ फ़िर लिए जाना ! अब इन्द्र को मालुम था की महावत आयेगा नही तो ये कहाँ से ऐरावत ले जायेगा ?  ख़ुद ये ले जा नही सकता ! ऐरावत को वश में करना हर किसी के बूते की बात भी नही है ! ऐरावत जब पाँच सुन्डो से फुफकारता है तो अच्छे २ हवा में उड़ जाते हैं ! फ़िर भीम सिंह की तो ओकात ही क्या ? 


अब भीम सेन जी बोले - मुझे बिल्कुल भी समय नही है ! आप तो मुझे बताईये की ऐरावत कहाँ है ? बाक़ी ले जाने की चिंता आप मत करो ! वो लेजाने का काम मुझ पर छोडिये ! मुझे उसे लेजाने के लिए ही भेजा गया है ! अब इन्द्र ने उनको बता दिया की वो खडा है ऐरावत ! अब ऐरावत कितना खतरनाक हाथी है यह तो सब जानते ही हैं !


भीमसेन जी गए ऐरावत के पास ! और उसकी आगे की दोनों टाँगे दांये हाथ से पकडी और बांये हाथ से पीछे की दोनों टाँगे पकड़ कर, बकरी के बच्चे की तरह  अपनी गर्दन के पीछे कंधो  पर रख लिया और चल पड़े ! अब जैसे ही इन्द्र ने ये सब देखा उनकी तो साँसे ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह गई ! इन्द्र ने सोचा की ये तो ऐरावत की सारी इज्जत ख़राब कर देगा ! और समझ लिया की ये कोई साधारण वीर नही है ! इसको इज्जत पूर्वक हाथी देना ही पडेगा ! फ़िर उन्होंने कहा - हे वीर शिरोमणी  आप रुकिए  बस एक सैकिंड ! महावत आगया है ! आनन् फानन में आपको ये गंतव्य तक पहुंचा देगा ! और तुंरत भीमसेन जी समय रहते हाथी लेकर आगये !


shiv-temple और उधर अर्जुन कमल लेने अलका पुरी कुबेरजी के पास जा धमके  !  उन्होंने कुबेर जी से पहले निवेदन किया और बताया की किस प्रयोजन से चाहिए ? कुबेर को जब से रावण दादा ने लंका से बेदखल किया था तब से ही वो अलकापुरी में रह रहे थे और किसी से भी उलझते नही थे ! सो उन्होंने अर्जुन को कहा - हे कुंती  नंदन अर्जुन, आप इसी वक्त लौट जाए और चिंता नही करे ! आप पूजा की दूसरी तैयारियां देखे  !  आपके पहुँचने से पहले एक हजार तो क्या ? मैं पुरे शिव मन्दिर को ही स्वर्ण कमलो से ढांक दूंगा ! ऊपर से नीचे तक ! और वो भी सुगंध वाले स्वर्ण कमलो  से ! शंकर जी ख़ुद ही गिनती लगाते रहेंगे की कितने लाख स्वर्ण कमल से उनकी पूजा हुई ! और अर्जुन निश्चिंत होके लौट आए !   


कुंती ने समय रहते  ऐरावत पर सवार होकर पहले पहुँच कर पूजा संपन्न कर वरदान प्राप्त कर लिया ! इधर  हाथी पर सवार होके और एक हजार छोटे छोटे मानव निर्मित स्वर्ण कमल लेके   जब  गांधारी पहुँची तो सामने शिव-मन्दिर स्वर्ण कमलो से ढंका पडा था !   मालुम पडा की माता कुंती पूजा करके लौट चुकी हैं !

मैंने लंका नही जलाई : पवनपुत्र

ram-hanu अक्सर किसी भी सफलता के बाद बड़े बड़े वक्तव्य आते हैं स्व-प्रसंशा में ! जैसे आपने देखा होगा की महाभारत में विजयी होने के बाद पांडव भी इसी अतिरेक और गर्व में थे ! भीम अपनी गदा और अर्जुन अपने गांडीव को सारा श्रेय देने में लगे थे और भगवान् कृष्ण ने उनकी ओकात याद दिलाने को उस परम वीर बर्बरीक से निर्णय लेने का कहा था !


इसी तरह जब हनुनान जी माता सीता जी की ख़बर लेकर और लंका जलाकर सकुशल लौट आए तो श्रीराम के खेमे में बड़ा उत्साह और खुशी का माहौल था ! सब एक दुसरे से हँसी मजाक कर रहे थे ! महाराज  सुग्रीव, जाम्बवंत जी, हनुमान जी आदि प्रमुख सेना नायक भगवान राम  और लक्ष्मण जी के साथ बैठे थे ! और हँसी मजाक चल रहा था !


अब आप आर्श्चय चकित होंगे की इन लोगो के बीच हँसी मजाक चल रहा था ? कहीं मग्गाबाबा का माथा तो खराब नही हो गया ! असल में आपका दोष नही है ! भगवान की छवि भी हमारे दिमाग में एक उदास और लटके चहरे वाले की बना दी गई है, इन तथाकथित मर्यादावादियो ने !


अरे क्या भगवान सिर्फ़ मुंह लटकाने के लिए ही जन्म लेते हैं ? अरे  भाई भगवान कोई डरने की चीज नही है जो कई लोग आपको कहते मिलेंगे " I am God fearing man/woman.   क्यो डरते हो भगवान से ? ईश्वर तो प्रेम है ! उससे प्रेम करो ! अगर डरते हो तो तुम जरुर कोई गलत काम करते हो !


हम एक बार किसी के ब्लॉग पर जिज्ञासा वश भ्रमण कर रहे थे की उस  ब्लॉग पर किसी नए ब्लॉगर सज्जन ने लक्ष्मी जी की आरती की बड़े सुंदर ढंग से पैरोडी की हुई थी ! कुछ गलत नही था ! आप में साहस और निडरता है तो ही आप भगवान से मजाक भी कर सकते हैं ! भीरु  लोग क्या मजाक करेंगे !


फ़िर वहाँ एक मर्यादावादी की सस्नेह टिपणी दिखी " भगवान से इस तरह के मजाक नही करने चाहिए"  ये अच्छी  बात नही है ! अगर आपको लिखना ही है तो और विषय भी बहुत हैं ! लो बोलो ! अब विषय भी ये तय करेंगे !

 

और एक मर्यादावादी तो पिछले सप्ताह ही हमको भी ज्ञान प्रदान कर गया ! हमारी पोस्ट "देवराज इन्द्र ने छलपूर्वक कर्ण से कवच कुंडल लिए" पर --- नहीं इस प्रकार की कहानियों से भगवान के किस रूप को दिखाने की चेष्‍टा की गयी है ? --- अब बताईये ! हम क्या रूप दिखायेंगे ! इनको ये भी पता नही की क्या कह रहे हैं ? यहाँ किसी भगवान के दर्शन करवाने की ख़बर इनको कहाँ से मिल गई, की मग्गाबाबा ने भगवान को पिंजरे में बंद कर लिया है और लोगो को टिकट लेकर दिखा रहा है ! बहुत शर्मनाक बात है ये !


अब इसका कोई ओचित्य है क्या ? ये लोग पढेंगे लिखेंगे कुछ नही ! बस अपनी पोने दो अक्ल  लगाने कि इनको  पडी रहती है !


अब आप पूछेंगे की बाबाजी डेढ़ अक्ल लगाना तो सुना था ! अब  ये पोने दो अक्ल  क्या है ? तो आज बता ही देते हैं की ये अक्ल का फ़न्डा क्या होता है ! क्योंकि ऎसी बातो के लिए अक्ल लगाने की अक्ल भी हमें कभी कभी ही आती है !


कहते हैं की भगवान ने अक्ल बांटने का दिन घोषित किया हुवा था ! सो ये मर्यादावादी सबसे पहले उठ कर गए और लाइन में सबसे आगे खडे हो गए ! स्वाभाविक था की भगवान ने पहले ही कह दिया था की अक्ल का कुल जमा स्टाक २ किलो का है ! और फर्स्ट कम फर्स्ट सर्व बेसिस पर अलोटमेंट होगी ! चूंकी ये आगे खड़े थे सो इन्होने कहना शुरू कर दिया की दो में से डेढ़ अक्ल भगवान ने हमको दे दी और बाक़ी आधा किलो सारे जीवों को बाँट दी ! इस लिए ये कहावत चली डेढ़ अक्ल वाली !


अब काफी समय हो गया सो इन डेढ़ अकलों को भी शरीफ लोग झेलने के आदी हो गए ! फ़िर शुरू हो गया ब्लागिंग का कारोबार ! सो यहाँ के मर्यादावादी कुछ ज्यादा ही फटे में टांग अडाते हैं और चूंकी फटे में टांग अडाना डेढ़ अक्ल से नही हो सकता ! क्योंकि ब्लागिंग दूसरा भी कोई इतना कमजोर नही है ! वो भी छाती में बाल रखता है ! तो सारी समस्या खडी हो गई ! और इन मर्यादावादियो ने भगवान के नाक में दम कर दिया !


इनसे परेशान हो कर और  हार थक कर फ़िर भगवान जी ने अक्ल अलोटमेंट का दिन घोषित कर दिया ! और वही हुआ ! मर्यादावादी  फ़िर लाइन में आगे थे और अबकी बार ये झटक लाये दो में से पोने दो अक्ल ! बाक़ी सारी दुनिया को मिली पाव अक्ल ! सो इन पोने दो अक्लो से आप कहाँ तक बचेंगे ? इसलिए आज कल कहावत बदल लीजिये अब डेढ़ अक्ल नही लगाई जाती अब पोने दो अक्ल लगाई जाती है !


भाई खूब हंसो , खूब गाओ ! यही जीवन है ! रोते गाते काटने के बजाये हंस गाकर जिन्दगी गुजार लो ! अगर तुम सही में मर्यादावादी हो तो ओढ़ने की और ढोंग करने कि जरुरत नही हैं !  भगवान राम भी इस लिए मर्यादावादी पुरुषोत्तम कहलाये थे कि वो इन मर्यादावादियो कि तरह दुसरे को शिक्षा नही देते थे बल्कि उन्होंने स्वयं वैसा जीवन जीकर दिखाया ! इसलिए वो  मर्यादा पुरुषोत्तम  राम थे !


आपके इन मर्यादावादियो की तरह उन्होंने प्रपंच नही  किया ! जीवन में जितना झूँठा ढकोसला करोगे उतनी ही ज्यादा तकलीफ उठाओगे ! ये पका समझ लेना ! इसलिए हलके होकर जीओ ! ढकोसला मत पालो ! फ़िर देखो , तुम्हारे जीवन में बहारे आ जायेगी ! निर्भार हो जाओगे ! मत पालो इन मर्यादावादियो की फ़िक्र ! ये तो जलने के लिए पैदा हुए हैं इनके भाग्य में यही है ! इनको जलने दो ! 


इन के चक्कर में कहानी ही रह गई थी ! हाँ तो वहाँ श्रीराम ने हंसते हुए हनुमान जी से पूछा -पवन पुत्र, आपने बड़ा ही सुंदर कार्य करके मुझ पर उपकार किया है !


हनुमान - नही प्रभु ! मैंने कुछ नही किया ! ये सब आपकी कृपा थी !


श्रीरान - भाई हनुमान , तुम्हारे परम मित्र जाम्बवंत जी कह रहे हैं कि तुमने लंका जलादी ?


हनुमान - नही प्रभु, मैंने लंका नही जलाई !


श्रीराम - ये क्या कह रहे हो पवन सुत ? आप झूँठ कबसे बोलने लग गए ? सारी दुनिया में ढिंढोरा पिट चुका है कि रावण की लंका पवन पुत्र ने जला कर ख़ाक करदी और आप कह रहे हैं कि मैंने नही जलाई ? आख़िर माजरा क्या है  पवनसुत ?   हमें भी तो बताइये कि आपको झूँठ बोलने की क्या जरुरत पड़ गई ?


हनुमान बोले - हे श्रीराम , आपको मुझ पर पुत्रवत प्रेम है ! और पुत्र की बदमाशियां भी अच्छी लगती हैं ! असल में पिता अपने पुत्र पर उपरी दिखावे के लिए ही नाराज होता है ! वरना तो पुत्र की जायज नाजायज सब हरकत और उसका छोटा काम भी बड़ा लगता है !


भगवान श्रीराम मुस्करा दिए और कहा - हनुमान आगे भी कुछ बताओगे या भाषण ही पिलाओगे ?


हनुमान जी बोले - परभू इस संसार में इतना बलशाली और हिम्मत वाला कोई नही है  जो दशानन रावण की लंका जला सके ! फ़िर मेरी तो ओकात ही क्या ? दसकंधर जितना अकलवान जब लंका जैसा दुर्ग बनवाता है तो फायर प्रूफ पहले करवाता है !


अब श्रीराम चोंके और बोले - पवन सुत साफ़ साफ़ बताइये ! आप पहेलियाँ मत बुझाइये ! माना कि आप विद्ध्या बुद्धी में अजेय हैं ! पर अधीरता मत बढाइये !


हनुमान जी बोले - प्रभु आपकी बात सही है ! लंका जलते तो मैंने भी देखी थी ! मैं भी वहीं था ! पर यकीन मानिए वो मैंने नही जलाई थी ! पर मैंने ५ लोगो को मिलकर लंका जलाते देखा था !


अब तो लखन लाल जी का धैर्य जवाब दे गया ! वो बोले -- भ्राता हनुमान ! माना कि आप हम सबमे ज्यादा पढ़े लिखे हैं ! आप सूर्य के शिष्य हैं ! पर अब इतनी उंची उंची पहेलियाँ तो मत बुझाईये !


अब वो ५ कौन थे ? ये भी बता ही दीजिये !


इस पर विनय पूर्वक इस विनय की मूर्ति  हनुमान जी ने कहा  :- सुनिए :-


(१) रावण का पाप 


(२) सीता का संताप


(३) विभीषण का जाप


(४) प्रभु का प्रताप


(५) हनुमान का बाप (पवन)


इस प्रकार इस विनय की साक्षात मूर्ति ने जवाब दिया और प्रभु श्रीराम ने उठकर उनको अपने गले से लगा लिया !


मग्गाबाबा का प्रणाम !

हनुमान जी ने बताया अपनी शिक्षा दीक्षा के बारे में

किष्किन्धा पर्वत पर पहुँच कर हनुमान जी ने दोनों भाईयो को उतार कर और अपने महाराज सुग्रीव को प्रणाम किया ! और उनको परिचय करवाया !  उसके बाद एकांत में हनुमान जी से जब लक्ष्मण ने बार बार बताने का आग्रह किया की वो सुग्रीव जैसे निहायत ही डरपोक किस्म के प्रति इस तरह क्यों रहते हैं ! सुग्रीव कहीं से भी आपके महाराज नही लगते हैं ! तब हनुमान जी ने बताया की मैं बचपन में बहुत ही शरारती था !


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मुझे सिवाय बदमाशी करने के और कोई शौक नही था ! ऋषी मुनियों के आश्रम में पेड़ पोधे तोड़ देना , फल खाए तो खाए नही तो तोड़ कर फेंक देना ! ताकत और बल मेरे अन्दर इतना था की मैं हाथियों को उठाकर पटक देता  था ! मेरी माता अंजनी के पास रोज कोई ना कोई मेरी शिकायत ले लेकर आ जाता था ! आख़िर माँ परेशान हो गई और जब मेरे बापू केशरी घर आए तो मेरी शिकायत करदी ! अब बापू को भी कुछ चिंता हो गई की आख़िर इस बालक का क्या करे ? ये रोज दिन पर दिन बिगड़ता जा रहा है ! मुझे कितने ही स्कुलो और गुरुकुलों में भेजा गया ! पर मुझे पढाने को कोई तैयार ही नही हुआ ! और वो मुझे क्या पढाते ? वो जानते थे की इसको आश्रम में  रखना और आफत मोल लेना ! सो  आख़िर कार मेरे परेशान बापू को रास्ता सूझ ही गया !

 

मेरे बापू केशरी जी ने सोचा की ये बालक सूर्य के समान ओजस्वी है ! अगर इसको सूर्य भगवान् के पास पढने उनकी स्कूल में भेज दिया जाए तो ये पढ़ लिख कर आदमी बन सकता है ! अब मेरे पिताजी मुझे लेकर सूर्य देवता के पास गए ! जब उन्होंने आने का कारण पूछा तो पिताजी ने बताया ! अब सूर्य देव बोले - केशरी जी आपकी बात तो सही है ! आपका बालक बड़ा शैतान है  ! चलिए मैं मान लेता हूँ की बचपने में इसने मुझे अपने मुंह में रख लिया होगा पर अब मैं इसको कैसे पढा सकता हूँ ? टालने की गरज से सूर्यदेव बोले !


सूर्य देव बोले - केशरी जी मेरा कोई एक ठिकाना तो है नही ! मैं इसको कहाँ पर शिक्षा दूँगा  ? मैं चोबिसों घंटे चलता रहता हूँ ! मेरा ठहरने का काम ही नही है !  अब इतनी पिताजी की परेशानी देख कर मैंने तय कर लिया की अब मैं भी पढ़ लिख कर  सज्जन बनूंगा और अब बदमाशियां करना बंद कर दूंगा ! इस पर मैंने कहा - अब तो आप ही मेरे गुरुजी हो ! आपके आगे २ मैं आपकी तरफ़ मुंह करके चलता रहूंगा और आप अपना चलने का काम भी करते रहना और मुझे पढाते भी रहना ! अब मेरा यह आईडिया सुनकर गुरुजी सूर्यदेव तो मेरे ऊपर प्रशन्न हो गए और मुझे पढाने के लिए राजी हो गए ! इस तरह सूर्य देव का शिष्य बन कर मैंने शिक्षा प्राप्त की !

hanuman-lakshman जब शिक्षा प्राप्त हो चुकी और मैं वहाँ से चलने लगा तब मैंने गुरुजी से कहा की आप गुरुदक्षिना ले लीजिये ! गुरुजी ने मना कर दिया ! मैंने बहुत जिद की और कहा की ऐसा तो नही हो सकता ! आपको गुरुदक्षिना तो लेनी ही पड़ेगी ! बहुत मना  करने पर भी मैं टस से मस नही हुआ तब गुरुजी ने कहा -  ठीक है , मेरा बेटा सुग्रीव  है और वो बहुत ही कामी और लम्पट है ! साथ ही साथ वो डरपोक और भीरु भी है ! मुझे हरदम उसी की चिंता लगी रहती है ! मैं तुमसे गुरुदक्षिना में यही मांगता हूँ की तुम हमेशा उसकी सहायता करना ! तुम्हारी सहायता के बिना वो राज काज भी नही कर पायेगा !


इतना कह कर हनुमान जी आगे बोलने लगे - भाई लक्ष्मण , यही कारण है की मैं हमेशा इनकी सहायता और सेवा  में लगा रहता हूँ ! और मुझको इन में अपने गुरु सूर्यदेव की झलक ही दिखाई पड़ती है ! ये मेरे गुरुपुत्र हैं और मेरे लिए हमेशा वन्दनीय है !इनकी सेवा ही मेरे लिए गुरु सेवा है !  इतना सुन कर लक्षमण जी उठे और हनुमान जी के गले लग गए ! सही है इतनी वीरता प्राप्त व्यक्ति जब विनयशील होता है तभी सच्ची विनयशीलता आती है ! कमजोर तो हमेशा  मजबूरी की वजह से  विनयशील होता है !


मग्गाबाबा का प्रणाम !

अपने बारे में हनुमान जी ने बताई कुछ गूढ़ बातें

सीता जी की तलाश में राम और लक्ष्मण जंगलो में भटकते २ किष्किन्धा पर्वत के पास घूम रहे थे ! वही पर सुग्रीव अपने भाई बाली के डर से छुप कर रहते थे ! उन्होंने जब इन दोनों भाईयो को इधर आते देखा तो अपने डरपाक स्वभाव वश हनुमान जी से कहा - हनुमान , जरा आप देखो कौन है ? मुझे डर लग रहा है ! लगता है बाली भाईसाहब के भेजे लोग ही हैं ! जाओ और पता लगाओ ! अगर मेरा अनुमान सही हो तो दूर से इशारा कर देना , मैं निकल भागूंगा ! जाओ जल्दी करो !

 

hanuman3 हनुमान तुंरत पर्वत से निचे आते हैं और दोनों भाईयो से परिचय प्राप्त करते हैं ! जब दोनों तरफ़ से तसल्ली  हो जाती है तब हनुमान कहते हैं - हे श्रीराम , मेरे महाराज सुग्रीव , यहाँ अपने भाई के डर से वनवासी जीवन काट रहे हैं ! और आपकी तरह ही भार्या के विरह से भी पीडीत हैं ! उनके भाई बाली ने उनकी पत्नी को भी छीन लिया और जान का प्यासा बन कर उनके पीछे पडा है ! आप मेरे साथ ऊपर पर्वत पर उनके पास चलिए ! मैं आप दोनों की मित्रता करवाए देता हूँ सो आप दोनों मिलकर अपने लक्ष्य में सफल हो सकेंगे !


अब श्री राम ने कहा - हनुमान जी , मैं क्यों ऊपर जाऊ ?  आपके महाराज सुग्रीव की व्यथा आप ख़ुद ही बखान कर रहे हैं की, वो ये मालुम होते हुए भी,  की उनकी पत्नी उनके भाई बाली ने छीन ली और डर से छुप कर यहाँ रह रहे हैं,  तो वो बलशाली और वीर पुरूष तो नही ही हैं ! और कायर से दोस्ती करने मैं क्यों ऊपर जाऊं ? अगर उनको दोस्ती ही करनी है तो उन्हें नीचे मेरे पास आना चाहिए !


अब हनुमान ने अत्यन्त सुंदर बात कही - हे प्रभो . ये जीव तो कभी भी कुछ पकड़ कर छोड़ देता है ! पर आप तो परम ब्रह्म हैं ! अगर आपने एक बार उनका हाथ  पकड़ लिया तो फ़िर साथ नही  छूटेगा ! महाराज सुग्रीव का क्या ? आज पकड़ लेंगे फ़िर शायद कल छोड़ भी देंगे ! इस करके मैं चाहता हूँ की आप कृपा करकर ऊपर चलिए ! और मेरा मनोरथ पूरा करिए ! श्रीराम हनुमान जी की लच्छेदार बातो में आ गए और ऊपर चलने के लिए तैयार  हो गए ! और बोले - हनुमान तुम तो मुझे लक्षमण से भी दुगुने प्रिय हो !


सुनु कपि जिए मानसि जनि ऊना ! तैं मम प्रिय लछमन ते दूना !!

 

तुम्हारी बात मैं कैसे टाल सकता हूँ ? और चलने के लिए अपने डंड-कमंडल समेटने लगे !


इधर लक्ष्मण ने सुना तो उनके तन बदन में आग लग गयी ! उन दोनों की बातें सुन कर लगा की उनकी १३ साल की तपस्या भंग हो गई ! अरे दिन रात जंगलो में ख़ाक मैं छान रहा हूँ और मेरे से भी प्रिय ये बन्दर हो गया ? और छोटा मोटा भी नही, सीधे दुगुना प्रिय ! लक्ष्मण की मनोदशा इतनी खराब हो गई की लगा , उन्होंने राम के साथ वनवास में आकर अपनी जिन्दगी खराब कर ली ! लक्ष्मण के तन बदन में आग लग गई ! उनको लगा की अभी भैया राम से पूछे की - यही इनाम दिया मेरी सेवा का ? उनका मन ये सहन नही कर पाया ! मन कह रहा था की अभी लौट चले वापस अयोद्धया को ! उनका अब क्या काम ? अब ये  बन्दर महाराज मिल  तो गए मुझसे सीधे दुगुने प्रिय ! यही ढूंढ़ लायेंगे सीता भाभी को ! मन हाहाकार  करने लगा ! बस मन बगावत करने को तैयार था ! फ़िर सोचा - पहले ये बन्दर हनुमान चला जाए , फ़िर पूछता हूँ और  उसके बाद अगला कदम उठाउंगा !लक्ष्मण मन ही मन  पूरी तरह बगावत पर उतर आए !


१३ साल के वनवासी जीवन के कारण पांवो में छाले  पड़े हुए हैं ! श्रीराम सोच रहे हैं हैं ऊपर कैसे चढेंगे ? इतनी खतरनाक और सीधी चढाई पर ! उन दर्रों को कोई बन्दर ही पार कर सकता है ! श्रीराम असल में लक्ष्मण की मन की बात जान चुके थे ! और उन्होंने इसी वक्त उसका निदान करने की वजह से हनुमान जी को ये पीडा मन  ही मन  बताई !  श्रीराम की  बातें जान कर हनुमान बोले - श्रीराम आप और भैया लक्ष्मण मेरे दोनों कांधो पर सवार हो जाईये ! मैं आपको अभी पर्वत शिखर की चोटी पर पहुंचा दूंगा ! और दोनों भाई उनके काँधे पर सवार हो गए ! और हनुमान जी ने जो हैलीकोप्टर की तरह सीधे उपर की तरफ़ ९० डिग्री पर उठना शुरू किया तो लक्ष्मण दंग रह गए ! और देखते ही देखते उनको किष्किन्धा पर्वत की चोटी पर पहुंचा दिया !


लक्ष्मण ने सोचा , मैं तो सिर्फ़ शेषनाग हूँ जो अपने फन पर पृथ्वी का भार उठाये हूँ ! और ये कौन है ? जो मुझ शेषनाग सहित नारायण ( श्रीराम ) को भी अपने कंधे पर धारण कर लिया ! और इस तरीके से कोई साधारण मनुष्य या बन्दर तो नही कर सकता ? भैया सही कह रहे थे ! ये तो मुझसे भी दुगुना प्रिय होगा ही ! मैं सिर्फ़ पृथ्वी का बोझ धारण करता हूँ और ये तो मुझ शेषनाग सहित नारायण का बोझ भी धारण करता है ! तो उनका मन हनुमान के प्रति अनुराग से भर गया !


उनका बगावत करने का विचार तो काफूर हो गया और नई खट खट दिमाग में शुरू हो गई की ये मुझसे भी बलशाली कौन है जो यहाँ बन्दर रूप में बैठा है ? ऊपर पर्वत पर पहुँच कर लक्ष्मण जी ने अपनी जिज्ञासा हनुमान जी के समक्ष रखी ! उन्होंने पूछा की - आप यहाँ क्या कर रहे हैं और कौन हैं ? और आप इतने बलशाली हो कर भी ये कायर की तरह छिपे सुग्रीव को महाराज महाराज संबोधित कर रहे हैं ? मुझे समझ नही आ रहा है की आप इनकी सेवा चाकरी क्यो कर रहे हैं ! जबकि आप तो  स्वयम महाराज बनने के हर तरह से काबिल हैं !  हे वानर श्रेष्ठ आप मेरी जिज्ञासा शांत कीजिये ! 

  

ये कहानी यहाँ पुरी हुई ! हनुमान जी ने अपने और सुग्रीव के गूढ़ रिश्तो के बारे में जो बताया वो  आपने शायद पहले कहीं नही पढा  होगा   ! वो फ़िर कभी बता देंगे ! क्रमश: में हमको भी बंधन लगता है  और आपको भी लगता  है ! अब इस बंधन से आप और हम मुक्त होते हैं ! अक्सर जब भी मौज आयेगी तब यहाँ गप-शप चलती रहेगी ! हमको तो कोई प्रसंग याद आजाता है तो आपको सुना देते हैं ! 


और यहाँ जो भी प्रसंग हम आपको बताते हैं वो अमूमन ज्यादा प्रचलित नही हैं ! और ज्यादा प्रचलित प्रसंग तो आप भी जानते हैं और सारी दुनिया जानती  हैं !  ये प्रसंग कुछ टीकाकारों  ने लिखे हैं ! हमने इनकी कापी नही की है ! वर्षों पहले ये हमने पढ़े सुने होंगे ! अब याद आजाते हैं तो अपनी भाषा में लिख देते हैं !  ये काफी ज्ञानवर्धक और मनोरंजक भी हैं ! और उम्मीद करता हूँ की आपको पसंद  भी आते होंगे ! अगली बार फ़िर कुछ और किस्से बताएँगे आपको !


मग्गाबाबा का प्रणाम !

सपना सच है या झूँठ : अष्टावक्र की दृष्टी

आज बहुत दिनों बाद एक सपना देखा ! उसके बाद नींद खुल गई ! सपने में मेरे दिवंगत मित्र स्व. एम् . मुखर्जी  साहब मुझसे मुखातिब थे ! ये एक ब्यूरोक्रेट थे ! अभी कोई ३ साल पहले नही रहे ! काफी धार्मिक प्रवृति के थे ! बंगाली होने के बावजूद मछली और अन्य मानवीय दुर्गणो से काफी दूर थे !  मेरा इनसे जब परिचय हुआ था उस समय ये काफी हाई प्रोफाईल में थे ! मैं ज्यादा कुछ उनके निजी व्यक्तितव या प्रोफेशन  के बारे में आपसे यहाँ कोई चर्चा नही करूंगा ! इनके साथ बिताये समय को मैं फ़िर कभी आपके साथ शेयर करने की कोशीश करूंगा !


कुछ व्यवसायिक डील्स के सम्बन्ध में हमारा मिलना होता था ! मेरा कुछ फ़क्क्ड पना और मस्त स्वभाव देख कर ये मेरी तरफ़ आकर्षित हो गए ! और ज्यादा से ज्यादा मेरा साथ चाहने लगे ! और फ़िर कालांतर में हमारी दोस्ती गहराती चली गई ! हमारी ८० प्रतिशत चर्चा आध्यात्मिक और २० प्रतिशत  व्यापारिक ,घरेलु या राजनैतिक सामाजिक होती थी !


इन्होने इस दुनिया से कूच करने के कुछ ही समय पहले मुझे एक अन्ग्रेज़ी भाषा में  किताब भेंट की थी "उद्धव-गीता"  की  ! और लिक्खा था की मैं उसको पढ़ कर उन्हें बताऊ की इसका सार क्या है ?  किताब आई और यूँ ही रखी रह गई ! उस समय मेरे स्वास्थय के कारणों से समय ही नही मिल पाया ! खैर... ! आज सपने में इन्होने पूछा की - मुझे आज तक आपने उद्धव गीता के बारे में नही बताया ?


मेरी नींद खुल गई और अब मैं सोच रहा हूँ की सच क्या है ? सपना सच है ? या नींद खुल गई , उसके बाद मैं ये जो बैठा लिख रहा हूँ यह सच है ? 


अचानक मुझे अष्टावक्र की याद हो आई ! असल में कृष्ण की गीता में सुविधा है की आप अपनी पसंद का मतलब निकाल लो ! आपको पूरी पूरी छुट है ! इसीलिए जितने भी अनुवाद हुए गीता के , उन सबके अलग २ मतलब निकले हैं ! पर अष्टावक्र के साथ ऐसा नही है ! अष्टावक्र का ज्ञान बिल्कुल सूखा और नीरस है ! जिसे कहते हैं कडुआ सच !


असल में जनक- अष्टावक्र संवाद है ही ऐसा की इसमे शिष्य जनक ज्ञानी है, और गुरु अष्टावक्र परम ज्ञानी ! अब एक ज्ञानी शिष्य को परमज्ञानी गुरु सिवाए शुद्ध ज्ञान के और क्या देगा ? अष्टावक्र कहीं गुंजाइश ही नही छोड़ते की आप कहीं उठकर भटक जाए ! अष्टावक्र तो लट्ठ की तरह ज्ञान देते हैं ! आपकी मर्जी हो और उनकी भाषा समझ सके तो उनके पास तो विशुद्ध तत्व है , इसे दर्शन समझने की भूल मत करना ! असल में तत्व और दर्शन एक जैसा लगता है पर दोनों में दिन रात का फर्क है ! ऎसी ग़लती आपने की तो आप बात को चूक जायेंगे ! आइये अब इसी सपने से सम्बंधित  एक प्रसंग पर चलते हैं !


राजा जनक को सपना आता है की वो हाथ में भीख माँगने वाला कटोरा लेकर नगर में भीख मांग रहे हैं ! बस राजा की नींद खुल जाती है ! असल में ज्ञान जब तक परिपूर्ण नही होता तब तक ज्ञानी की हालत बड़ी ख़राब होती है ! राजा जनक यूँ तो पैदायशी ज्ञानी ही थे  ! पर कहते हैं की जब तक गुरु नही मिले तब तक ज्ञान पूर्ण नही होता ! अब राजा जनक को गुरु कहाँ से मिले ? उस समय के सारे ज्ञानी तो आ आकर राजा जनक से ज्ञान लेते थे ! और फ़िर जनक की शर्ते भी गुरु बनाने को लेकर उटपटांग थी सो उनको तो कोई उटपटांग गुरु ही ज्ञान दे सकता था ! और शायद अष्टावक्र से बड़ा उटपटांग तो कोई हुआ ही नही ! 


सुबह का जैसे तैसे राजा जनक ने इंतजार किया और सभा में अपना सपना कह सुनाया और उसका मतलब पूछा ! राजा जनक की सभा में एक से एक ज्ञानी थे सबने अपने २ हिसाब से सपने का अर्थ समझाया पर राजा संतुष्ट नही हुआ ! अब राजा कहाँ से संतुष्ट होता ? अरे भाई जब सम्राट को भीख मांगनी पड़ रही है तो कारण क्या है ! अंतत: राजा को किसी ने सलाह दी की इस सपने का अर्थ सिर्फ़ वही १२ साल का लड़का अष्टावक्र ही बता सकता है जो यहाँ आकर आपके सारे दरबारियों को चमार कहके चला गया था ! जनक उससे बहुत घबडाए हुए थे ! पता नही वो आड़ा तिरछा लड़का जिसके शरीर में आठ बल पड़े है जो सीधा चल भी नही सकता , अब आके और क्या कह जाए ? पर ज्ञान की भूख ही ऎसी होती है की सब मंजूर करना पड़ता है ! अगर सही में ज्ञान की इच्छा है तो मान अपमान एक कोने में रखना पड़ता है !


बड़े आदर पूर्वक अष्टावक्र को बुलावा गया और दरबारियों के साथ आसन  दे दिया गया ! अब राजा जनक ने सवाल पूछा की मुझे ऐसा सपना आया है की मैं नगर में कटोरा हाथ में लेके भीख मांग रहा हूँ ! इसका क्या मतलब ? मुझे जवाब चाहिए ?


अष्टावक्र बोले - ये कोई तुम्हारा तरीका नही है सवाल पूछने का ! तुम तो राजा और प्रजा वाली बात कर रहे हो ! मैं कोई तुम्हारा चापलूस दरबारी नही हूँ जो तुमको जवाब देदूं तुम्हारे मन माफिक ? अगर मुझसे जानना ही चाहते हो तो तुम यहाँ नीचे आकर बैठो और मुझे तुम्हारे राज सिंघासन पर बैठने दो ! प्रश्न पूछने वाले को अपनी औकात में और नीचे बैठ कर सवाल पूछना चाहिए और चूँकी बताने वाला बड़ा होता है तो उसे ऊँचे स्थान पर बैठना चाहिए ! बोलो अगर मेरी शर्त मंजूर हो तो अभी जवाब देता हूँ नही तो राम राम जी की ! अपन चले अपने घर ! 


अब जनक क्या करे ? सपने की घटना बड़ी कचोट रही है ! सारी प्रभुसत्ता जा रही है ! एकदम राजा से सीधे भिखारी ? और उनको अष्टावक्र से कोई सीधे सवाल जवाब  की उम्मीद भी नही थी ! क्योंकि अष्टावक्र राजा जनक की पहले भी मिट्टी ख़राब कर चुका था ! अरे जब उसने अपने पिता "ऋषि  कहोड़ " को नही बख्शा तो ये राजा जनक कहाँ लगते हैं उसको ?


राजा जनक तत्क्षण उठकर नीचे आगये और अष्टावक्र को राज सिंघासन पर बैठा दिया ! और हाथ जोड़ कर खड़े हो गए और अपने प्रश्न का जवाब माँगा ! अब अष्टावक्र ने बोलना शुरू किया !


राजन अब ये बताओ की इस समय इस राज्य का राजा कौन है ? तुम या मैं ?


अगर तुम मुझे राजा बताते हो इस समय , क्योंकि इस राज सिंघासन पर अब  मैं विराजमान हूँ ,  तो समझ लो तुम्हारा सपना झूंठा था !  और अगर तुम ये कहते हो की राजा तो अब भी तुम ही हो ये सिर्फ़ एक एडजेस्टमेंट है तो समझ लो की तुम्हारा सपना सच है तुम नही !

कवच कुंडल दान के बाद कर्ण दुर्योधन संवाद

कर्ण को कुछ भी रंज गम या शोक नही था कवच कुंडल दान में दे दिए जाने का ! उनके लिए तो एक सामान्य सी घटना थी ! पर जैसे ही दुर्योधन को मालुम पडा की कर्ण ने अपने कवच कुंडल दान में दे दिए हैं ! तो दुर्योधन को तो चक्कर ही आ गए ! उसको हस्तिनापुर का राज्य हाथ से फिसलता लग रहा था ! वो और दुशाशन गुस्से में लाल पीले होते हुए कर्ण के पास पहुँच गए !


और जाते ही अपने स्वभाव अनुसार उसने कैफियत मांगी ! कर्ण ने भी सहज उत्तर दे दिया की ब्राह्मण बन कर इन्द्र ले गया ! मैं याचक को मना कैसे कर सकता था ! इस बात पर दुर्योधन को बहुत गुस्सा आ गया ! और वो बोला - ये क्यों नही कहते की अपने सगे भाइयो की पक्षपात करते हुए तुमने दे दिए ! तुमको मालुम है मैं तुम्हारे सारे राजा शाही शोक इस लिए उठा रहा हूँ की एक दिन अर्जुन को तुम ही मारोगे ! और किसी के बूते की बात नही है ! और तुम्हारे कोई सुरखाब के पर नही लगे हैं ! तुम भी इन्ही कवच कुन्डलो की वजह से इसमे सक्षम थे ! पर हाय री किस्मत... दुर्योधन विलाप करते हुए बोला - तुमने मुझे कहीं का नही छोडा ! तुम धोखेबाज कहीं के .... ! और दुर्योधन आंय बांय.. सन्निपात के मरीज की तरह बकने लग गया !

 

कर्ण ने उसको समझाने की बहुत कोशीश की ! पर बड़ा मुश्किल था दुर्योधन को कुछ भी समझाना ! और सही है दुर्योधन ने कर्ण को बराबरी का  दर्जा यानी राजा का दर्जा दिया ! उस सूत पुत्र कर्ण को ! जिसको कोई राजाओ  की सभा में बैठने नही देता था ! और दुर्योधन ये कोई दान पुण्य में नही कर रहा था ! उसको भी कर्ण से चाहत थी ! और जब वो चाहत पूरा करने के काबिल ही नही रहा तो काहे का दोस्त ?  अब कर्ण उसको लंगडा घोडा लगने लग गया था! फ़िर भी थोड़ी देर के बाद गुस्सा थोडा कम हुआ तो उसने पूछा - क्या वो इन्द्र का बच्चा यूँ ही ले गया तुम्हारे कवच कुंडल ? या बदले में कुछ दे कर भी गया था ?


अब कर्ण को याद आया की वो कोई वज्र रूपी शक्ति दे के गया था ! तब उसने कहा - की हाँ इन्द्र एक वज्र रख के भाग गया था जल्दी में ! अब दुर्योधन की आँखों में  कुछ चमक आयी और व्यग्रता से उसने पूछा - कहाँ है वो शक्ति ? कर्ण बोला - वो उस कोने में रखी है ! उसको इतना लापरवाह देख कर दुर्योधन की इच्छा तो हुई की इसको दो चार गालियाँ दे कर बाहर करदे ! पर उसको मालुम था की बिना कवच कुंडल के भी कर्ण का कोई तोड़ दुर्योधन के पास नही था !


उस वज्र को हाथ में लेते हुए दुर्योधन ने पूछा की उस इन्द्र के बच्चे ने और क्या कहा था इस शक्ति को देते समय ? अब कर्ण ने कहा - हाँ याद आया ! देवराज ने कहा था की इसको तुम एक बार काल पर भी चला दोगे तो काल भी खत्म हो जायेगा !


अब दुर्योधन की बांछे खिल गई ! उसे युद्ध में अर्जुन की मौत दिखाई देने लग गई ! कर्ण से उसने क्षमा याचना की ! कर्ण ने कहा - मित्र क्या हुवा जो तुम तनिक आवेश में आ गए ! मैंने सारा ठाठ तो तुमसे ही पाया है ! अगर तुम एक बार गुस्से में कुछ कह गए तो पिछ्ला तुम्हारा इतना कर्ज मेरे ऊपर है की मैं कभी तुमसे कर्ज मुक्त नही हो पाउँगा ! मित्र तुम यकीन रखो ! मेरे प्राण अगर जायेंगे तो तुम्हारे लिए !

  

दुर्योधन बोला - कर्ण मेरे मित्र मुझे क्षमा करना ! मैंने ये सारे युद्ध की तैयारी ही तुम्हारे दम पर की है ! अब इस वज्र को मैं संभाल कर रखता हूँ ! तुम लापरवाही में इधर उधर पटक दोगे ! दुर्योधन शायद डर गया था की कोई फ़िर याचक बन कर इसे बेवकूफ  बना कर ना ले उडे ! अब वो संभाल कर उस शक्ति को साथ में ले कर दुशाशन के साथ  कर्ण के राज प्रासाद से बाहर निकल गया !


अब ये बात है महाभारत युद्ध के उन दिनों की जब यह युद्ध कौरवों की तरफ़ से कर्ण के  सेनापतित्व में लड़ा जाने लगा था !

 

उस समय अर्जुन ने पुरी कौरव सेना को अपने बाणों से गाजर मूली की तरह काटने का सिलसिला कायम कर रखा था ! रात को दुर्योधन , कर्ण और दुशाशन के साथ अगले दिन की युद्ध की योजना बना रहे थे ! दुर्योधन ने अर्जुन की तरफ़ से जो नुक्सान पहुँच रहा था उस पर चिंता जाहिर करते हुए कर्ण से कहा की तुम तो कल जाते ही ये इन्द्र वाली शक्ति अर्जुन पर चला देना ! फ़िर इस युद्ध में ऐसा कुछ भी नही है जो हमारे काबू से बाहर हो ! कर्ण ने भी अपनी सहमती जताई !

 

पर लगातार दो दिनों के युद्ध के बाद भी कर्ण ने वह शक्ति अर्जुन पर नही चलाई ! रात्री फ़िर से कौरवों के मंत्रणा शिविर में इसी को लेकर बहस हो रही है ! दुर्योधन बहुत नाराज है कर्ण से ! वो जानना चाहता है की क्यूँ नही शक्ति को चलाया गया अर्जुन पर !

 
क्या इस लिए की वो तुम्हारा सगा भाई है ?  अब युद्ध के इस मोड़ पर तुम मुझसे धोखा करने पर आमादा हो ? पता नही दुर्योधन क्या क्या आंय बांय बकने लग गया ! आख़िर बड़ बोला तो था ही ! कर्ण ने इसको बहुत समझाने की कोशीश की पर वो समझने को तैयार हो तब ना !


कर्ण बोला - मित्र दुर्योधन मेरा यकीन करो ! तुम जो कह रहे हो वैसी बात बिल्कुल नही है ! मुझे  पता नही क्यों ? इस शक्ति के उपयोग करने का स्मरण ही नही आता ? पता नही क्यूँ ? मैं क्यूँ भूल जाता हूँ ? अर्जुन की तरफ़ से इतनी घनघोर बाणों की बाढ़ सी आती है की सब कुछ भूल कर उससे बचने की सोचने में इस शक्ति के उपयोग की याद ही नही आती ! कल मैं इसका अवश्य उपयोग कर लूंगा !


इस पर दुर्योधन ने लगभग चिल्लाते हुए कहा - हाँ हाँ ठीक है ! कल तुम्हारा सारथी बन कर मैं चलूँगा ! और मैं अपने हाथ से उठाकर यह शक्ति तुमको दूंगा फ़िर देखता हूँ कैसे अर्जुन कल बच पाता है ! यह तय हो गया की कल कर्ण का सारथि दुर्योधन रहेगा !


उधर गुप्तचरों ने जैसे ही कृष्ण को इस बात की सुचना दी ! कृष्ण के माथे पर चिंता की लकीरे खींच गयी ! उनको लगा की कल का दिन अर्जुन का आखिरी दिन होगा ! दुर्योधन सारथि है तो वो तो भूलने से रहा ! वो तो कितने ही नुक्सान के बल पर भी आते ही वो शक्ति अर्जुन पर चलवा देगा ! अब कृष्ण ने तेजी से सोचना शुरू किया ! और तुंरत उन्होंने कल अर्जुन की जगह सेना नायक को बदलने की ठान ली !


उन्होंने इसी दिन के लिए भीम पुत्र घटोत्कच को तैयार रक्खा था ! उन्होंने उसे बुलवा भेजा ! आते ही घटोत्कच ने प्रणाम किया और खडा हो गया ! कृष्ण ने अपना प्रोयोजन बताया तो घटोत्कच की बांछे खिल उठी ! आख़िर घटोत्कच जैसे शूरवीरों का जन्म किस लिए होता है  ? पर इधर दादा भीम पुत्र मोह से पगला से उठे ! उन्होंने कहा - वासुदेव ! आप यह क्या कर रहे हैं ! अरे हम अभी जिंदा बैठे हैं ! फ़िर बच्चो को क्यों युद्ध में झोंका  जा रहा है ! अभी इनके युद्ध लड़ने के नही खेलने खाने के दिन है !  कल का युद्ध मैं लडूंगा ! घटोत्कच अभी बच्चा है ! उसे कर्ण जैसे महारथी के सामने भेजना यानी की उसके प्राणों की आहुती देना !

 

अब युधिष्टर ने कहा - भीम  ! ये पहले ही तय हो चुका है की हम इस बारे में कोई दखल नही देंगे ! जो भी रणनीति वासुदेव बनायेंगे वो हमारे लिए शुभ ही होगी ! तुम चिंता मत करो ! कोई पांडव अपने प्रिय पुत्र घटोत्कच को युद्ध में भेजने को तैयार नही था ! पर कृष्ण के आगे कोई कुछ बोल नही सकता था !


सिर्फ़ कृष्ण जानते थे की उस शक्ति से एक पांडव वीर की मृत्यु निश्चित है ! और वो पांचो पांडवो में किसी को भी खोना नही चाहते थे ! और दूसरा कोई वीर ऐसा नही था जो कर्ण और दुर्योधन को युद्ध में इतना थका दे की वो उस पर उस शक्ति का उपयोग कर ले जिससे अर्जुन की प्राण रक्षा हो सके ! कृष्ण जानते थे की घटोत्कच ही एक ऐसा समर्थ वीर है जो अपने प्राणों की बली दे  कर भी कर्ण को वो शक्ति अपने ऊपर चलाने को विवश कर सकता है ! और उन्होंने यह जुआ खेलने  की जोखिम उठा कर ही घटोत्कच को अगले दिन का सेना नायक बनाने का निश्चय किया था ! वो किसी भी तरह उस शक्ति को बेकार करना चाहते थे !


अगले दिन घटोत्कच ने ऐसा भयानक युद्ध किया की कर्ण और दुर्योधन दोनों को प्राणों के लाले पड़ते दिखाई देने लगे ! वीर घटोत्कच पूरा मायावी था ! और मायावी युद्ध कला में निपुण था  ! अदृश्य होकर  मैले गंदगी की बरसात करना, पहाड़ के पहाड़ उठा कर पटक देना, खून की बारिश करना और धूल भारी आंधियां लाकर उसने उस दिन कौरव सेना के पाँव उखाड़ दिए ! अब दुखी होकर दुर्योधन ने कर्ण से कहा की वो शक्ति इस पर चलाओ ! कर्ण ने कहा - वो शक्ति तो अर्जुन को मारने के लिए रक्खी है !


तब दुर्योधन बोला - मित्र कर्ण जल्दी करो ! अर्जुन पर तो हम शक्ति तब चलाएंगे ना जब हम जिंदा बचेंगे ! अगर तुमने तुंरत इस घटोत्कच पर इन्द्र की दी हुई शक्ति नही चलाई तो ये अब हम तुम दोनों को मार डालेगा ! शीघ्रता करो मित्र ! नही तो प्राण अब चले जायेंगे ! और घटोत्कच के प्रहारों से घबराकर कर्ण ने इन्द्र की दी हुई अजेय शक्ति वीर घटोत्कच पर चला दी ! और इस तरह कृष्ण अर्जुन को बचाने में सफल हुए ! इस तरह वीर घटोत्कच ने अपना वीर होना साबित करके इतिहास में  अपना नाम अमर कर लिया !


मग्गाबाबा का प्रणाम !


देवराज इन्द्र ने छलपूर्वक कर्ण से कवच कुंडल लिए !

पांडवो के रणनीतिकार कृष्ण को यह पका हो चुका था की कर्ण को रास्ते से हटाये बगैर अर्जुन सुरक्षित नही हो सकता ! कृष्ण ये भी जानते थे की  जिस दिन भी युद्ध में अर्जुन का सामना कर्ण से हुआ उस दिन अर्जुन का अन्तिम  सूर्योदय होगा ! उधर देवराज इन्द्र की चिंता तो अनंत गुना बढी हुई थी ! देवराज इन्द्र का  दिन का चैन और रात की नींद ख़राब हो चुकी थी ! क्या किया जाए ? क्या नही  किया जाए ? इसी उधेड़बुन में उनके दिन आज कल निकल रहे थे !  आख़िर एक पिता को अपने से अधिक अपने पुत्र की चिंता होती है ! तो देवराज की चिंता आप अच्छी तरह समझ सकते हैं !

vrtrasura भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र दोनों जानते थे की जब तक कर्ण के पास पैदायशी कवच और कुंडल हैं वो युद्ध में अजेय है ! सूर्य पुत्र कर्ण को मारना तो दूर उसके बाणों के सामने टिकना भी किसी योद्धा के बस की बात नही है !  भीष्म पितामह और गुरु द्रोण भी कर्ण का सामना करने में अक्षम  थे फ़िर अर्जुन की तो बिसात ही क्या थी ? 

आख़िर सोच विचार के बाद देवराज ने एक निर्णय कर लिया और अपने सारथी को चलने की  तैयारी करने का हुक्म कर दिया !

अपने वायुगति से भी तेज गति से दौड़ने वाले घोडो से जूते रथ पर सवार होकर देवराज इन्द्र तुरत फुरत कर्ण के महल में एक ब्राह्मण का वेश बना कर पहुँच गए ! राजा कर्ण, जी हाँ दानी कर्ण ...याचको को दान दे रहे हैं ! सभी याचक अपनी उम्मीद से भी ज्यादा इच्छित  वस्तु पाकर खुश हैं और कर्ण को आशीष देते हुए जा रहे हैं ! सबसे अंत में एक ब्राह्मण आया और भिक्षा का अनुरोध किया ! दानी कर्ण ने पूछा - विप्रवर आज्ञा करिए ! किस वस्तु की अभिलाषा लेकर आए  हैं ?

 
विप्र बने इन्द्र ने कहा - महाराज आप जैसा दानी तो इस धरा पर दूसरा कोई नही है ! तो मुझे मालुम है की इच्छित वस्तु तो आप अवश्य देंगे ही ! फ़िर भी आप संकल्प कर ले तब मैं मान्गुगा !

 
दानी कर्ण ने थोड़ी नाराजी से कहा - विप्र आप शंका क्यूँ कर कर रहे हैं ! आप आदेश करिए ! दान के नाम पर हम जान न्योछावर कर देंगे !

 
विप्र - नही नही राजन ! आपकी जान की सलामती की हम कामना करते हैं ! बस हमें इच्छित वस्तु मिल जाए ! आप तो यह प्रण कर कर लीजिये !

 
कर्ण - हम प्रण करते हैं विप्रवर ! मांगिये !


ब्राह्मण ने कहा - राजन आपके शरीर के कवच और कुंडल हमें दान स्वरूप चाहिए !

इस दान वीर कर्ण ने बिना एक क्षण भी गंवाए अपने कवच और कुंडल अपने शरीर से  खंजर की सहायता से अलग किए और ब्राह्मण को सौंप दिए ! पूरा शरीर लुहलुहान हो गया ! वाह रे दान वीर कर्ण ! अपनी मौत का सामान इस ब्राह्मण बने छलिया इन्द्र को सौपने में एक क्षण भी नही लगाया !  

इन्द्र ने तुंरत वहाँ से दौड़ ही लगा दी और दूर खड़े रथ पर सवार हो गया ! उसने सारथी को आज्ञा दी की जितनी जल्दी हो यहाँ से भाग चलो ! देर मत करो ! इन्द्र को यह डर सता रहा था की कहीं कर्ण का मन बदल जाए और वो आकर ये  अपने कवच कुंडल वापस ना लेले ! उसने सारथी को तेज गति से चलने के लिए फ़िर कहा ! पर ये क्या ? सारथि ने कहा - महाराज इन्द्र , रथ आगे नही जा पा रहा है ! अश्वों की पीठ चाबुक खा खा कर लाल पड़ चुकी हैं ! पर वो रथ को खींच नही पा रहे हैं! शायद रथ के पहिये अन्दर धंस चुके हैं !

धड़कते और आशंकित से इन्द्र ने रथ से नीचे उतर कर देखना चाहा ! इतनी देर में आकाशवाणी हुई ! उसने कहा - ऐ देवराज इन्द्र ! तुमने इतना बड़ा पाप किया है की उस पाप के बोझ से तेरा रथ जमीन में धंस गया है ! और अब आगे नही जा सकता ! अपने पुत्र अर्जुन की जान बचाने के लिए तुने छल पूर्वक कर्ण की जान खतरे में डाल दी है !

अब जैसा की सब जानते हैं इन्द्र जैसा निर्लज्ज और स्वार्थी दूसरा कोई भी नही हुआ आज तक ! सो इन्द्र ने आकाशवाणी से पूछा की ठीक है अब जो हो गया वो गया ! पाप पुन्य का फैसला होता रहेगा ! पर अभी तो मुझे यहाँ से निकलने का उपाय बताओ ! तब आकाशवाणी ने बताया की बदले में बराबरी की कोई वस्तू  उस कर्ण को  दे कर आवो ! उसके बाद ही तुम यहाँ से निकल पाओगे ! वरना सारी उम्र यहीं बैठ कर रोना  अब !

बुरे फंसे देवराज आज तो ! क्या करते ? मजबूरी थी ! सो वापस बेशर्म जैसे पहुँच गए महाराज कर्ण के दरबार में ! महाराज कर्ण अपने दैनंदिन कार्य में ऐसे लगे थे जैसे कुछ हुआ ही नही हो ! सिर्फ़ कानो पर और सीने पर कुछ  ताजा घाव के निशान और रक्त अवश्य दिखाई दे रहा था ! उन्होंने इन्द्र को आते देखा तो पूछ बैठे - देवराज आदेश करिए अब क्या चाहिए ? वह भी अवश्य मिलेगा !

इन्द्र ने अपनी झेंप मिटाते हुए कहा - अब मैं याचक नही हूँ ! आपको कुछ देना चाहता हूँ ! आप मांग लीजिये जो कुछ भी चाहिए ! कर्ण ने कहा - देवराज , मैंने आज तक कभी किसी से कुछ नही माँगा और ना ही मुझे कुछ चाहिए ! कर्ण सिर्फ़ दान देना जानता है  लेना नही ! अब देवराज को पसीना आ गया ! क्या करे ?

इन्द्र ने कहा - महाराज कर्ण, आपको कुछ तो मांगना ही पडेगा वरना मेरा रथ यहाँ से नही जा सकेगा ! आप कुछ मांग कर मुझ पर अहसान करिए ! आप जो भी मांगेगे मैं देने को तैयार हूँ !


अब कर्ण ने नाराज होते हुए कहा - देवराज मैं सुर्यपुत्र कर्ण ऐसा कोई काम नही करता जो मुझे माँगने के लिए विवश होना पड़े ! मुझे दान देने में आनंद आता है लेने में नही ! और ना ही मैं भिखमंगा हूँ ! देवराज को गुस्सा भी आ रहा था ! उसके मुंह पर ही उसको भिखमंगा कहा जा रहा है! पर क्या कर सकते हैं वो कर्ण का !

लाचार इन्द्र ने कहा - मैं ये वज्र रूपी शक्ती तुमको इसके बदले में दे कर जा रहा हूँ ! तुम इसको जिस के ऊपर भी चला दोगे वो बच नही पायेगा  भले ही साक्षात काल के ऊपर ही चला देना ! और कर्ण कुछ कहते उसके पहले ही देवराज वो शक्ति वहाँ रख कर तुंरत भाग लिए ! कर्ण के आवाज देने पर भी वो रुके नही ! तब कर्ण ने उस शक्ति को उठा कर एक तरफ़ रख दिया और अपने काम में लग गए  ! (क्रमश:)

मग्गा बाबा का प्रणाम !

बापू की चुहलबाजी और टेगोर का जवाब !

gandhi & tagore बात उन दिनों की है जब महात्मा गांधी शान्ति निकेतन गए हुए थे और रविन्द्र नाथ टेगोर के मेहमान थे ! बापू और कविन्द्र रविन्द्र की खूब घुटती थी ! और दोनों ही एक दुसरे को पसंद करते थे ! बापू जितने भी दिन वहाँ रहे , उतने दिन टेगोर भी ज्यादा से ज्यादा उनके साथ रहने की कोशीश करते थे !


अक्सर सुबह शाम की सैर भी दोनों साथ साथ ही किया करते थे ! अब एक चीज आपने ध्यान दी होगी की बापू तो तन से ही फकीर नही थे वो तो मन से भी फकीर ही थे ! उनको वेशभूषा आदि किसी बात की कोई चिंता नही रहती थी ! इधर टेगोर साहब बिल्कुल उल्टे स्वभाव के ! लोग शायद ये समझते थे की बड़े जमींदार घराने से ताल्लुक रखते हैं तो ये बनने संवरने की खान दानी आदत होगी !


एक दिन शाम को सैर करने दोनों को जाना था ! गांधी जी अपने स्वभाव के मुताबिक जल्दी से अपनी लाठी उठाई और बाहर निकल लिए ! टेगोर साहब अन्दर ही रह गए ! अपने बाल वगैरह संवारने लग गए ! गांधी जी से ज्यादा इंतजार सहन नही हुआ तो भीतर आकर बोले - क्या टेगोर साहब आप भी इस बुढापे में बाल संवार रहे हो ? क्या जरुरत है इसकी ? देर हो रही है , चलिए !


अब टेगोर साहब ने गंभीर होकर उत्तर दिया - महात्मा जी जब मैं जवान था तब यूँही बिना बाल सँवारे चला जाता था पर अब बूढा हो चला हूँ तो आप ये मत समझना की सुंदर लगने के लिए बाल संवार कर सुंदर दिखना चाहता हूँ ? बात सिर्फ़ इतनी सी है की मैं कुरूप दिख कर किसी दुसरे देखने वाले के दुःख का कारण नही बनना चाहता !


सत्य है एक कवि का मन हमेशा और हर बात में सौन्दर्य खोजता है ! चाहे कविता हो या निजी शरीर ! 

क्या ईश्वर चिंतन करते समय सिगरेट पी जा सकती है ?

अगर देखा जाए तो प्रश्न पूछना एक कला है और उसका इच्छित उत्तर पाना भी एक बड़ी उपलब्धि होती है !

एक यहूदी फकीर  जोसुका लिएबमेन हुए हैं ! इन फकीर साहब के कई शिष्य थे ! एक दिन इनके दो शिष्य इनके  पास आए और प्रणाम करके बैठ गए ! 

थोड़ी देर बाद एक शिष्य ने पूछा - गुरुजी , क्या मैं ईश्वर का ध्यान करते समय सिगरेट पी सकता हूँ ?

फकीर ने जवाब दिया - बिल्कुल नही ! ऐसा नही करना !

अब थोड़ी देर बाद दुसरे शिष्य ने पूछा - क्या मैं सिगरेट पीते समय ईश्वर का ध्यान कर सकता हूँ  ? 

फकीर बोला - क्यों नही ? ईश्वर का ध्यान तो किसी भी अवस्था में किया जा सकता है ! 

चार सवाल और उनके जवाब

राजा भोज का दरबार लगा हुआ था ! जैसा की आप जानते हैं उनके दरबार में एक से बढ़ कर एक कवि और विद्वान् थे ! अचानक राजा भोज ने विद्वान् दरबारियों के सामने चार सवाल रक्खे और उनका जवाब माँगा ! राजा भोज ने कहा - सबसे विश्वसनीय दोस्त कौन है ?, सर्वश्रेष्ठ प्रकाश कौनसा है ?, दूध किसका अच्छा है ? और सबसे अच्छा राजा कौन है ?

एक कवि ने जवाब दिया -


भाई सरीखो मित्र नही, तेज ना सूर्य समान
दूध गाय सम को नही, राजा ना भोज समान

अर्थात : भाई सरीखा भरोसेमंद कोई दोस्त नही , प्रकाश सूर्य से बढ़कर कोई नही है, दूध गाय का अति उत्तम है और राजाओं में सर्वश्रेष्ठ राजा तो आप ही हैं ! यह जवाब सुनकर सब उपस्थित लोगो ने उस कवि की बड़ी प्रसंशा की !

इतनी देर में एक अन्य वृद्ध कवि उठ कर खड़े हुए और उन्होंने कहा - मैं इस उत्तर से संतुष्ट नही हूँ ! तब वहाँ उपस्थित अन्य लोगो ने कहा - अगर आप इतने सुंदर उत्तर से संतुष्ट नही हैं तो आप अपना उत्तर बताइये जो इससे बढिया और उपयुक्त हो !

इस पर उन वृद्ध कवि ने अपनी बात यो कही :

भुजा सरीखो मित्र  नही, तेज न नेत्र समान
दूध मात सम को नही, भूप न इन्द्र समान

अर्थात : सबसे विश्वस्त साथी अपना बाहुबल है , क्योंकि भाई तो कभी धोखा भी दे सकता है ! सर्वश्रेष्ठ प्रकाश तो आँख की ज्योति का है क्योंकि सूर्य अगर सौ  गुना ज्यादा भी प्रकाश करे पर आँख में ज्योति ही नही हो तो किस काम का ? और दूध तो माँ जैसा गुणकारी दूसरा किसी का हो ही नही सकता ! और राजाओं में तो सर्वश्रेष्ठ राजा इन्द्र ही है जो सारी दुनिया में जल के रूप  में वृष्टि करके जीवन को पल्लवित करते हैं !

श्री कृष्ण ने छलपूर्वक बर्बरीक से शीश का दान लिया !

श्री कृष्ण  समस्या पर गंभीर मंथन करके उस निर्णय पर पहुँच गए जो आखिरी निर्णय होता है ! शायद कोई भी उस समय कृष्ण की जगह होता तो इस के सिवाय कोई चारा नही होता ! बर्बरीक,  वो योद्धा अपने शिविर में रात्री  में बैठा है ! अचानक दस्तक हुई ! उसने द्वार खोला ! सामने एक ब्राह्मण खडा था ! उसने ब्राह्मण का स्वागत करके आसन दिया ! और आने का कारण पूछा ! ब्राह्मण ने कहा - मुझे आपसे दान पाने  की इच्छा है वीरश्रेष्ठ !
बर्बरीक ने कहा - मांगो ब्राह्मण ! क्या चाहिए ?


  ब्राह्मण बोला - आपको वचनबद्ध होना पडेगा ! तभी मांग सकता हूँ !बर्बरीक ने एक क्षण सोचा और बिना समय गंवाए  कहा - ब्राहमण देवता , आप आदेश करिए ! मैं आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण करूंगा ! ब्राह्मण रूपी  कृष्ण ने कहा - हे वीर श्रेष्ठ मुझे आपका शीश चाहिए !
वो योद्धा जैसे आसमान से गिरा हो ! उसने बड़ी मुश्किल से अपने आप को सम्भाला और तुंरत उसे अपनी भूल समझ आ गई की ये ब्राह्मण नही बल्कि कृष्ण है ! वो पहचान गया था !
योद्धा बर्बरीक बोला - श्री कृष्ण मैं आपको जान गया था ! जब आपने सर का दान माँगा ! अगर कोई ब्राह्मण होता तो कुछ गायें या कुछ गाँव दान में मांगता ! एक ब्राह्मण को मेरे सर से क्या लेना ? लेकिन आपसे वचन बद्ध हूँ आपकी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा ! परन्तु मेरी ये प्रबलतम इच्छा थी की काश महाभारत का युद्ध देख पाता ! और उसने अपना सर काटने की तैयारी करना शुरू करदी !

तब भगवान् श्री कृष्ण ने कहा - हे वीर श्रेष्ठ आपकी ये इच्छा मैं पूर्ण करूंगा ! मैं आपके शीश को इस पीपल की सबसे उंची शाखा पर रख देता हूँ ! और आपको वो दिव्य दृष्टी प्राप्त है जिससे आप ये युद्ध पूरा आराम से देख पायेंगे ! उस योद्धा बर्बरीक ने अपना शीश काटकर श्री कृष्ण को दे दिया ! और श्री कृष्ण ने उसको वृक्ष की चोटी पर रखवा दिया ! सबने आराम की साँस ली ! चलो एक आफत से छुटकारा मिला ! नही तो कैसा महाभारत होता ? ये आपने अंदाज लगा ही लिया होगा ? 

इस घटना के बाद महाभारत का युद्ध खत्म हुवा ! यों तो खुशी मनाने लायक किसी के पास कुछ बचा नही था ! अन्दर से सब जानते ही थे ! किसी का कुछ भी साबुत नही बचा था ! जो भी बचे थे सबके सब आधे अधूरे ही थे !किसी का बाप नही तो किसी का बेटा नही ! पीछे सिर्फ़ युद्ध की विभीषिका ही बची थी ! इसके बावजूद भी पांडव खेमे में जश्न का माहौल था ! सब अपनी २ डींग हांकने में मस्त थे ! धर्मराज महाराज युद्धिष्ठर को ये गुमान था की ये युद्ध उनके भाले की नोंक पर जीता गया ! शायद वो सोचते थे की अगर उनका भाला नही होता तो ये युद्ध नही जीता जा सकता था !

अर्जुन को ये गुमान था की बिना गांडीव के जीतने की कल्पना तो दूर इस युद्ध में टिक ही नही सकते थे ! वो भी लम्बी २ छोड़ने में लगे हुए थे ! और भीम दादा का तो क्या कहना ? उन्होंने और भी लम्बी छोड़ते हुए कहा की अगर मेरी गदा नही होती तो क्या दुर्योधन को मारा जा सकता था ! और दुर्योधन के जीते जी क्या विजयी होना सम्भव था ? सारे ही उपस्थित लोग अपनी २ आत्मसंतुष्टी में मग्न थे !

अब बात श्री कृष्ण की सहन शक्ति के बाहर हो गयी ! तो उन्होंने कहा - भाई लोगो ! आप आपस में क्यूँ ये सब झगडा खडा कर रहे हो ? मुझे मालुम था की जो भी जीतेगा वो इसी तरह की बातें करेगा ! अब मुझे याद आया की वो जो महान धनुर्धर बर्बरीक था ! उसने ये सारा युद्ध देखा है ! और तुम जाकर उससे ही क्यूँ नही पूछ लेते की कौन सा योद्धा है जिसने ये युद्ध जिताया है ? सबको बात जम गयी और सब उस वृक्ष के नीचे इक्कठ्ठा हो गए ! अब श्री कृष्ण ने पूछा -

हे परम श्रेष्ठ धनुर्धर ! आपने यह पूरा युद्ध निष्पक्ष हो कर देखा है ! और मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँ की इस धर्म युद्ध को किसने जीता ? कृपा पूर्वक आप अपना निष्पक्ष मत देने की कृपा करे ! क्यूंकि यहाँ सभी वीरों में कुछ भ्रांतियां उत्पन्न हो गई हैं !

अब बर्बरीक ने बोलना शुरू किया - हे श्री कृष्ण आप कौन से धर्मयुद्ध की बात कर रहे हैं ? कहाँ हुवा था धर्म युद्ध ? अब उस वीर बर्बरीक ने धर्मराज युद्धिष्ठर की तरफ़ इशारा करके पूछा - क्या जब इन धर्मराज ने गुरु द्रोणाचार्य की ह्त्या झूँठ बोल कर करवायी ? हाँ मैं जानबूझकर ह्त्या शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूँ ! उनको युद्ध में नही मारा गया बल्कि उस ब्राह्मण  की षडयंत्र पूर्वक ह्त्या की गई थी ! तो क्या आप समझ रहे हैं वो धर्मयुद्ध था ? और अब धर्मराज और अर्जुन जमीन की तरफ़ देख रहे थे !

और जब दुर्योधन को सूर्यास्त के बाद भी आपने उकसा कर तालाब से बाहर आने को बाध्य किया ? और हद तो तब हो गई जब गदा युद्ध में वर्जित दुर्योधन की जंघा पर प्रहार आपने  ख़ुद करवाया भीम द्वारा ? ये क्या धर्म युद्ध था ? इस तरह उस वीर ने एक एक करके सारे वीरो की पोल पट्टी खोल कर रख दी ! उस निडर योद्धा ने तो कृष्ण को भी नही बख्शा !

अब अंत में उसने कहा - हे श्री कृष्ण अब आपको और सच्ची बात बताऊँ ? मैंने जो इस युद्ध में देखा वो यह था की इस पुरे युद्ध में ये  धर्मराज, अर्जुन , भीम, नकुल और सहदेव तो क्या ? कोई भी योद्धा नही था ! यहाँ तो सिर्फ़ आपका यानी कृष्ण का चक्र चल रहा था ! और योद्धा जो आपस में लड़ते दिखाई दे रहे थे परन्तु असल में वो आपके चक्र से  कट कट गिर रहे थे और उनके गिरते हुए सरो के पीछे मैंने द्रौपदी को अपने खुले बालों से घूमते हुए देखा ! और वो  अपने खप्पर में  रक्त भर भर  कर  उस रक्त का पान कर  रही थी ! बस इसके सिवाय और कुछ भी मैंने नही देखा ! बल्कि और कुछ वहाँ था ही नही ! अब तो वहाँ सनाट्टा छा गया ! और द्रौपदी इस तरह देख रही थी जैसे उसका जन्म लेने का हेतु पूरा हो गया हो !

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अब श्री कृष्ण ने कहा - हे वीर शिरोमणी बर्बरीक ! आपने जिस निष्ठा और साहस से सत्य बोला है ! उससे मैं बहुत प्रशन्न हूँ ! मेरे द्वारा इस लक्ष्य प्राप्ति में आपका भी अनायास ही बड़ा योगदान है ! आप अगर अपनी प्रतिज्ञा से मुकर गए होते तो ये लक्ष्य प्राप्त करना बड़ा मुश्किल था ! मैं आपको खुश होकर ये वरदान देता हूँ की आप कलयुग में मेरे श्याम नाम से पूजे जायेंगे ! और उस समय आप लोगो का कल्याण करेंगे ! और उनके दुःख क्लेश दूर करेंगे !  ऐसा कह कर श्री कृष्ण ने उस शीश को खाटू नामक ग्राम में स्थापित कर दिया ! ये जगह आज लाखो भक्तो और श्रद्धालुओं की आस्था का स्थान है ! यहाँ आज हर माह की सुदी १२ को मेला लगता है ! और फाल्गुन शुदी १२ को तो यहाँ लाखो लाखो अनुयायी सारी दुनिया से आते हैं ! आस्था और भक्ति का वो मंजर देखने लायक होता है जब लोग कोलकाता, मुंबई, मद्रास जैसी सुदूर जगहों से पैदल ही यात्रा कर के यहाँ पहुंचते हैं ! यह जगह आज खाटू श्यामजी ( जिला-सीकर, राजस्थान ) के नाम से प्रसिद्द है ! जयपुर के अत्यधिक नजदीक है ! जहाँ से रींगस होते हुए आप आसानी से वहाँ पहुँच सकते हैं !

मग्गाबाबा का प्रणाम !

बर्बरीक ने दिखाया श्री कृष्ण को चमत्कार

श्री कृष्ण वहाँ से सीधे निकल कर उस जगह पहुँच गए जहाँ वो योद्धा बर्बरीक था ! दिखने में साधारण , एक धनुष और एक बाण ! बस और कुछ नही ! श्रीकृष्ण भी अचरज में थे ! उनको भी जासूस की बातो पर यकीन नही हुआ ! पर वो श्रीकृष्ण ही क्या ? जो बिना पुरी तसल्ली हुए किसी बात को छोड़ दे ! इसीलिए तो वो पूर्णावतार कहलाये ! हर काम को अंजाम तक पहुंचाना ! धीरे २ चलते हुए वो योद्धा तक पहुँच गए ! दोनों ने एक दुसरे को आँखों ही आँखों में  तोला ! श्रीकृष्ण ने महसूस  की कुछ तो है इसमे !उस योद्धा की आँखों में एक अजीब सी चमक दिखी !    

श्री कृष्ण की आँखों में एक चमक आगई ! और उन्होंने उस योद्धा को अपनी तरफ़ से लड़ने का निमंत्रण दिया ! वो योद्धा बोला - नही ये नही हो सकता ! मैं तो अपने प्राण पर अडिग हूँ ! जब श्रीकृष्ण ने देख लिया की ये मानने वाला नही है तो उन्होंने अपने स्वभाव के अनुसार दूसरा पैंतरा आजमाया ! उसका आत्मविश्वास तोड़ने की दृष्टी से बोले - यार तेरे पास ऐसा क्या है ? जो मैं तेरी और लल्लो चप्पो करूँ ? तेरे पास एक बाण है उससे तू क्या कर लेगा ?

भगवान कृष्ण को लग रहा था की ये ग्वालिये जैसा लग रहा है ! और थोडा इसकी हिम्मत कम हो जायेगी तो ये मान जायेगा ! पर वो कोई साधारण योद्धा नही था ! उसने कहा की बताऊँ ? मेरा एक बाण क्या कर सकता है ? कृष्ण बोले - दादा इतनी देर से और रामायण क्या हो रही है ! आप तो दिखाओ ! क्या दिखाना चाहते हो ? वो देखने ही तो आए हैं ! अब उस धनुर्धर ने अपना बाण धनुष पर चढाया और कुछ मन्त्र बोलते हुए ऊपर पीपल के वृक्ष की तरफ़ छोड़ दिया ! वो बाण उड़ चला और उस बाण ने पीपल के प्रत्येक पत्ते पर निशान लगाया और लौट कर इस धनुर्धर के तरकश में समा गया ! इसी के साथ २ एक पता पीपल के पेड़ से टूट कर गिर गया और उस पर कृष्ण ने अपना पाँव रख लिया ! अब फ़िर उस धनुर्धारी ने उसी बाण को हाथ में लिया और फ़िर कुछ मन्त्र बोलते हुए उसको छोड़ दिया ! बाण धनुष से निकल पीपल के प्रत्येक पत्ते को छेदता हुवा आकर श्री कृष्ण के पाँव में घुसने लगा और तुंरत कृष्ण ने अपना पाँव पीछे खींच लिया और वो बाण उनके पाँव के नीचे के पत्ते को बेधता हुवा वापस उस धनुर्धर के तरकश में जा समाया !  ये मंजर देख कर श्रीकृष्ण की ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे रह गई ! आज जीवन में पहली बार ऐसा धनुर्धर देखा था ! उनकी इच्छा तो हुई की इस धनुर्धर के चरण स्पर्श कर ले ! पर युद्ध और स्वार्थ की मजबूरी कभी आदमी को सत्य के साथ नही रहने देती ! कहने को तो धर्म युद्ध था पर सब तरह का अधर्म जो भी युद्ध में हो सकता था वो सब उस धर्म युद्ध में भी हुवा ! और युद्धों में हर काल में ऐसा होता आया है !

अब श्री कृष्ण सोच से बाहर निकले और पूछा - हे धनुर्धर ! आपकी अब क्या इच्छा है ? आप किसकी तरफ़ से युद्ध करोगे ? योद्धा बोला - आप भी श्रीमान अजीब आदमी हो ! जब से  एक ही बात पूछे जारहे हैं ? और मैं जवाब दिए जा रहा हूँ की मैं जो भी हारेगा उसकी तरफ़ से लडूंगा ! अब कृष्ण बोले - मान लीजिये आज के युद्ध में पांडव कमजोर पड़े या हारते दिखे तब ? वो बोला - मैं पांडवो की तरफ़ से लडूंगा ! अब कृष्ण बोले -  और फ़िर आपका बाण कौरवों का सफाया कर देगा तब कौरव हारने लगेंगे ! तब क्या करिएगा ? बर्बरीक नाराज होते हुए बोला - कह तो चुका हूँ की हारने वाले की तरफ़ से लडूंगा ! उस स्थिति में मैं कौरवों की तरफ़ से लडूंगा और पांडवों का सफाया कर दूंगा ! अपना प्रण ही ऐसा है ! मैं किसी को हारते हुए नही देख सकता !

अब श्री कृष्ण को काटो तो खून नही ! उन्होंने कभी स्वपन्न में भी इस बात की कल्पना नही की थी ! इस योद्धा ने आकर तो सारे गणित बिगाड़ दिए ! अभी तक जीत के जो समीकरण उन्होंने बैठाए थे वो सारे ध्वस्त दिखाई देने लगे ! अब क्या किया जाए ! ये तो जिसकी तरफ़ से भी लडेगा तब सामने वाला तो हारेगा ही उस स्थिति में ये वापस हारने वाले की तरफ़ से लडेगा ! इस तरह से तो ये दोनों तरफ़ के सब योद्धाओं को मार डालेगा  ! कुछ भी नही बचेगा ! क्या फायदा युद्ध का ! जब कोई विजयी होने के लिए ही नही बचेगा ! उन्होंने उसको समझाने के लिए कहा - धनुर्धर मैं आपको प्रणाम और नमन करता हूँ ! मेरी जानकारी में आपसे बढ़ कर और कोई धनुर्धर आज इस भूतल पर नही है जो आपका मुकाबला कर सके ! और आप जो कह रहे हैं उस हिसाब से इस युद्ध में सिर्फ़ और सिर्फ़ मौत है ! कोई भी नही बचेगा ! अत: आप अगर इस युद्ध में भाग नही ले तो ये मानवता के लिए अच्छा होगा !

अब योद्धा थोडा नाराजी दिखाता हुवा बोला - मुझे इससे कोई फर्क नही पङता की इसका परिणाम क्या होगा ? और आपने इस युद्ध की नींव रखते समय हम जैसे योद्धाओं के बारे में क्यूँ नही सोचा ? आपको सिर्फ़ कर्ण और अर्जुन दो ही धनुर्धर दिखे थे क्या ? अब मैं मेरी प्रतिज्ञा से नही हटूंगा ! चाहे जो हो जाए मैं अपनी प्रतिज्ञा पर कायम हूँ ! और रहूंगा ! और आप मुझे युद्ध करने से भी नही रोक सकते !

और श्री कृष्ण ने भी सोचा की ये सही कह रहा है ! उस समय के नियमो के हिसाब से व्यक्ति अपनी पसंद के खेमे में शामिल होकर युद्ध लड़ सकता था ! श्री कृष्ण के सामने इस युद्ध के जब आसार दिखाई देने लगे थे तब से आज तक इससे पेचीदा समस्या नही आई थी ! इस धनुर्धर ने तो सारे समीकरण ही उलटा दिए ! बड़ा मुश्किल है ! श्री कृष्ण जैसा व्यक्ति और चिंतित ? समस्या शायद बड़ी गंभीर है ! (क्रमश:)

मग्गाबाबा का प्रणाम !

बर्बरीक : महाभारत युद्ध के निर्णायक !

महाभारत युद्ध के दिनों में इस युद्ध की उतनी ही गहन चर्चा और उत्सुकता थी जैसी इस सदी में हुए हाई-टेक युद्ध , मित्र राष्ट्र बनाम ईराक़ युद्ध की ! जैसे इस युद्ध में लाबिंग की गई थी की कौन कौन अमेरिका का साथ देगा और कौन नही ! ये अलग बात है की जो भी आया वो अमेरिका के साथ ही आया या फ़िर तटस्थ रह गया ! ईराक़ के साथ खुल कर कोई नही आया ! महाभारत युद्ध में भी बड़े पैमाने पर लाबिंग हुई थी और इसी लाबिंग का प्रमाण है की श्रीकृष्ण स्वयं तो पांडवो के साथ थे परन्तु उनकी सेना कौरवों के पक्ष में खडी थी ! कहने का मतलब ये की योद्धा आ रहे थे और दोनों खेमे सीमा पर ही उनकी आवभगत में खड़े होकर उनको अपने २ पक्ष में आने का निवेदन कर रहे थे !

 

महाभारत का युद्ध उतरोतर चिंताजनक हालत में पहुँच रहा था ! उस समय में युद्ध भी धर्म युद्ध ही हुआ करते थे ! और इस युद्ध में भी बहुत हद तक इस बात की कोशीश की गई थी की इस नियम का पालन हो ! पर शायद युद्ध और प्रेम में ये बातें केवल कहने भर की ही होती  हैं ! जैसे जयद्रथ वध में हुआ, कर्ण के साथ हुआ, दुर्योधन जब अंत समय तालाब में छुपे थे , तब हुआ ? यह एक अलग प्रसंग हो जायेगा ! और फ़िर कभी संयोग आया तब चर्चा करेंगे !

अभी तो आप को युद्ध  में भाग लेने  आए एक योद्धा  की कहानी सुनाते हैं  ! जब भी कोई योद्धा युद्ध क्षेत्र में आता था , दोनों और से उसे अपने पक्ष में करने  की कवायद शुरू हो जाती थी ! यह बर्बरीक नाम का योद्धा मात्र अपना धनुष और एक बाण लेके वहाँ आता है ! दोनों तरफ़ से स्वाभाविक गतिविधियाँ हुई , पर जब देखा की इसके पास तो एक ही बाण है तो यह सोच कर की ये क्या लडेगा एक बाण से !  किसी ने बहुत ज्यादा रूचि नही ली ! बर्बरीक दोनों खेमो के मध्य बिन्दु, एक पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े हो गए और यह घोषणा कर डाली - मैं उस पक्ष की तरफ़ से लडूंगा जो हार रहा होगा !

 

mahabharat yudh उसकी यह घोषणा सुन कर वहाँ खड़े कुछ लोगो ने सोचा की कोई पागल होगा ! इसके पास ना कोई हथियार है, ना ही कोई बाण वगैरह हैं ! ऐसे ही हवाबाजी कर रहा होगा ! जासूसों ने, जैसा की रोज की रिपोर्टिंग करते थे , आज भी अपनी २ रिपोर्ट दी ! और अंत में उन्होंने बताया की आज एक ऐसा पागल भी योद्धा बन कर आया है और बोल रहा है की वो उसकी तरफ़ से लडेगा जो हार रहा होगा ! कौरव पक्ष में किसी ने इस पर ध्यान भी नही दिया ! सब हंस कर टाल गए और अपने २ शिविरों में चले गए !  उधर पांडव खेमे में  भी रिपोर्टिंग का काम चल रहा था ! असल में लोग कहते हैं की पांडव  श्री कृष्ण  के कारण ही जीते थे ! यह बात बिल्कुल सही है ! असल में पांडवों का पूरा  सी.आई.डी. विभाग श्री कृष्ण के जिम्मे था ! और इसमे ही उनकी प्रतिज्ञा भी बचती थी ! कोई हथियार उठाना नही पड़ रहे थे ! और सबसे महत्त्व पूर्ण कार्य को अंजाम दे रहे थे ! यहीं पर कौरव मात खा गए ! वरना तो इस युद्ध की कहानी ही अलग होती !  इसीलिए दुर्योधन को मुर्ख कहा गया ! उस बेवकूफ ने कभी भी सी, आई. डी. विभाग पर धन नही खर्च किया ! सिर्फ़ हथियार और योद्धा खरीदता रहा ! और पांडव इस विभाग में उससे बड़े उस्ताद थे ! उनका सारा दारोमदार ही जासूसी पर था ! और इस विभाग के चीफ भी स्वयं भगवान श्री कृष्ण थे ! जो की इन धंधों में बचपन से ही डिग्रीधारी थे !

आज की जासूसों की रिपोर्टिंग सुनने महाराज युधिष्ठर और अर्जुन भी कक्ष में उपस्थित थे ! जासूस ने जैसे ही बर्बरीक के बारे में बताया , एक बार तो बात आई गई हो गई ! पर श्री कृष्ण   ने तुंरत जासूस से कहा - फ़िर से बताना ! क्या कह रहे थे ?
जासूस ने योद्धा के बारे में बताया और उसकी प्रतिज्ञा के बारे बताया ! अब जासूस ने जो कुछ सुनाया वो सुनकर श्री कृष्ण के माथे पर चिंता की लकीरे साफ़ उठ आई ! महाराज युधिष्ठर के पूछने पर श्री कृष्ण बिना कुछ कहे तेजी से उठकर बाहर चले गए !
और उनको परेशान देख कर महाराज युधिष्ठर और अर्जुन भी विचलित हो गए ! दोनों अच्छी तरह जानते हैं की जब भी पांडवो की सुरक्षा पर आंच आती दिखाई देती है , उसी समय श्रीकृष्ण इतना परेशान हो जाते हैं ! (क्रमश:)

मग्गाबाबा का प्रणाम !

क्‍या फकीर को राजमहल का सुख उठाना शोभा देता है ? भाग-२

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यह तो ५/७ पागल दीवानों की महफ़िल है ! जहाँ बैठकर ये दीवाने सनम की बातें करते हैं ! और सनम बातो से नही मिला करते ! वो तो सनम की नजरे इनायत कभी किसी जन्म में हो जाए तो उसकी मर्जी ! पर हम सनम की बातें इस डर से करना क्यूँ छोड दे  ? अरे जब हमको सनम की बातें करने में आनंद आता है तो सनम को भी तो हम से प्रेम होगा की नही ? वो भी तो हमसे मिलने को तरस रहा होगा ? मैं तो कहता हूँ सनम को की हमें तो तू तेरे सनमखाने की बातें ही करने दे ! जब तेरी मर्जी हो तब हमारे पास आजाना ! जल्दी नही है हमें ! पर हम तेरी बातें करना नही छोडेंगे ! 

 

राजा जनक का जैसे ही बुलावा आया ! सेवक ने आकर संदेश दिया की राजा आपको स्नान करवाने नदी पर ले लेजाना चाहते हैं !अब स्नान करवाने तो क्या ? बल्कि उस संन्यासी की क्लास लगाने ले जा रहे थे ! पर राज पुरूष हैं तो थोड़े शालीन शब्द प्रयोग करते हैं ! राजमहल नदी तट पर ही था !  ऋषी-पुत्र अपनी लंगोटी उठाकर चल दिया ! राजा और संन्यासी दोनों नदी में स्नान कर रहे हैं ! संन्यासी सोच रहा है ये योगी तो हो ही नही सकता ! ये तो महाभोगी है ! देखो यहाँ कैसे दासियाँ इसके वस्त्र लिए खडी हैं ? एक तरह संन्यासी का मन बड़ा प्रफुल्लित है की इस ज्ञानी राजा के सामने स्वयं वो कितना बड़ा त्यागी है ! और वो ख़ुद की उपलब्धियां जनक की तुलना में बहुत बड़ी मान रहा था !

इतनी देर में संन्यासी देखता है की राजमहल में आग लग गई है ! अब पता नही सच में लग गई या लगवा दी गई ? जनक जैसे पागल का क्या भरोसा ? पागल और ज्ञानी में ये ही तो एक साम्यता रहती है ! लगवा भी दे आग ! संन्यासी को समझाने के लिए  ! पर कहानी तो यही कहती है की आग लग गई !  चारो तरफ़ लोग भागते दिखाई दे रहे हैं ! वो कुछ कहने के लिए राजा की तरफ़ नजर उठा कर देखता है ! उसको आश्चर्य होता है की राजा जलते महल को देख रहा है ! और दासिया उसकी पीठ पर उबटन लगा रही हैं ! आश्चर्य घोर आश्चर्य... ! संन्यासी सोचता है , कैसा बेवकूफ है ये राजा ? इसका महल जल रहा है , और इसको चिंता ही नही है !

संन्यासी इतनी देर में देखता है की आग फैलती २ नदी तट तक बढ़ रही है और अब तो जहाँ इस संन्यासी की लंगोटी  रक्खी थी, वहाँ तक आग फ़ैल चुकी है ! संन्यासी ने सोचा की  ये राजा तो महा ऐयाश दीखता है और आलसी भी ! अरे महल जल रहा है और ये स्नान में मग्न है ? तो संन्यासी जल्दी से तैर कर तट पर आया और अपनी लंगोटी उठा कर दौड़ पडा ! सही में लंगोटी ही जल गई तो फ़िर दिगंबर रह जायेगा ! आख़िर कितनी कीमती चीज है ? सो भाग लिया विपरीत दिशा में, अपनी लंगोटी उठाकर  !

क्या तो संन्यासी ? और क्या उसकी लंगोटी ? कितना मूल्य होगा उसकी लंगोटी का ? राजा का राजमहल जल रहा है ! उसी राज महल में स्वाभाविक है उसकी रानियाँ और राज कुमार / कुमारियाँ भी होंगे ! पर वो निश्चिंत है ! और एक ये संन्यासी यानी जिसने सब कुछ त्याग दिया है ! उसके लिए इतनी कीमती है लंगोटी ? जनक सब कुछ छोड़ कर , स्नान का आनंद ले रहे हैं और संन्यासी का मन बसा है लंगोटी में ! अरे वाह रे त्यागी महाराज ! धन्य है आपका त्याग और सन्यास ! इतना होने पर भी उनको जनक भोगी और ढोंगी दिखाई पड़ रहे हैं !  जनक ने सोचा होगा - ये भी किसी कलयुग का संन्यासी होगा ! इतने से इसको अक्ल नही आयेगी !  इसको कुछ और एक्स्ट्रा डोज देना पडेगा ! और बिना ज्ञान कराये छोड़ दे तो फ़िर विदेह जनक कैसे ! ये ही तो उनकी विशेषता है ! बस २४ घंटे में तो वो वज्र मुर्ख को ज्ञानी बनादे !

राजा जनक ने देखा की ये तो गया बिना ज्ञान लिए ही , तो सेवक दौडाए उसके पीछे ! कहा -  उस संन्यासी महाराज को लाओ वापस ! अभी उसकी कक्षा पुरी भी नही हुई और वो तो भाग लिया ! सेवक दौड़ पड़े उस संन्यासी के पीछे ! और थोड़ी देर में ही उसको ले कर वापस आगये !

राजा जनक ने पूछा - क्या हुवा ऋषिवर ? आप भाग क्यूँ लिए थे ? संन्यासी ने सोचा अजीब पागल है ! अब इसका क्या करे ? राजा है , पकड़वा कर बुलवा  लिया , इच्छा हो जाए तो जेल में भी डाल दे ! उसने डरते २ अपनी दुविधा बताई की आप कैसे ज्ञानी हो ? आपको इतना भी नही पता की राजमहल जल रहा है और आप दासियों में मग्न हैं ? आप तो भोगी हो !

राजा बोला - ठीक है ऋषि पुत्र ! आप अब महल चले ! दोपहर होने आई ! मुझे मालुम है आपका मन यहाँ नही लग रहा है ! आप भोजन कर ले और फ़िर थोडा विश्राम करके आप जा सकते हैं ! संन्यासी के तो जान में जान आई ! चलो अब थोड़ी देर में तो इस पागल से पीछा छुट जायेगा ! महल में शानदार दावत का प्रबंध था ! ५६ भोग .. सुंदर दासियाँ परोसने के लिए ! और भी सुंदर २ दासियाँ पंखा झल रही हैं ! संन्यासी को नहाने के बाद की भाग दौड़ में कस कर भूख लगी हुई थी ! और फ़िर इसके बाद जाने की आज्ञा मिल चुकी थी सो संन्यासी को भोजन की सुगंध से और कस कर भूख लग आई !  और संन्यासी ने मन बना लिया था की आज डट कर ५६ भोग का आनंद लेगा ! पता नही अब भविष्य में कब राजसी भोजन का अवसर मिले !

राजा जनक और संन्यासी खाने के लिए आसन पर बैठे ! संन्यासी ने देखा ठीक उसके सर के ऊपर एक नंगी तलवार बिल्कुल कच्चे धागे से लटकी हुई है ! ज़रा सा हवा का झोंका भी उसको गिरा सकता था संन्यासी के सर पर ! उसकी तो रूह काँप गई ! सोचा , ये तो बड़ा पागल है राजा ! इसको इतनी भी अक्ल नही है की इस हालत में इंसान कैसे खाना खायेगा ! पर क्या बोले ? राजा का डर भी था ! उधर तरह २ के व्यंजन परोसने का दासियाँ आग्रह करती रही ! जैसे तैसे थोडा बहुत अन्दर उतारा और कुल कोशीश यही की जल्दी से जल्दी भोजन खत्म कर के इस जगह से उठ जाय ! जिससे इस तलवार का खतरा टले !

उधर राजा इत्मीनान से ५६ भोग का आनंद ले कर भोजन उदरस्त करने में लगे हैं ! संन्यासी हाथ धोकर उठने की फिराक में है  ! पर शिष्टाचार वश राजा के पहले उठ नही सकता ! सर पर नंगी तलवार लटकी है ! बड़ी दुविधा ! सारा ध्यान तलवार में लगा है ! खाना तो क्या खाता ? जैसे ही राजा ने हस्त-प्रक्षालन शुरू किया की इन्होने तो तुंरत वो आसन छोडा ! हाथ तो धोये बैठे ही थे ! उस आसन से हटते ही जान में जान आई ! जान बची तो लाखो पाये ! अब नही आयेगा ये किसी राजा के राजमहल में  ! कसम खाली आज ! 

दासियों ने पान बीड़े पेश किए ! और जनक ने पूछा - कहिये ऋषिवर , भोजन कैसा लगा ! आपके लिए आज बिल्कुल स्पेसियल आर्डर देकर बनाया गया था ! और हमारे राजमहल के प्रधान रसोइए ने अपने हाथों से बनाया था ! मुझे तो बड़ा स्वादिष्ट लगा ! उम्मीद करता हूँ आपको भी  स्वाद तो पसंद आया होगा ? राजा का इतना पूछना  था की संन्यासी फट पडा ! उसने सोचा की अगर तलवार गिर गई होती तब भी मर ही चुके होते ! अब बोलने से भी क्यूँ चूकें ? ऐसी तैसी इस राजा की ! होगा राजा ! क्या इस तरह घर में आए के प्राण लेगा क्या ? 

वो संन्यासी बोला - राजन ! आप अजीब मसखरी करते हो ! व्यंजन तो बहुत बढिया २ बनवाये , परोसवा भी दिए ! पर स्वाद कहाँ लेने दिया ? अरे अगर सर पर तलवार और वो भी नंगी तलवार लटकी हो तो कोई स्वाद ले सकता है क्या ? सच बात तो यह है की मैं तो आपके डर से खाने का नाटक कर रहा था ! सारा ध्यान तो मेरा उस नंगी तलवार पर लगा था ! ५६ भोग का मजा क्या ख़ाक लेता ?

अब विदेह जनक बोले - ऋषिवर , आपको जिस बात को समझने के लिए आपके पिताजी ने भेजा था वो मैंने समझा दी है ! और आशा करता हूँ की आप जो मेरे को भोगी समझ  रहे थे वो भ्रान्ति भी आपकी दूर हो गई होगी  ! ऋषिपुत्र राजा जनक के चहरे की तरफ़ टक टकी लगाए देखता रहा और राजा जनक बोलते रहे !


जिस तरह तुम्हारा सारा ध्यान ५६ भोग में नही होकर भी तलवार में था ! जबकि तुम प्रत्यक्षत: ५६ भोग भोगते हुए दिखाई दे रहे थे ! और तुमने उनको खा भी लिया और तुम्हे स्वाद भी नही मालुम ! उसी तरह मैं ये सारा सुख वैभव भोगता हूँ ! पर मुझे वाकई इन भोगो का स्वाद नही मालुम !  भोगता दिखाई जरुर देता हूँ पर मेरा सारा ध्यान २४ घंटे उस तलवार रूपी ब्रह्म में ही लगा रहता है ! और ये भोग मैं चाहूँ तो भी छोड़ कर नही जा सकता , क्योंकि मेरे पिछले जन्मों के पाप पुण्य का हिसाब-किताब भी यहीं होना है !  पिछले जन्मों के शेष बचे हुए पुण्य की वजह से मैं राजा हूँ ! नए शिरे से कोई पाप पुण्य नही हों , इस लिए मैं मेरे अंत:करण में उसी ब्रह्म को स्थित देखता हूँ ! ये कर्म मुझे छू भी नही जाते ! और संन्यासी पूर्ण संतुष्ट होकर  विदेह जनक को प्रणाम करके चला गया !

मग्गाबाबा का प्रणाम !

क्‍या फकीर को राजमहल का सुख उठाना शोभा देता है ?

कुछ व्यस्तताएं जीवन की ऐसी हो जाती हैं की हम जो करना चाहते हैं और वो समय पर कर नही पाते ! अब जैसे बीमारी को ही लेले ! इधर में  " श्री जीतेन्द्र भगत"  ने सर्जरी करवाई ! चंद दिन अस्पताल में बिताए ! और उनके प्रश्न पहले भी आते रहे हैं ! और उनका आज भी एक प्रश्न है ! जवाब देने का मूड नही था ! क्योंकि हम कुछ दूसरी पोस्ट लिखने के मूड में थे !  पर फ़िर अचानक ध्यान में आया की वो अभी अस्पताल से लौटे हैं, और उनकी जिज्ञासा का यथासम्भव जवाब देना चाहिए !

वैसे हमने ४ साल पहले  "बोम्बे हॉस्पिटल, मुम्बई"  में अपने दिल की "बाई-पास-सर्जरी" करवाई थी , तब ११ दिन वहाँ रहने का शौभाग्य हमें प्राप्त हुआ था ! हमारा ऐसा मानना है की वो ११ दिन हमारी जिन्दगी के सबसे खूबसूरत दिन थे ! उन ११ दिनों को हमने जितना एन्जॉय किया उतना कभी नही किया ! ध्यान के जितने गहरे प्रयोग हम वहाँ कर पाये वो बाहर सम्भव नही हैं ! वहाँ के डाक्टर्स भी चमकृत थे , हमारी रिकवरी देख कर ! वो आज तक हमारे मित्र बने हुए हैं और ध्यान का उपयोग  सर्जरी में स्वीकार करते हैं !  हम सोचते हैं भगत साहब भी विपस्यना ध्यान सीख के आए हैं तो उन्होंने भी कुछ उपयोग इस मौके का अवश्य किया होगा !

जीतेन्द्र भगत साहब का सवाल है :-

मग्‍गा बाबा को मेरा प्रणाम, आपके आश्रम से कई दि‍नों से दूर था। आज की कथा में फकीर की दुनि‍यादारी बहुत भाई, पर कुछ चीजें सोचता भी रहा- क्‍या फकीर को राजमहल का सुख उठाना शोभा देता है, शायद मैं फकीर होता तो ऐसा कभी नहीं करता। बंधन में बि‍ना बंधे भौति‍क सुख भोगना भी राग ही है, वैराग नहीं। गुस्‍ताखी माफ।
पि‍छली पोस्‍ट में आनंद को बुद्ध ने सही तरह समझाया। वाकई एक ही बात को समझने के लि‍ए लोगों के पास अलग-अलग बुद्धि‍ पाई जाती है।
आपके अनुग्रह का आकांक्षी...

10 October 2008 23:09

आपके सवाल के जवाब में एक कहानी सुनाते हैं ! शायद आप बात को समझ पायेंगे !

राजा जनक का नाम सबने सुना होगा ! लेकिन शायद कम लोगो को मालुम होगा की राजा जनक के लेवल का ज्ञानी दूसरा कोई नही था ! वो स्वयं  चेतना के उच्च शिखर पर थे ! उनको गुरु कहाँ से मिले ? क्योंकि स्वयं महान ज्ञानी और जैसे सीता स्वयंबर का प्रण कर लिया था इसी तरह उनका यह भी प्रण था की गुरु ऐसा चाहिए जो मुझे ज्ञान कराने में सिर्फ़ इतना समय लगाए , जितना घोडे की पीठ पर सवार होने में लगता है  ! अब बताइये ऐसा गुरु कहां मिले ? घोडे की पीठ पर सवार होने में ज्यादा से ज्यादा अनाडी आदमी को २० सेकिंड और जनक जैसे राज-पुरूष को तो पलक झपकना भी ज्यादा ही हो जायेगा !  अब ये घोषणा सुन कर कौन गुरु तैयार होगा ! इतना त्वरित ज्ञान लेने और देने में दोनों ही पक्षों का चेतना का  स्तर क्या होगा ? ज़रा कल्पना करिए ! 

अब सामने आए अष्टावक्र ! उन्होंने कहा- राजन ये तो ज्यादा समय है ! मैं तो तुमको सिर्फ़ इतनी देर में ज्ञान दे सकता हूँ जितनी देर में तुम घोडे पर चढ़ने के लिए रकाब में पाँव डालो ! बैठने तक तो बहुत देर हो जायेगी ! पर मेरी भी एक शर्त है !
राजा जनक सन्न रह गए............ !

ये अलग कहानी हुई ! फ़िर कभी देखेंगे ! यहाँ आपको ये कहानी थोड़ी सी सुनाने के पीछे उद्देश्य यह है की राजा जनक किस उच्च  स्तर के ज्ञानी पुरूष थे ! राजा जनक के पास  बड़े बड़े ज्ञानी,  महात्मा और साधू-संन्यासी ज्ञान प्राप्त करने आते थे !

एक दिन राजा जनक महफ़िल में बैठे हैं ! राज-नर्तकी नृत्य में लीन है और जनक बड़े मनोयोग से नाच-गान में मशगूल हैं ! एक संन्यासी आता है ! उसको आसन दे कर आने का सबब पूछते हैं ! वो संन्यासी कहता है - राजन मेरे पिताने मुझे आपसे ज्ञान लेने भेजा है ! जनक कहते हैं - ठीक है ! अभी तो आप भी नाच-गाने का आनंद लीजिये ! ज्ञान की बातें फ़िर कर लेंगे ! और उस ऋषी-पुत्र को भी राजा ने वहीं बैठा लिया ! बेचारा ऋषी-पुत्र ... घबरा गया.. जनक के ये हथकंडे देख कर ! उसने सोचा , शायद पिताजी से भूल हुई है ! ये मुझे क्या ज्ञान देगा ? नृत्य-गान में मशगूल रहने वाला ? शायद लोगो ने इस राजा के डर के मारे इसको ज्ञानी कहना शुरू कर दिया है ! जैसे आजकल नकली डिग्री  पी.एच.डी. की लेकर कोई अपने आपको डाक्टर लिखना शुरू करदे !   ऋषी-पुत्र का मन ग्लानी से भर गया ! उसकी इच्छा हुई की इसी वक्त निकल भागे यहाँ इस ढोंगी ज्ञानी के चंगुल से ! पर पिता की अवज्ञा का डर ! सो राजा के पास बैठा रहा ! और जनक ने भी जितना भोगीपना दिखाना था वो सब दिखाया !

रात को राजा ने उसको बढिया आलिशान राज-कक्ष में रुकवा दिया ! दासियाँ पंखा झल रही हैं, आलिशान गद्दे पर उसको नींद कहाँ ? मन ही मन पिताजी को गालियाँ देने लगा ! और जनक को तो पता नही क्या २ मन ही मन सुना डाला ! राजा जनक ने तो उसका धर्म ही भ्रष्ट कर डाला ! जिस ऋषि-पुत्र को किसी औरत जात की हवा नही लगी थी उसको औरतो से पंखा करवा दिया इस पाखंडी ज्ञानी ने ! इस पाखंडी राजा ने ये भी नही सोचा की अभी ये ऋषी-पुत्र ब्रह्मचारी है ? ओहो ..हो .. ! बड़ा अधर्मी है ये ...! रात कैसे जैसे राम राम करते निकली ! सुबह ही राजा का आदेश आगया ! शेष अगले भाग में.... !

मग्गाबाबा का प्रणाम !
( अगला भाग हम जल्द से जल्द पोस्ट करेंगे ! पोस्ट ज्यादा लम्बी होने की दुविधा होने से आज  इतना ही !)

तुझमे और मुझमे क्या फर्क ?

एक राजा जंगल में शिकार खेलने जाया करता था ! उसी रास्ते में सड़क किनारे एक फकीर की कुटिया भी थी ! तो राजा जब भी उधर से निकलता तब उसकी फकीर से दुआ सलाम होने लग गई ! और धीरे २ राजा की उस फकीर में श्रद्धा हो गई ! अब राजा जब भी उधर से निकलता , वो फकीर को प्रणाम करता और थोड़ी देर वहाँ रुक कर फकीर की बातें सुनता ! राजा को इससे बड़ी शान्ति मिलती !

राजा को फकीर बड़ा दिव्य और पहुँचा हुवा मालुम पड़ने लगा ! अब राजा जब भी फकीर से मिलता वो हमेशा फकीर से आग्रह करता की आप राज महल चलिए ! फकीर मुस्करा कर टाल देता ! अब ज्यूँ २ फकीर मना करता गया त्यों २ राजा का आग्रह बढ़ता गया ! फ़िर एक दिन बहुत आग्रह पर फकीर राजमहल जाने को तैयार हो गया ! अब राजा का तो जी इतना प्रशन्न हो गया की पूछो मत ! राजा ने फकीर के  राजमहल पहुँचने पर इतना स्वागत सत्कार किया की जैसे साक्षात ईश्वर ही उसके राजमहल में पधार गए हों ! राजा ने फकीर के स्वागत में पलक पांवडे बिछा दिए ! और फकीर को राजमहल के सबसे सुंदर कमरे में ठहराया गया ! और राजा अपना दैनिक कर्म करने से जो भी समय बचता वो फकीर के पास बैठ कर उससे ज्ञानोपदेश लेने में बिताता ! राजा परम संतुष्ट था ! और फकीर भी मौज में !

समय बीतता गया ! अब राजा ने नोटिस करना शुरू किया की फकीर की हरकते बड़ी उलटी सीधी हो गई हैं ! राजा ने देखा - फकीर जो कड़क जमीन पर सोया करता था कुटिया में , अब नर्म गद्दों पर शयन करता है ! वहाँ रुखा सुखा खा लिया करता था , अब हलवा पूडी से भी मना नही करता ! शुरू में तो राजा, रानियाँ और राजकुमार श्रद्धा पूर्वक फकीर के चरण दबाया करते थे अब वो मना ही नही करता , चाहे सारी रात दबाए जाओ  ! और कभी २ तो दासियों को चरण दबाने को कहता है ! उसको जो भी काजू बादाम खाने को दो , मना ही नही करता ! और ऐसा आचरण तो फकीर को नही ही करना चाहिए !


और एक रोज तो हद्द ही हो गई जब वो किसी राज पुरूष द्वारा दी गई मदिरा का सेवन भी बिना किसी ना-नुकुर के करने लग गया ! अब राजा ने सोचा हद्द हो गई ! ये कैसा फकीर ? जो मैं करता हूँ वो ही ये करता है ! इसमे मुझमे क्या फर्क ? मेरे जैसे ही गद्दों पर सोता है, मदिरा सेवन करता है , दासियों से पाँव दबवाता है ! चाहे जो खाता है ! राजा को बड़ी मुश्किल हो गई ! उसकी सारी श्रद्धा जो फकीर के प्रति थी वो ख़त्म होती जा रही थी ! क्या करे ?  जिस फकीर को वह परमात्मा समझ कर लाया था ठीक उससे उलटा काम हो गया ! सही है अगर हमको सही में परमात्मा भी मिल जाए तो हम ऐसा ही करेंगे ! इंसान को जब तक जो वस्तु नही मिले तब तक ही उसकी क़द्र करता है ! वो तो अच्छा है की  भगवान समझदार हैं जो आदमी को मिलते नही हैं वरना आदमी तो उनकी भी मिट्टी ख़राब करदे !

वो कहते हैं ना की समझदार आदमी को राजा, साँप और साधू से दोस्ती नही करनी चाहिए पर यहाँ तो सिर्फ़ साँप की कमी थी ! राजा जब पूरी तरह उकता गया तो उसने फकीर से पूछ ही लिया की - बाबा आपमे और मुझमे क्या फर्क रह गया है ! अब आप फकीर कैसे ? फकीर चुप रह गया ! अगले दिन सुबह २ फकीर ने कहा- राजन अब हम प्रस्थान करेंगे !
राजा उपरी तौर पर नाटक करता हुवा बोला- बाबाजी थोड़े दिन और ठहरते ! पर मन ही मन प्रशन्न था की चलो इस आफत से पीछा छूटा ! फकीर ने अपना कमंडल जो साथ लाया था वो उठाया और चलने लगा ! राजा बोला- आपका यहाँ का सामान भी लेते जाइए ! और आपमे मुझमे क्या फर्क है इसका जवाब भी दे दीजिये ! फकीर मुस्कराया और बोला - राजन , जवाब अवश्य देंगे ! चलिए थोडी दूर हमारे साथ , हमको विदा करने थोड़ी  दूर तो  चलिए ! रास्ते में जवाब भी दे देंगे ! इस सारे वार्तालाप में राजा चलता रहा फकीर के साथ साथ ! और इसी तरह बातें करते २ नगर की सीमा तक आ गए !

अब राजा बोला - अब मेरी बात का जवाब मिल जाए तो मैं लौट जाऊं ?
फकीर कहता - बस राजन थोड़ी दूर और ! फ़िर देता हूँ आपकी बात का जवाब !
इस तरह करते २ राजा उस फकीर के साथ काफी दूर निकल आया !
राजा जवाब मांगता और फकीर कहता थोड़ी दूर  और !
अब इस तरह शाम होने को आ गई !  राजा का सब्र जवाब दे गया ! अब राजा झल्लाकर बोला - महाराज , शाम होने को आगई ! मेरे आज के  सारे राज-काज बाक़ी रह गए , राजमहल है, इतनी बड़ी राज-सत्ता है , इस तरह मेरा अनुपस्थित रहना ठीक नही है ! पीछे से कहीं कोई हमला वमला करदे ! तो क्या होगा ? अब मैं और आपके साथ नही चल सकता !आपको जवाब देना हो तो दो नही तो मुझे नही चाहिए ! क्यूँकी आपके पास कोई जवाब है ही नही !

फकीर बोला - बस थोड़ी दूर और चलो ! फ़िर देता हूँ जवाब !

अब आख़िर राजा था इतनी बेअदबी थोड़ी बर्दाश्त करता ! बोला - बस अब बहुत हो गया !
वैसे ही फकीर बोला - बस यही तो है जवाब ! राजन तुम्हारी मजबूरी है राजमहल लौटना हमारी नही ! तुम राज-महल के यानी संसार के बंधन में हो ! उसको छोड़ना मुश्किल ! और हमारी कोई मजबूरी नही कोई बंधन नही ! जितने दिन राजमहल के सुख थे उनका मजा लिया !  आज राजमहल नही है तो छोड़ने की पीडा भी  नही है ! अब आज पेड़ के निचे अपना राज-महल बनेगा ! वहाँ के सुख का आनंद उठाएंगे ! यही है तुझमे और मुझमे फर्क !  हम जहाँ जाते हैं वहीं राजमहल है और तुम्हारे लिए ये मिट्टी गारे के राजमहल में लौटना ही राजमहल है ! फर्क इसी बंधन का है ! 

तुम्हारे को इतनी आजादी नही है की अपनी मर्जी से राजमहल छोड़ दो ! तुमको लौटना मजबूरी है !  हम अपनी मर्जी से राज महल गए थे और अपनी मर्जी से आज छोड़ दिया ! हमको लौटना कोई मजबूरी नही है !

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